भावपाहुड गाथा 80
From जैनकोष
आगे भाव की विशुद्धता निमित्त आचरण कहते हैं -
बारसविहतवयरणं तेरसकिरियाउ भाव तिविहेण ।
धरहि मणमत्तदुरियं णाणंकुसएण मुणिपवर ।।८०।।
द्वादशविधतपश्चरणं त्रयोदश क्रिया: भावय त्रिविधेन ।
धर मनोत्तदुरितं ज्ञानांकुशेन मुनिप्रवर! ।।८०।।
तेरह क्रिया तप वार विध भा विविध मनवचकाय से ।
हे मुनिप्रवर ! मन मत्त गज वश करो अंकुश ज्ञान से ।।८०।।
अर्थ - हे मुनिप्रवर ! मुनियों में श्रेष्ठ ! तू बारह प्रकार के तप का आचरण कर और तेरह प्रकार की क्रिया मन-वचन-काय से भा और ज्ञानरूप अंकुश से मनरूप मतवाले हाथी को अपने वश में रख ।
भावार्थ - यह मनरूप हाथी बहुत मदोन्मत्त है, वह तपश्चरण क्रियादिकसहित ज्ञानरूप अंकुश ही से वश में होता है, इसलिए यह उपदेश है, अन्य प्रकार से वश में नहीं होता है । ये बारह तपों के नाम हैं - १. अनशन, २. अवमौदर्य, ३. वृत्तिपरिसंख्यान, ४. रसपरित्याग, ५. विविक्त- शय्यासन और ६. कायक्लेश - ये तो छह प्रकार के बाह्य तप हैं और १. प्रायश्चित्त, २. विनय, ३. वैयावृत्त्य, ४. स्वाध्याय, ५. व्युत्सर्ग, ६. ध्यान ये छह प्रकार के अभ्यंतर तप हैं, इनका स्वरूप तत्त्वार्थसूत्र की टीका से जानना चाहिए । तेरह क्रिया इसप्रकार है - पंच परमेष्ठी को नमस्कार ये पाँच क्रिया, छह आवश्यक क्रिया, निषिधिकाक्रिया और असिकाक्रिया । इसप्रकार भाव शुद्ध होने के कारण कहे ।।८०।।