वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1639
From जैनकोष
इति नयशतसीमालंबि निर्द्धूतदोषं,च्युतसकलकलंकै: कीर्तितं ध्यानमेतत्।
अविरतमनुपूर्व ध्यायतोऽस्तप्रसादं,स्फुरति हृदि विशुद्धे ज्ञानभास्वत्प्रकाश:।।1639।।
आचार्यदेव कह रहे हैं कि पूर्वोक्त प्रकार का अपायविचय धर्मध्यान है, वह सैकड़ों कर्मों को नष्ट करने वाला है। कर्मों का कैसे विनाश हो, रागादिक का कैसे विनाश हो, ज्ञानभाव में जो अस्थिरता चलती है उसका कैसे विनाश हो? यों अलग-अलग दृष्टियों से, अलग-अलग नयों से, अलग-अलग अपायविचय धर्मध्यान में ज्ञान की बात रहती है। कर्म कैसे नष्ट हों इनकी शिखर चलती रहती है। तो सैकड़ों नयों की सीमा का आलंबन इस बात में बसा हुआ है। जिन्हें नयों का ज्ञान नहीं है वे पदार्थों का यथार्थ निर्णय नहीं कर पाते। तो यह ध्यान कैसा है जो धर्मध्यान सैकड़ों नयों की सीमा का आलंबन करता है और निर्धूत दोष दोषों से रहित है। इस अपायविचय धर्मध्यान की प्रशंसा कर रहे हैं। यह अंतिम श्लोक है, यह सैकड़ों नयों का आलंबन करने वालाहै, किंतु शरीर का विनाश तरंगों से चलता है। सूक्ष्म-सूक्ष्म जो ज्ञानभाव उठते हैं। इनकी भांति यों अपायविचय में अनेक कुतत्त्वों का अनात्म तत्त्वों का अपाय विचारा जाता है, उसके लिए अनेक नयों का आलंबन होता है। इस अपायविचय तत्त्वज्ञानी ने अपने से ऐबों को हटाया है, उसे अपने सर्वकलंक रहित आत्मा का श्रद्धान है। यह तत्त्व श्रद्धानी चिंतन करता हे कि मेरे आत्मा में किसी भी प्रकार का कलंक नहीं है। कलंक होता हे विषय और कषायों में। जिस तत्त्वज्ञानी ने अपने विशुद्ध स्वरूप का ध्यान किया है उसके हृदय में निर्मल ज्ञानरूपी सूर्य का प्रकाश अवश्य स्फुरायमान होता है।रागादिक भावों से रहित ज्ञानस्वरूप का ज्ञान करना यह एक निर्मल ज्ञान है। यह आज्ञाविचय धर्मध्यानी पुरुष रागादिक भावों के उपाय का विचार कर रहा है। ये रागादिक भाव जिसके दूर होते हैं उसका ज्ञान पूर्ण प्रकाशित हो जाता है। यह ज्ञान एक तीक्ष्ण शक्तिवाला है किसी घर की कोठरी में तिजोरी के अंदर कोई पोटली में रखा हुआ कोई कीमती हीरा या कोई भी वस्तु रखी हो तो उसे भी यह ज्ञान यहाँ बैठे ही सुगमता से जान लेता है, उसका ज्ञान करने में भींट, किवाड़ और तिजोरी इत्यादि कुछ भी बाधा नहीं डालते हैं। तो यह ज्ञान अति तीक्ष्ण है, इस निर्मल आत्मा का ध्यान करने से यह ज्ञान प्रकाशित होता है। हमें चाहिए ध्रुव आनंद, और आत्मस्वभाव का ध्यान करने से यह ध्रुव आनंद प्रकट होता है। तो यह अपायविचय धर्मध्यानी पुरुष विचार करता है कि धर्मध्यान में जो भी बाधा देने वाले तत्त्व हैं उनको दूर कर दिया जाय तो कल्याण का मार्ग प्राप्त होगा। धर्मध्यान में बाधा देने वाले हैं रागादिक भाव। इन रागादिक भावों का विनाश करेंगे तो वह धर्मध्यान की अवस्था प्राप्त होगी। यों अपायविचय धर्मध्यानी पुरुष अनात्मतत्त्वों को अपने से दूर करने का चिंतन कर रहा है।