वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 166
From जैनकोष
भवोद्भवानि दु:खानिह यानि यानीह देहिभि:।
सह्यंते तानि तान्युच्चैर्वपुरादाय केवलम्।।166।।
शरीर की वृत्ति में क्लेश और शरीर की निवृत्ति में नि:क्लेशता―इस लोक में संसार से उत्पन्न जो जो दु:ख जीवों को सहने पड़ते हैं वे इस शरीर के ग्रहण से ही सहने पड़ते हैं। शरीर निवृत्त हो गया फिर इस जीव को कोई दु:ख ही नहीं है। जरा जीव के स्वभाव पर तो दृष्टिपात करें क्या स्वभाव है जीव का, कौनसा सर्वस्व है इस जीव का? यह स्वरूप सर्वस्व इस जीव के अनर्थ के लिए नहीं है। किसी भी पदार्थ का स्वरूप उस पदार्थ के बिगाड़ के लिए नहीं हुआ करता। किसी भी पदार्थ का बिगाड़ तब ही संभव है जब किसी पर-उपाधिभूत पदार्थ का संबंध बन रहा हो। शरीर से निवृत्त हैं सिद्धभगवान और भले ही शरीर है अरहंतप्रभु के, फिर भी घातिया कर्मों का सद्भाव न होने से वह शरीर उनके असाता के लिए नहीं बनता तो जो मुक्त जीव हैं उनको किसी प्रकार की आकुलता ही नहीं है।
आकुलताविनाशक श्रद्धान―हमें आकुलता जगती है तो आकुलता मिटाने के लिए अंतरंग में यह श्रद्धा तो बनायें रहे कि मेरा स्वरूप तो आनंदमय ही है। दु:ख का इसमें प्रवेश ही नहीं है। ऐसी दृढ़ धारणा बनाए रहें और दु:ख आ रहे हैं, भोगने पड़ रहे हैं तो भोगते रहें, दु:ख भोगते हुए भी अंतरंग में श्रद्धा अपने को सहज आनंदस्वरूप मानने की ही बनाये रहें। कभी सुख भी भोगना पड़ता है तो सुख भोगने के अवसर में भी अपने आपको इस क्षोभमय सुख से रहित विशुद्ध आनंदमय मानने का ही अपने में प्रयत्न करें। एकत्वविभक्त निज अंतस्तत्त्व है अर्थात् अपने आपके आत्मा में जो सहजस्वरूप बसा हुआ है वह स्वरूप पर से विभक्त है और अपने आपमें तन्मय है, वास्तविक वस्तु के स्वरूप को जाने बिना शांति का मार्ग मिल ही नहीं सकता है। निज को निज पर को पर जानने की वृत्ति इस जीव के उद्धार के लिए है, यह बात तभी समझी जा सकती है जब हमें द्रव्य गुण पर्याय आदिक सब विधिविधानों से स्वरूप का यथार्थ निर्णय हो, तब ही इस शरीर की प्रीति हट सकती है और शरीर से प्रीति हटी कि शरीर के रहते हुए भी दु:ख जाल भी उसके हटने लगते हैं। हे आत्मन् ! जन्म और मरण करते हुए जो क्लेश सहने में आ रहे हैं वे सब इस शरीर के ग्रहण करने से ही आ रहे हैं। तू शरीररहित ज्ञानमात्र अपने को दृष्टि में ले तो फिर ये क्लेश तुझे नहीं हो सकते हैं।