ग्रन्थ:मोक्षपाहुड़ गाथा 93
From जैनकोष
सपरावेयखं लिंगं राई देवं असंजयं वंदे।
मण्णइ मिच्छादिट्ठी ण हु मण्णइ सुद्धसम्मत्तो॥९३॥
स्वपरापेक्षं लिङ्गं रागिणं देवं असंयतं वन्दे।
मानयति मिथ्यादृष्टि: न स्फुटं मानयति शुद्धसम्यक्ती॥९३॥
आगे इसी अर्थ को दृ९ढ करते हुए कहते हैं कि -
अर्थ - स्वपरापेक्ष तो लिंग आप कुछ लौकिक प्रयोजन मन में धारण कर भेष ले वह स्वापेक्ष है और किसी पर की अपेक्षा से धारण करे, किसी के आग्रह तथा राजादिक के भय से धारण करे वह परापेक्ष है। रागी देव (जिसके स्त्री आदि का राग पाया जाता है) और संयमरहित को इसप्रकार कहे कि मैं वंदना करता हँ तथा इनको माने, श्रद्धान करे वह मिथ्यादृष्टि है। शुद्ध सम्ययत्व होने पर न इनको मानता है, न श्रद्धान करता है और न वंदना व पूजन ही करता है।
भावार्थ - ये ऊपर कहे इनसे मिथ्यादृष्टि के प्रीति भक्ति उत्पन्न होती है, जो निरतिचार सम्ययत्ववान् है वह इनको नहीं मानता है॥९३॥