वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1641
From जैनकोष
कर्मजातं फलं दत्ते विचित्रमिह देहिनाम्।
आसाद्य नियतं नाम द्रव्यादिकचतुष्टयम्।।1641।।
द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव को पाकर अनेक प्रकार से अपनी-अपनी प्रकृति के अनुसार ये कर्मफल को देते हैं। जैसे राग प्रकृति का उदय आये तो उसका निमित्त पाकर जीव में रागभाव हो रहा है तो वह रागभाव किसी बाह्य नोकर्म को विषय करके हो रहा हे, नहीं तो राग बने कैसे? किसी भी परपदार्थ को विषय में न ले तो वह राग करेगा क्या? राग उत्पन्न होगा तो किसी नोकर्म का सहारा पाकर उत्पन्न होगा। तो यहाँ कर्मों के उदय को तो निमित्त कहा और जिन पदार्थों में राग हुआ, जिन पर दृष्टि देकर राग हुआ वह नोकर्म हुआ या आश्रयभूत हुआ और रागादिक भाव हुए वे भावकर्म हुए।तो तीन प्रकार के कर्मों का वर्णन होता है―द्रव्यकर्म, नोकर्म, भावकर्म। तो उसमें द्रव्यकर्म तो हैं ज्ञानावरण आदिक और भावकर्म रागद्वेष है जीवकर्म और शरीर है नोकर्म।नोकर्म में प्रधान है शरीर। शरीर में नोकर्म की प्रधानता है। वैसे तो कर्मों के फल भोगने में जो-जो पदार्थ विषय में हैं, आश्रय में आते वे सब नोकर्म कहलाते हैं। तो ये कर्मसमूह द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव को पाकर अपनी प्रकृति के अनुसार फल देते हैं। जैसा द्रव्य होगा सामने रागप्रकृति का उदय होने पर वह राग करेगा, क्षेत्र में राग करेगा। जैसे कोई मंदिर में अकेले जाय, दर्शन करे तो वह एक क्षेत्र ऐसा है कि वहाँ फिर विषयभोग उपभोग के परिणाम नहीं होते हैं। क्षेत्र आया प्रसंग में, द्रव्य आया प्रसंग में, इसी प्रकार काल और भाव भी प्रसंग में आया। जो जिस स्थान पर जायगा उसके उस तरह के भाव बनेंगे। सिनेमा, नाटक आदिक की जगह और तरह के भाव बनेंगे, मंदिर में और तरह के भाव बनेंगे।
जिस द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव को जीव पाता है और जिस प्रकार का उदय होता हैउस प्रकार का जीव फल भोगता है। इस कारण चरणानुयोग की पद्धति से बताया हे कि हम रागादिक को त्यागें, धर्मस्थानों में जावें, उपवास आदिक करें, एकांत में रहें, ऐसी जो अनेक चरणानुयोग की पद्धतियाँ बतायी हैं वे इसी कारण बतायी हैं। तो उन आश्रय भावों का निमित्त पाकर ये कर्म फल देते हैं। अब वे क्या-क्या आश्रय होते हैं और किस-किस प्रकार का कर्मफल देते हैं उसका कुछ दिग्दर्शन कराते हैं।