वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1628
From जैनकोष
सोऽहं सिद्ध: प्रसिद्धात्मा दृग्बोधविमलेक्षण:।
जन्मपंके चिरं खिन्न: खंड्यमान: स्वकर्मणा।।1628।।
ज्ञानी पुरुष अपने आपके बारे में ऐसा चिंतन करता है कि यह मैं आत्मा सिद्ध हूँ। सिद्ध के मायने अपने स्वरूप से परिपूर्ण हूँ, अपने स्वरूप को लिए हुए हूँ, सहज सिद्ध हूँ, स्वत: सिद्ध हूँ, भरा पूरा हूँ। इसमें कोई भी वस्तु अधूरी होती ही नहीं, स्वरूप ही नहीं है। अधूरे का अस्तित्त्व क्या? जो है वह पूरा है। जैसे कि लोकव्यवहार में कह देते कि यह मकान अधूरा है इसको अभी आधा और बनवाना है इस तरह से आत्मा अधूरा नहीं है। यही बात सभी पदार्थों की है। सभी पदार्थ स्वत: सिद्ध हैं, परिपूर्ण हैं। इनका स्वरूप है चिदानंदस्वरूप, सो हम आधे बनें, आधे न बनें ऐसा नहीं है। वैसे जो अभी दृष्टांत दिया कि यह मकान अधूरा है सो मकान कोई एक पदार्थ नहीं है वह तो यह बताने के लिए कि लोग इसे आधी चीज मानते हैं, इस तरह का कहीं पदार्थ में आधापन नहीं है। मकान में भी आधापन नहीं, मकान कोई पदार्थ नहीं है। उसमें रहने वाले जो अणु हैं वे पदार्थ हैं और वे सब परिपूर्ण हैं चाहे किसी रूप परिणमे। तो यह मैं आत्मा सिद्ध हूँ, परिपूर्ण हूँ, स्वत: सिद्ध हूँ। जिसका स्वरूप सिद्ध है प्रसिद्ध स्वरूप, क्या है वह प्रसिद्ध स्वरूप? दर्शन ज्ञान ही हैं निर्मल नेत्र जिसके ऐसा। ये खंभे हैं, यह चबूतरे की जमीन है, और इसमें कुछ पार्क है कि नहीं, इनमें जानना देखनानहीं है, न ज्ञानदर्शन है, और सब कुछ समझते हैं। अभी कोई पुरुष किसी जीव को लाठी मार रहा हो कुत्ते को, बैल को, गाय को, भैंस को तो देखने वाले लोग दया करके कहते हैं कि भाई क्यों मारते हो? और कोई आदमी चबूतरे पर होकुछ लाठी ठनका रहा हो तो कोई आकर यह कहता कि भाई तुम चबूतरे पर लाठी क्यों मारते हो? इस मारने वाले को भीतर में इतना ज्ञान तो है ही कि चबूतरे में ज्ञानदर्शन नहीं, और यह जीव इनको जानता देखता है, इनको दु:ख होता है। दु:ख-सुख कुछ नहीं है, ऐसा बोध है तब तो चबूतरे को पीटने से कोई नहीं रोकता। और जीव का लक्षण है वह प्रसिद्ध है, सब लोग जानते हैं। थोड़ा-थोड़ा सभी को बोध हे कि जीव का यह स्वरूप है। सो यह मैं आत्मा दर्शन ज्ञानरूपी निर्मल नेत्र वाला हूँ।
स्वरूप को देखो तो सब कुछ मामला तैयारहै। कोई कमी नहीं है। अभी विकल्प छोड़ें और अभी आनंद लूट लें। कुछ देर ही नहीं लगती। इतना तैयार बैठा हुआ है हम आप सबका आत्मा। आनंदमग्न रहने के लिए दृष्टि बदल लें अपनी, अपनी ओर उन्मुख कर लें, भ्रम मिटा लें, तुरंत आनंद मिल जायगा। और तुरंत ज्ञानानुभव होगा। तो ऐसे तैयार तो हम हैं, ऐसे उत्कृष्ट निधन तो हम हैं, पर चिरकाल से अपनी ही करतूत से, अपने ही अपराध से इस जन्म-मरण रूपी कीचड़ में चिरकाल से खेदखिन्न हो रहा है। कैसा तो स्वरूप है और कैसी इसकी दशा बन रही है? परमात्मतत्त्व का स्वरूप है हम आपका आनंदमग्नता का, पर इसका खंडन हो रहा है, दु:खी हो रहे हैं, घबड़ा रहे हैं, विकल्पों से अपने आपको परेशान किए जा रहे हैं। मैं भी इस संसार कीचड़ में अपने उपार्जित कर्मों के कारण खंडित हो-होकर घूम रहा हूँ। खंडन हो रहा है अपने ज्ञान और आनंद का। हम जिस किसी भी पदार्थ को जान पाते हैं, थोड़ा जान पाते हैं। ज्ञान का काम है स्पष्ट एक साथ सारे विश्व को जान ले। इतना तो महान केवल ज्ञानरूप मेरा स्वरूप है पर खंड-खंडरूप हो रहा है। मैं अंश-अंश रूप में जान पाता हूँ और आनंद भी खंडित हो रहा है। स्वरूप तो इसका ऐसा है कि यह अनुकूल रहे, किसी प्रकार का क्लेश न रहे, कोई दु:ख न आये, मगर वर्तमान पर्याय देखो क्या बन रही है―चिंता, शोक, दु:ख, विकल्प। अपने आपको इस व्यावहारिक जाल में फंसाये हैं, केंद्रित किए हैं सो आनंद का घात हो रहा है। किसी भी विषय में हम दृष्टि फंसाये, किसी भी विषय का हम स्वाद लें तो हमारा आनंद खंडित हो जाता है, एक थोड़े से मौज के रूप में रह पाता है और बिगड़ जाता है। तो मैं अखंड ज्ञानानंदस्वरूप वाला हूँ पर परिस्थिति यह बन रही है कि मेरे ज्ञान का भी खंडन है और मेरे आनंद का भी खंडन है। तो मैं ऐसा खंडित हुआ इस जन्म जरा मरण रूप कीचड़ में अनंत काल से खेदखिन्न हो रहा हूँ ऐसा ज्ञानी पुरुष अपने बारे में चिंतन कर रहा है। देखिये जब-जब लगाव रहेगा परपदार्थों में तब तक इसको आकुलता रहेगी ही, क्योंकि जिस किसी पर में हम अपना उपयोग फंसायेंगे तो वह पर या तो हमें इष्ट जँचेगा या अनिष्ट। जब हम पर का ग्रहण करेंगे तो इष्ट अनिष्ट किसी भी स्थिति में चैन न मिलेगी। अनिष्ट के संयोग में तो आकुलता ही बनी रहती है, चैन कहाँ से मिलेगी और इष्ट के संयोग में उससे अनुराग बढ़ेगा, उसके पीछे बड़े-बड़े श्रम करने होंगे, बड़े-बड़े कष्ट उठाने होंगे, लो वहाँ भी चैन नहीं मिलती। चैन तो तब मिलेगी ज समस्त परपदार्थों को असार जानकर विनाशीक जानकर उन्हें चित्त से हटाया जाय और ज्ञान व आनंद से भरा हुआ अपना जो स्वरूप है उसकी ओर दृष्टि लगायी जाय।
आप यह कहेंगे कि ऐसा तो मुझे कोई नहीं दिखता जो परपदार्थों को भिन्न जानकर उनकी उपेक्षा करे और अपने स्वरूप के देखते रहने की धुन बनाये। तो पहिला उत्तर यह है कि है पर बिरले ही मनुष्य ऐसे मिलते हैं और फिर उत्तर यह है कि नहीं है तो ठीक है न रहने दो। जो स्वरूपदृष्टि न रखेंगे वे दु:खी रहेंगे और जो अपनी सुध बनायेंगे वे शांत रहेंगे, ये बाह्यपदार्थ बाह्य समागम सबके सब जबरदस्ती के कारण बनते हैं, अच्छे लग रहे हों तो, बुरे लग रहे हों तो, पर का संबंध इस जीव के अहित के लिए ही होता है। आज्ञाविचय धर्मध्यानी ज्ञानी पुरुष चिंतन कर रहा है कि ये मेरे सब विभाव ये मेरे सब खंड-खंड ज्ञान कैसे दूर हों? जो अपने आपके अखंडस्वरूप का उपयोग बनाये रहूँ, यह उपाय मेरा बने―इस प्रकार का चिंतन अपायविचय धर्मध्यानी पुरुष कर रहा है। देखो जहाँ इन मिले हुए समागमों में यह बुद्धि बन रही हे कि ये सर्व समागम मेरे अहित के लिए हैं, इनसे मेरे को क्या लाभ है? इन वैभवों से, इन जुटे हुए समागमों से इस मेरे आत्मा का क्या लाभ है? ये सब दूर हों। ऐसी वियोगबुद्धि से यह ज्ञानी पुरुष अपने आपका वास्ता हटा रहा है और अपने स्वरूप में अपने को लगा रहा है। मैं सिद्ध हूँ, परिपूर्ण हूँ, ज्ञानानंद रसकर भरा हूँ, मेरा प्रसिद्ध स्वरूप है, सच्चिदानंद है, ऐसा अपने आपके परिपूर्ण स्वरूप का चिंतन करें तो संसार के संकट हटाने का, रत्नत्रय के पालन का इसे अवसर मिलेगा। तो वही धर्म उसकी रक्षा करने वाला है जिस धर्म के लिए इस ज्ञानी ने अपना जीवन माना है, और अपन तो अस शरीर को कायम रखने के लिए मानते हैं। आजीविका करनी तो शरीर की स्थिति बनाने के लिए ही करनी। तो उसे इतनी ही आजीविका से प्रयोजन है जितने में इस जीवन का साधारणतया निर्वाह हो। अधिक नहीं चाहता वह ज्ञानी। बाकी अपना सब कुछ अपने धर्मपालन के लिए लगानाहै ऐसा है ज्ञानी पुरुष का कार्यक्रम। विषयकषायों से दूर होकर अपने आपमें लीन होने का उस ज्ञानीपुरुष का प्रयत्न है।