वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 582
From जैनकोष
तृणांकुरमिवादाय घातयंत्यविलंबितं।
चौरं विज्ञाय नि:शंकं धीमंतोऽपि धरातले।।
आत्मदेव पर अन्याय- भगवान के समान विशुद्ध ज्ञानानंदस्वभाव वाले इस आत्मा भगवान को किसी भी परपदार्थ की ओर रुचि जगना यह एक आंतरिक पाप है, जिसे मोह और मिथ्यात्व कहते हैं। कहाँ तो इस आत्मा का स्वरूप ही ज्ञान और आनंदरूप है और कहाँ ज्ञानानंदस्वरूप से चिगकर अपने को ज्ञानहीन और आनंदहीन मानकर किसी परपदार्थ से आनंद की भीख चाहना, आशा करना, यह कितना महान पाप है और अन्याय है इस भगवान आत्मा पर। इसके बाद अब द्वितीय श्रेणी में चलिये तो लोकव्यवस्था में जिसे धन समझा गया है अर्थात् जिस मकान में रहते हैं, जो वैभव दुकान को संभाले हैं उन्हें तो लोकव्यवस्था में माना जाता है कि यह हमारा धन है और जो दूसरे मनुष्य के आश्रय हैं, ऐसे घर वैभव माने जाते हैं कि ये पराये हैं, यहाँ पर भी जो पराये वैभव पर, परधन के ग्रहण करने की दृष्टि लगाये, इच्छा करे और कदाचित् कोई प्रवृत्ति करे तो सोच लीजिए कि यह भी कितना महान अन्याय है, ऐसा अन्याय करने वाले को ही चोर कहते हैं।
पर को निज मानना चोरी- परमार्थदृष्टि से देखा जाय तो आत्मा के निजस्वरूप को छोड़कर देह को और घर को, परिवार को अपनाना, अपना समझना यह एक चोरी है क्योंकि वहाँ परवस्तु को अपनाने की कोशिश की है। व्यवहारिक चोरी में भी और होता क्या है? दूसरे के घर में रखे हुए धन को अपना लेना यही तो होता है। जो कल तक दूसरे की चीज कहलाती थी आज उसको कोई हर ले, अपनी बना ले तो इसे ही चोरी कहते हैं। परवस्तु को अपनी बना लेने का नाम चोरी है। परमार्थदृष्टि से देखो तो आत्मा का आत्मा के स्वरूप को छोड़कर सब कुछ पर है। उस पर को अपना मान लेना यही है चोरी। आध्यात्मिक चोरी तो यह है। इस चोरी में रहने वाले अर्थात् अज्ञानी मोही पुरुषों को भी आत्मा के ध्यान की पात्रता नहीं रहती, और फिर जो व्यवहारिक चोरी में भी चलते हैं वे तो ध्यान की पात्रता से अधिक दूर हैं।
चोर की अप्रतिष्ठा- चोर पुरुष की लोक में प्रतिष्ठा नहीं होती। कोई जानने में आ जाय कि यह पुरुष चोर है तो उस पुरुष को बड़े बड़े बुद्धिमान पुरुष भी इस तरह पकड़ लेते हैं और उसे मारने पीटने लग जाते हैं। जैसे कि किसी तृण को कोई पकड़ ले और तोड़ कर फेंक दे, ऐसे ही चोर पर भी कोई दया नहीं करता। कोई चोर को पीटता हो और उसे बचाने वाला कहे कि भाई इसे क्यों पीटते हो, और वह पीटने वाला उसकी उस चोरी की घटना को बता दे तो वह भी यही कहता है कि ठीक है पीटना ही चाहिए। तो यह तो एक व्यवहारिक चोरी की बात कही जा रही है। इसकी प्रवृत्ति वाले पुरुष के और अध्यात्म चोरी का परिणाम रखने वाले पुरुष के आत्मध्यान की पात्रता नहीं जगती।
आत्मध्यानरूप धर्म का शरण- लोक में शरण केवल आत्मध्यान है। कहते भी हैं- केवलि पण्णत्तां धम्मां सरणं पव्वज्जामि, मैं केवली भगवान के द्वारा कहे गए धर्म की शरण को प्राप्त होता हूँ। वह धर्म क्या है जो केवली भगवान के द्वारा कहा गया है? वह है आत्मा के ज्ञानानंदस्वभाव के अवलंबन अर्थात् आत्मा का ध्यान। एक आत्मध्यान ही शरण है, ऐसा निर्णय करके अन्य तत्त्व में, अन्य समागम में अपने उपयोग को न फंसायें। सब कार्यों को गौण समझें और एक आत्मरक्षा का आत्मध्यान का कार्य ही हमारे लिए मुख्य है ऐसा अनुभव करें।