वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1242
From जैनकोष
द्विपदचतुष्पदसारं धनधान्यवरांगनासमाकीर्णम्।
वस्तु परकीयमपि मे स्वाधीनं चौर्यसामर्थ्यात्।।1242।।
द्विपद और चतुष्पदों में जो उत्तम है, चाहे घोड़ा हो, गाय हो, हाथी हो अथवा कोई भी उत्तम जानवर हो ये सब मेरे आधीन हैं ऐसा कोई विचार करे तो वह सब चौर्यानंद रौद्रध्यान है। लोग धन को प्राण की तरह मानते हैं इसीलिए यह बड़ी प्रसिद्धि है कि धन ग्यारहवां प्राण है। 10 प्राण तो सिद्धांत में माने गए हैं― 5 इंद्रिय, तीन मनोबल, वचनबल, कायबल, श्वासोच्छवास और आयु। परलोक में इस धन को भी ग्यारहवां प्राण माना गया है। एक हितोपदेश में कथानक आया है कि एक संन्यासी सत्तू मांग लाता था लोगों से और सत्तू की पोटली बनाकर खूँटी पर टाँग देता था। वहाँ एक बड़ा मोटा चूहा रहता था जो उस पोटली को रोज-रोज कुछ काट देता था और कुछ सत्तू खा लेता था। संन्यासी उस चूहे से बड़ा हैरान हो गया। एक दिन उसने सोचा कि मैं चूहे के रहने की जो जगह है, चूहे का जो घर है उसी को मैं नष्ट कर दूँ। चूहे तो बिल में रहा करते हैं। सो जब उस चूहे के बिल को खोद रहा था तो उसमें से निकला बहुत सा धन। अब वह चूहा उसी धन के इर्द-गिर्द फूलकर प्रसन्न रहा करता था इसलिए मोटा हो गया था, पर जब वह धन उस जगह न रहा तो उसकी चिंता में उसकी यह हालत हो गयी कि खाना-पीना तक न सुहाये। कुछ ही दिनों में वह चूहा सुखकर एकदम दुबला पतला हो गया था। तो इस कथानक में बताया है कि देखो एक चूहे की उस धन के पीछे यह हालत हो गयी तो फिर किसी मनुष्य का धन यदि नष्ट हो जाय, चोरी चला जाय तो उसकी क्या हालत होती होगी? वह तो उन्मत्तसा हो जाता है। तो यह धन लोक में प्राण की तरह माना गया है। इसके हरने के लिए जो चिंतन करता है समझ लीजिए कि बराबर वह पाप कर रहा है। कितना कष्ट होता है जिसका माल लुट जाय? इसलिए चोरी का पाप बड़ा विषम है और दुर्गति का कारण है। फिर दूसरी बात यह है कि इससे कितना मिथ्यात्व पुष्ट होता है कि जरा भी दूसरे की परवाह नहीं रख रहा। जीव के प्रति अनुकंपा नहीं, जीव के स्वरूप का भान नहीं, अपने हित का कोई ख्याल नहीं तो समझ लीजिए कि मिथ्यात्व की कितनी अधिक पुष्टि की गई? इससे कितना अधिक पाप का बंध हुआ? तो परधन हरण करने का चिंतन भी एक बहुत खोटा पाप है। कम से कम इतना तो सबके चित्त में होना चाहिए कि जनता का, पड़ोसी का, किसी का भी हम अन्याय से, छल से किसी भी प्रकार हरण न करें, उचित ही बर्ताव रखें। किसी के चित्त को न सतायें। सबके मन में ऐसी बात आना चाहिए कि जो परधन हरण करता है वह प्राणघात करने के समान पाप बाँधता है।