योगसार - चूलिका-अधिकार गाथा 502
From जैनकोष
आत्मा भी अपने स्वभाव में स्थित -
नान्यथा शक्यते कर्तुं मिलद्भिरिव निर्मल: ।
आत्माकाशमिवामूर्त: परद्रव्यैरनश्वर: ।।५०३।।
अन्वय : - आकाशं इव निर्मल: अमूर्त: अनश्वर: आत्मा मिलद्भि: परद्रव्यै: इव अन्यथा कर्तुं न शक्यते ।
सरलार्थ :- जिसप्रकार आकाशद्रव्य स्वभाव से निर्मल, अमूर्त तथा अविनश्वर है, वह उसमें अवगाहन प्राप्त करनेवाले जीवादि अनंतानंत परद्रव्यों के द्वारा अन्यथारूप नहीं किया जा सकता; उसी प्रकार स्वभाव से निर्मल, अमूर्तिक अविनश्वर आत्मा उसके एक क्षेत्रावगाहरूप सम्बन्ध में आनेवाले अनंतानंत परद्रव्यों के द्वारा अन्यथारूप नहीं किया जा सकता - वह सदैव ज्ञानस्वभावी ही रहता है ।