वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1682
From जैनकोष
शीतभूमिष्वपि प्राप्तो मेरुमात्रोऽपि शीर्यते।
शतधासावय:पिंड: प्राप्यी: भूमिं क्षणांतरे।।1682।।
नरकभूमियों में तीव्र शीत का निर्देश―जिस तरह गरम नरकों में लोहे का पिंड भी गल जाता है इसी प्रकार शीतप्रधान भूमि में मेरू के समान लोह भी खंड-खंड होकर बिखर जाता है। तो बिल्कुल यथार्थ है कि गरमी में तो लोहा गल जाता है और ठंड के दिनों में पेड़ वगैरह ये खंड-खंड होकर सूख जाते हैं। ठंड के दिनों में खिर-खिरकर, बिखर-बिखरकर ये विलीन हो जाते हैं। तो यह खंड-खंड होकर शीर्ण हो जाना यह तो ठंड का प्रताप है और गलकर पानी बन जाना, यह गरमी का प्रताप है।