स्वभाव
From जैनकोष
वस्तु के स्वयंसिद्ध, तर्कागोचर, नित्य शुद्ध अंश का नाम स्वभाव है। वह दो प्रकार के होते हैं - वस्तुभूत और आपेक्षिक। तहाँ वस्तुभूत स्वभाव दो प्रकार के हैं - सामान्य व विशेष। सहभावी गुण सामान्य स्वभाव है और क्रमभावी पर्याय, विशेष स्वभाव है। आपेक्षिक स्वभाव अस्तित्व, नास्तित्व, नित्यत्व-अनित्यत्व आदि विरोधी धर्मों के रूप में अनन्त हैं, जिनकी सिद्धि स्याद्वाद रूप सप्तभंगी द्वारा होती है। इन्हीं के कारण वस्तु अनेकान्त स्वरूप है।
- स्वभाव के भेद लक्षण व विभाजन
- प्रत्येक द्रव्य के स्वभाव-देखें - वह -वह द्रव्य।
- जीव पुद्गल का ऊर्ध्व अधोगति स्वभाव- देखें - गति / १ / ३ -६।
- वस्तु में अनेकों विरोधी धर्मों का निर्देश- देखें - अनेकान्त / ४ ।
- जीव के क्षायोपशमिकादि स्वभाव-देखें - भाव तथा वह -वह नाम।
- वस्तु में अनन्तों धर्म होते हैं- देखें - गुण / ३ / ९ -११।
- स्वभाव व शक्ति निर्देश
- शक्ति का व्यक्त होना आवश्यक नहीं- देखें - भव्य / ३ / ३ ।
- अशुद्ध अवस्था में स्वभाव की शक्ति का अभाव रहता है-देखें - अगुरुलघु।
- स्वभाव या धर्म अपेक्षाकृत होते हैं।
- गुण को स्वभाव कह सकते हैं पर स्वभाव को गुण नहीं।
- धर्मों की सापेक्षता को न माने सो अज्ञानी।
- स्वभाव अनन्त चतुष्टय-देखें - चतुष्टय।
- स्वभाव विभाव सम्बन्धी-देखें - विभाव।
- स्वभाव व विभाव पर्याय- देखें - पर्याय / ३ ।
- वस्तु स्वभाव के भान का सम्यग्दर्शन में स्थान- देखें - सम्यग्दर्शन / II / ३ ।
स्वभाव के भेद लक्षण व विभाजन
१. स्वभाव सामान्य का लक्षण
१. स्वभाव का निरुक्ति अर्थ
रा.वा./७/१२/२/५३९/८ स्वेनात्मना असाधारणेन धर्मेण भवनं स्वभाव इत्युच्यते। = स्व अर्थात् अपने असाधारण धर्म के द्वारा होना सो स्वभाव कहा जाता है।
स.सा./आ./७१ स्वस्य भवनं तु स्वभाव:। ='स्व' का भवन अर्थात् होना वह स्वभाव है।
का.अ./मू./४७८ धम्मो वत्थुसहावो। =वस्तु के स्वभाव को धर्म कहते हैं। (भाव संग्रह/३७३)
त.अनु./५३ वस्तुस्वरूपं हि प्राहुधर्मं महर्षय:।५३। =वस्तु के स्वरूप को ही महर्षियों ने धर्म कहा है।
स.श./टी./९/२२६/१८ स्वसंवेद्यो निरुपाधिकं हि रूपं वस्तुत: स्वभावोऽभिधीयते। =स्वसंवेद्य निरुपाधिक ही वस्तु का स्वरूप है, वही वस्तु का स्वभाव है।
२. स्वभाव का लक्षण अन्तरंग भाव
क.पा.१/४,२२/६२३/३८७/३ को सहावो। अन्तरङ्गकारणं। =अन्तरंग कारण को स्वभाव कहते हैं।
ध.७/२,४,४/२३८/७ को सहावो णाम। अब्भंतरभावो। =आभ्यन्तर भाव को स्वभाव कहते हैं। (अर्थात् वस्तु या वस्तुस्थिति की उस अवस्था को उसका स्वभाव कहते हैं जो उसका भीतरी गुण है और बाह्य परिस्थिति पर अवलम्बित नहीं है।)
३. स्वभाव का लक्षण गुण पर्यायों में अन्वय परिणाम
प्र.सा./त.प्र./९५,९९ स्वभावोऽस्तित्वसामान्यान्वय:।९५। स्वभावस्तु द्रव्यस्य ध्रौव्योत्पादोच्छेदैक्यात्मकपरिणाम:।९९। = द्रव्य का स्वभाव वह अस्तित्व सामान्य रूप अन्वय है।९५। स्वभाव द्रव्य का ध्रौव्यउत्पादविनाश की एकता स्वरूप परिणाम है।९९।
प्र.सा./ता.वृ./८७/११०/१२ द्रव्यस्य क: स्वभाव इति पृष्टे गुणपर्यायाणामात्मा एव स्वभाव इति। = प्रश्न-द्रव्य का क्या स्वभाव है ? उत्तर-गुण पर्यायों की आत्मा ही स्वभाव है।
४. स्वभाव व शक्ति के एकार्थवाची नाम
देखें - तत्त्व / १ / १ तत्त्व, परमार्थ, द्रव्य, स्वभाव, परमपरम, ध्येय, शुद्ध और परम ये सब एकार्थवाची हैं।
देखें - प्रकृति बन्ध / १ / १ प्रकृति, शक्ति, लक्षण, विशेष, धर्म, रूप, गुण तथा शील व आकृति एकार्थवाची हैं।
२. स्वभाव सामान्य के भेद
न.च.वृ./५९ की उत्थानिका-स्वभावाद्विविधा: -सामान्या विशेषाश्च। =स्वभाव दो प्रकार का हैं-सामान्य, विशेष। (पं.ध./पू./२८०)
३. सामान्य व विशेष स्वभावों के भेद
न.च.वृ./५९-६० अत्थित्ति णत्थि णिच्चं अणिच्चमेगं अणेगभेदिदरं भव्वा भव्वं परमं सामण्णं सव्वदव्वाणं।५९। चेदणमचेदणं पि हु मुत्तममुत्तं च एगबहुदेसं। सुद्धासुद्धविभावं उवयरियं होइ कस्सेव।६०। = अस्तित्व, नास्तित्व, नित्य, अनित्य, एक, अनेक, भेद, अभेद, भव्य, अभव्य और परम। ये ११ सर्व द्रव्यों के सामान्य स्वभाव हैं।५९। चेतन, अचेतन, मूर्त, अमूर्त, एकप्रदेशी, बहुप्रदेशी, शुद्ध, अशुद्ध, विभाव और उपचरित ये १० स्वभाव द्रव्यों के विशेष स्वभाव हैं। [इस प्रकार कुल २१ सामान्य व विशेष स्वभाव हैं। (न.च.वृ./७०)]; (आ.प./४), (न.च.श्रुत/६१)
का.अ./३१२ पं.जयचन्द-वे धर्म (स्वभाव) अस्तित्व, नास्तित्व, एकत्व, अनेकत्व, नित्यत्व, अनित्यत्व, भेदत्व, अभेदत्व, अपेक्षात्व, अनपेक्षात्व, दैवसाध्यत्व, पौरुषसाध्यत्व, हेतुसाध्यत्व, आगम साध्यत्व, अन्तरंगत्व, बहिरंगत्व, इत्यादि तो सामान्य हैं। बहुरि द्रव्यत्व, पर्यायत्व, जीवत्व, अजीवत्व, स्पर्शत्व, रसत्व, गन्धत्व, वर्णत्व, शब्दत्व, शुद्धत्व, अशुद्धत्व, मूर्तत्व, अमूर्तत्व, संसारित्व, सिद्धत्व, अवगाहत्व, गतिहेतुत्व, स्थितिहेतुत्व, वर्तनाहेतुत्व इत्यादि विशेष धर्म हैं।
४. उपचरित स्वभाव के भेद व लक्षण
आ.प./६ स्वभावस्याप्यन्यत्रोपचारादुपचरितस्वभाव:। स द्वेधा-कर्मजस्वाभाविकभेदात् । यथा जीवस्य मूर्तत्वमचैतन्यत्वं, यथा सिद्धानां परज्ञता परदर्शकत्वं च। एवमितरेषां द्रव्याणामुपचारो यथासंभवो ज्ञेय:। = स्वभाव का भी अन्यत्र उपचार करने से उपचरित स्वभाव होता है। वह उपचरित स्वभाव कर्मज और स्वाभाविक के भेद से दो प्रकार का है। जैसे जीव का मूर्तत्व और अचेतनत्व कर्मजस्वभाव है। और सिद्धों का पर को देखना, पर को जानना स्वाभाविक स्वभाव है। इस प्रकार दूसरे द्रव्यों का उपचार भी यथासम्भव जानना चाहिए।
देखें - पारिणामिक / २ अस्तित्व, अन्यत्व, कर्तृत्व, भोक्तृत्व, पर्यायत्व, असर्वगतत्व, अनादिसन्तति बन्धत्व, प्रदेशवत्त्व, अरूपत्व, नित्यत्व आदि भाव च शब्द से समुच्चय किये गये हैं।
स.सा./आ./परि./४७ शक्तियाँ-जीव द्रव्य में ४७ शक्तियों का नाम निर्देश किया गया है, यथा-१. जीवत्व, २. चितिशक्ति, ३. दृशिशक्ति, ४. ज्ञानशक्ति, ५. सुखशक्ति, ६. वीर्यशक्ति, ७. प्रभुत्व, ८. विभुत्व, ९. सर्वदर्शित्व, १०. सर्वज्ञत्व, ११. स्वच्छत्व, १२. प्रकाशशक्ति, १३. असंकुचितविकाशत्व, १४. अकार्यकारण, १५. परिणम्यपरिणामकत्व, १६. त्यागोपादानशून्यत्व, १७. अगुरुलघुत्व, १८. उत्पादव्ययध्रौव्यत्व, १९. परिणाम, २०. अमूर्तत्व, २१. अकर्तृत्व, २२. अभोक्तृत्व, २३. निष्क्रियत्व, २४. नियतप्रदेशत्व, २५. सर्वधर्मव्यापकत्व, २६. साधारणासाधारणधर्मत्व, २७. अनन्तधर्मत्व, २८. विरुद्धधर्मत्व, २९. तत्त्वशक्ति, ३०. अतत्त्वशक्ति, ३१. एकत्व, ३२. अनेकत्व, ३३. भावशक्ति, ३४. अभावशक्ति, ३५. भावाभावशक्ति, ३६. अभावभावशक्ति, ३७. भावभावशक्ति, ३८. अभावभावशक्ति, ३९. भावशक्ति, ४०. क्रियाशक्ति, ४१. कर्मशक्ति, ४२. कर्तृशक्ति, ४३. करणशक्ति, ४४. सम्प्रदानशक्ति, ४५. अपादानशक्ति, ४६. अधिकरणशक्ति, ४७. सम्बन्धशक्ति।
५. प्रत्येक द्रव्य में स्वभावों का निर्देश
न.च.वृ./७० इगवीसं तु सहावा दोण्हं तिण्हं तु सोडसा भणिया। पंचदसा पुण काले दव्वसहावा य णायव्वा।७०। = जीव पुद्गल के २१ स्वभाव हैं, धर्म, अधर्म और आकाश द्रव्य के १६ स्वभाव कहे गये हैं। तथा काल द्रव्य के १५ स्वभाव जानना चाहिए।
स.सा./पं.जयचन्द/आ./क.२ वस्तु में अस्तित्व, वस्तुत्व, प्रमेयत्व, प्रदेशत्व, चेतनत्व, अचेतनत्व, मूर्तिकत्व, अमूर्तिकत्व इत्यादि तो गुण हैं।...एकत्व, अनेकत्व, नित्यत्व, अनित्यत्व, भेदत्व, अभेदत्व, शुद्धत्व, अशुद्धत्व आदि अनेक धर्म हैं। वे सामान्य रूप तो वचन के गोचर हैं, किन्तु अन्य विशेष रूप धर्म वचन के विषय नहीं हैं। किन्तु वे ज्ञानगम्य हैं। आत्मा भी एक वस्तु है उसमें भी अनन्त धर्म हैं।
स.सा./पं.जयचन्द/४०४ आत्मा में अनन्तधर्म है, कितने तो छद्मस्थ के अनुभव गोचर ही नहीं हैं, कितने ही धर्म अनुभव गोचर हैं। कितने ही तो अस्तित्व, वस्तुत्व, प्रमेयत्वादि तो अन्य द्रव्यों के साथ सामान्य और कितने ही परद्रव्य के निमित्त से हुए हैं।
६. वस्तु में कल्पित व वस्तुभूत धर्मों का निर्देश
श्लो.वा.२/१/७/९/५२९/२७ कल्पितानां वस्तुभूतानां च धर्माणां वस्तुनि यथाप्रमाणोपपन्नत्वात् । = वस्तु में प्रमाणों की उत्पत्ति का अतिक्रम नहीं करके कल्पित, अस्ति, नास्ति आदि सप्तभंगी के विषयभूत धर्मों की और वस्तुभूत वस्तुत्व, द्रव्यत्व, ज्ञान, सुख, रूप, रस आदि धर्मों की सिद्धि हो रही है।
स्वभाव व शक्ति निर्देश
१. स्वभाव पर की अपेक्षा नहीं रखता
न्या.वि./टी./१/१३६/४८८ पर प्रमाण वार्तिक से उद्धृत-अर्थान्तरानपेक्षत्वात् स स्वभावोऽनुवर्णित:। = दूसरे पदार्थ की अपेक्षा न होने से वह स्वभाव कहा गया है।
स.सा./आ./११९ न हि स्वतोऽसती शक्ति: कर्तुमन्येन पार्यते।...न हि वस्तुशक्तय: परमपेक्षन्ते। = (वस्तु में) जो शक्ति स्वत: न हो उसे अन्य कोई नहीं कर सकता। वस्तु की शक्तियाँ पर की अपेक्षा नहीं रखतीं।
प्र.सा./त.प्र./१९,९६,९८ स्वभावस्य तु परानपेक्षत्वात् ।१९। स्वभाव: तत्पुनरन्यसाधननिरपेक्षत्वादनाद्यनन्ततया हेतुकयैकरूपया...।९६। सर्वद्रव्याणां स्वभावसिद्धत्वात् स्वभावसिद्धत्वं तु तेषामनादिनिधनत्वात् । अनादिनिधनं हि न साधनान्तरमपेक्षते।९८। = स्वभाव पर से अनपेक्ष है।१९। स्वभाव अन्य साधन से निरपेक्ष होने के कारण अनादि अनन्त होने से तथा अहेतुक, एकरूप वृत्ति से...।९६। वास्तव में सर्वद्रव्य स्वभावसिद्ध हैं। स्वभावसिद्धता तो उनकी अनादिनिधनता से है, क्योंकि अनादिनिधन साधनान्तर की अपेक्षा नहीं रखता।९८।
२. स्वभाव में तर्क नहीं चलता
ध.१/१,१,२२/१९९/२ न हि स्वभावा: परपर्यानुयोगार्हा:। = स्वभाव दूसरों के प्रश्नों के योग्य नहीं हुआ करते हैं। (ध.९/४,१,४४/१२१/२), (और भी देखें - आगम / ६ / ३ )।
ध.५/१,६,७८/५६/७ ण च सहावे जुत्तिवादस्स पवेसो अत्थि। = स्वभाव में युक्तिवाद का प्रवेश नहीं है।
गो.जी./जी.प्र./१८४/४१९/२० स्वभावोऽतर्कगोचर: इति समस्तवादिसमतत्वात् । = स्वभाव में तर्क नहीं चलता, ऐसा समस्तवादी मानते हैं (श्लो.वा.२/भाषा/१/६/३८/३९३/१२); (पं.ध./उ./५३,४८८)।
३. शक्ति व व्यक्ति की परोक्षता प्रत्यक्षता
न्या.वि./वृ./२/१८/३७ पर उद्धृत-शक्ति: कार्यानुमेया हि व्यक्तिदर्शनहेतुका। = शक्ति का कार्य पर से अनुमान किया जाता है और व्यक्ति का प्रत्यक्ष दर्शन होता है।
४. स्वभाव या धर्म अपेक्षा कृत होते हैं
स्या.म./२४/२८९/२१ नन्वेते धर्मा: परस्परं विरुद्धा: तत्कथमेकत्र वस्तुन्येषां समावेश: संभवति। ...उपाधयोऽवच्छेदका अंशप्रकारा: तेषां भेदो नानात्वम्, तेनोपहितमर्पितम् । असत्त्वस्य विशेषणमेतत् । उपाधिभेदोपहितं सदर्थेष्वसत्त्वं न विरुद्धम् । = प्रश्न-अस्तित्व, नास्तित्व और अवक्तव्य परस्पर विरुद्ध हैं, अतएव ये किसी वस्तु में एक साथ नहीं रह सकते। उत्तर-वास्तव में अस्तित्वादि में विरोध नहीं है। क्योंकि अस्तित्वादि किसी अपेक्षा से स्वीकार किये गये हैं। पदार्थों में अस्तित्व, नास्तित्वादि नानाधर्म विद्यमान हैं। जिस समय हम पदार्थों का अस्तित्व सिद्ध करते हैं, उस समय अस्तित्व धर्म की प्रधानता और अन्य धर्म की गौणता रहती है। अतएव अस्तित्व, नास्तित्व धर्म में परस्पर विरोध नहीं है।
देखें - स्वभाव / १ / ६ सप्तभंगी के विषयभूत अस्तित्व नास्तित्व आदि धर्म वस्तु में कल्पित हैं।
५. गुण को स्वभाव कह सकते हैं पर स्वभाव को गुण नहीं
आ.प./६ धर्मापेक्षया स्वभावा गुणा न भवन्ति। स्वद्रव्यचतुष्टयापेक्षया परस्परं गुणा; स्वभावा भवन्ति। = धर्मों की अपेक्षा स्वभाव गुण नहीं होते हैं। परन्तु स्व द्रव्यादि चतुष्टय की अपेक्षा परस्पर गुण स्वभाव होते हैं।
६. धर्मों की सापेक्षता को न माने सो अज्ञानी
न.च.वृ./७४ इति पुव्वुत्ता धम्मा सियसावेक्खा ण गेह्णए जो हु। सो इह मिच्छाइट्ठी णायव्वो पवयणे भणिओ।७४। = जो पूर्व में कहे हुए धर्मों को कथंचित् परस्पर में सापेक्ष ग्रहण नहीं करता है वह मिथ्यादृष्टि जानना चाहिए। ऐसा वचन में कहा है।७४।