वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 2030
From जैनकोष
अक्षोरगशकुंतेशं सर्वांपुदयमंदिरं ।
दु:खार्णवपतत्सत्त्वदत्तहस्तावलंबनं ।।2030।।
संस्थानविचय धर्मध्यान की पात्रता―प्रभु की आज्ञानुसार तत्वों की श्रद्धा कर के ध्यान करता रहने वाला पुरुष, और रागादिक भाव मेरे कैसे नष्ट हो, कैसे मुझे उस आत्मतत्त्व का उपाय प्राप्त हो, ऐसे चिंतवन से अपने परिणामों को विशुद्ध करने वाले ज्ञानी पुरुष और कर्मों के उदय की विचित्रता को निरखकर कर्मोदयवश होकर कैसे-कैसे बड़े-बड़े पुरुषों पर इतने उपसर्ग आये, इन सबको निरखकर अपने चित्त में वैराग्य की वृद्धि करने वाला पुरुष इस समस्त लोक के आकार का चिंतन चिर-समय तक कर सकता है और तीन कालों का विचार चिर-समय तक कर सकता है, उस समय यह संस्थानविचय नामक धर्मध्यान का विशेष पात्र होता है ।
पार्थिवी धारणा से संस्थानविचय ध्यान का अभ्यास―इसमें इस-इस योगी ने सर्वप्रथम अपने आपमें चिंतन किया । यह मैं एक धरातल से अछूता विराजमान हूँ, जंबूद्वीप के बराबर कोई क्षीर समुद्र है, जिसके चारों ओर दुग्धवत् धवल समुद्र फैला हुआ है, उसके बीच मेरुवत् उच्च बहुत बड़ी कर्णिका का एक कमल है, जो बहुत देदीप्यमान है । उसके ऊपर सिंहासन के आधार पर मैं विराजमान हूँ, ऐसा ध्यान में लाये कि अगल-बगल कहीं कुछ भी नहीं दिख रहा । सोचिये तो सही―ऐसी कोई कल्पना कर के बैठे कि मैं ऐसे क्षीर समुद्र के बीच कमल पर विराजमान हूँ, बहुत ऊँचे पर विराजमान हूँ, ऐसा कल्पना में आते ही कितना उसका भार दूर हो जाता है और अपने में हल्कापन अनुभव करने लगता है ।
आग्नेयी मारुती वारुणी धारणा से रूपस्थ ध्यान का उद्यम―वहाँ पद्मासन से विराजमान अपने आपके देह में यों चिंतन कर रही है, नाभिकमल अर्थात् जहाँ नाभि है वहाँ पर 16 पत्रिकाओं का कमल है और हृदय पर औंधा हुआ 8 पांखुडी का कमल है, ऐसे मानो हृदय पर 8 कर्मों का आवरण है सो व पंखुड़ियों का कमल है जो नाभिकमल की कांति को रोके हुए है । नाभिकमल के सोलह पत्रों पर सोलह स्वर चिंतन करिये । स्वर तो हैं अ आ इ ई उ ऊ आदि और व्यंजन हैं क ख ग घ आदि । व्यंजन तो बिना स्वर की सहायता के नहीं बोले जा सकते और स्वर का उच्चारण बिना अन्य वर्ण की सहायता के किया ही जा सकता है । अर्द्ध व्यंजन का उच्चारण भी बिना स्वर की सहायता के नहीं किया जा सकता । उसमें लगे हुए अन्य व्यंजन में लगे हुए स्वर की सहायता होती है, जिनका उच्चारण सीधे किया जा सकता है वे स्वर हैं । तो वे स्वर एक समस्त श्रुतज्ञान के प्रतीक हैं । उसके बीच कर्णिका पर एक र्ह्रं शब्द का चिंतन कर रहा है । ऐसा माना कि वहाँ तेज धुवाँ चला, फिर एक ज्वाला निकली, उसके बढ़ने से ज्ञान प्रतीक वाले षोडषदल कमल पर जो अधोमुख कर्म वाला अष्टकमल आवरक था वह जल गया और वह ज्वाला सर्व ओर फैल गई । मानो यह देह भी भस्म हो गया । देह की भी उसे सुधि न रही, और ऐसा उस समय वायु का जोर हुआ जो बड़ा भयंकर तीव्र वेग में हो सकता हो बह वायु सारी भस्म उड़ा ले गई, ऐसे कि यह पता न पड़े कि यहाँ भस्म भी है, ऐसी स्थिति में फिर बड़ी घनघोर जलवर्षा हुई । जो थोड़ी बहुत कालिमा बची थी वह सब साफ हो गई । अब तो रहा कुछ नहीं । केवल एक ज्ञानपुंज रहा, ऐसी स्थिति में यह रूपस्थ ध्यान का चिंतन चल रहा है जहाँ प्रभु का ध्यान हो रहा है ।
विशुद्धहृदय हुए बिना प्रभुगुण का हृदय में अनवतार―यहाँ यह समझने योग्य बात है कि उस प्रभु के गुणों को हृदय में अवतरित करने के लिए हमें अपने हृदय की शुद्धि की कितनी बड़ी तैयारी करना चाहिए? नहीं समझ में आता प्रभु का गुणगान, ध्यान में मन नहीं लगता है उसका कारण यह है कि हमारा हृदय विशुद्ध नहीं है, यहाँ वहाँ के राग समाये हुए हैं । यहाँ है किसी का कोई नहीं, पर राग लगाये हुए है । हैं अत्यंत भिन्न परिजनादिक स्त्री अथवा पुत्र अथवा कोई भी हो, पर राग बड़ा विकट लग बैठता है । यहाँ है किसी का कुछ नहीं, देखो यहाँ आये हैं आप लोग तो आपके साथ कुछ भी तो चिपटा हुआ नहीं आया । आप यहाँ भी अकेले ही हैं, पर राग का बोझ ऐसा लाद रखा है कि उतारा नहीं उतर पाता । बोझ भी किसी पर कुछ नहीं लदा है, पर कल्पनायें बनाकर अपने आप पर बहुत बड़ा बोझ बना लिया है । तो ये संसारो प्राणी इस बोझ से दबे चले जा रहे हैं जिसके कारण इनका उपयोग उठ ही नहीं पाता । प्रभु के गुणस्मरण की उत्सुकता नहीं जगती । जरा भी यह बात चित्त में नहीं आती कि यह सब है क्या? यह विषयकषायों की गंदगी इन मोही अज्ञानी प्राणियों में भरी है जिसके कारण ये अपने हृदय में प्रभु को विराजमान नहीं कर सकते।
संस्थानविचयधर्मध्यान में पार्थिवी, आग्नेयी, मारुती व वारुणी व तत्वरूपवती धारणायें हैं, उसके पश्चात् जब अपने आपको इतना विशुद्ध तक सके कि वहाँ रूपस्थ ध्यान चल रहा है, तो जो अपने आपके सर्वविभावों से सर्वसमागमो से न्यारा केवल ज्ञानपुंज निरखता है वह है प्रभु की भक्ति का वास्तविक पात्र । तो ऐसा ज्ञानी यहाँ प्रभु के ध्यान में गुणों का चिंतन कर रहा है । प्रभु कैसे हैं कि इंद्रियविषयरूपी सर्प के लिए गरुड़ की तरह हैं । सर्प गरुड़ का बैरी होता है । जहाँ गरुड़ रहे वहाँ सर्प नहीं रह सकते हैं, वे सब अपने-अपने बिलों में छिप जाया करते हैं, उन सर्पों का पता नहीं रहता । तो हे प्रभो! जहाँ आप हैं वहाँ इंद्रियविषयों का कहाँ प्रवेश हो सकता है?
कवि की भाषा में एक बार कामदेव और स्त्री रति दोनों चले जा रहे थे । कामदेव कहते हैं काम के संस्कार को, विकार को । इस काम में देव क्यों लगा दिया? काम नाम में देव लगाया किसने? यह तो प्रधान उनमें हिंसक हैं जितने । जितने हिंसक जगत में हैं उन सबका प्रधान मुखिया हत्यारा यह काम विकार है । इसको लोग कामदेव कहते हैं । यह एक अलंकार है, और उसी का, स्त्रीविषयक काम हो तो नाम रति है । तो ये रति और कामदेव दोनों घूमने चले जा रहे थे तो एक प्रभु जिनेंद्रदेव ध्यान में लीन विराजमान थे । तो प्रभु के बारे में रति और कामदेव की बातचीत चलती है―कोऽयं नाथ जिनो भवेत्तव वशी, ऊं हूं प्रतापी प्रिये ! ऊं हूं तर्हि विमुंच कातरमते, शौर्यावलेपक्रियां । मोहोऽनेन विनिर्जित: प्रभुरसौ तत्किंकरा: के वयं, इत्येवं रतिकामजल्पविषयो देवो जिन: पातु: व: ।। रति पूछती है―नाथ ! यह कौन है? तो कामदेव कहता है कि ये जिन हैं, जिनेंद्र हैं । ....अच्छा यह भी तुम्हारे वश हैं या नहीं ?....ऊं हूं, नहीं हैं वश में ।......ऊं हूँ, तो हे कामदेव! अब तू अपनी वीरता की शान को छोड़ दे, अब मुझ से न कहा कर कि मैंने सारे जगत को वश कर लिया है । तो काम शिथिल होकर, अपनी गल्तीसी मानकर बहुत नम्र वचनों में कहता है―क्या करूँ? जिनेंद्र ने जब मोह को जीत लिया है तब हम किंकर लोग इनका क्या करें? जब मोहभाव आता है तो कुरूप भी हो अपने घर का कोई तो भी उसके प्रति रागभाव होने के कारण वह उसे सुंदर जंचता है, अरि जब उससे राग हटता है तो वह संकल्प करने को तैयार हो जाता है कि अब तो इसका मुख देखना भी पाप है । तो इस मोह की बड़ी विचित्र लीला है । हे प्रिये रति ! इन जिनेंद्र ने इस मोह को जीत लिया है फिर हम किंकर इनका क्या करें? ऐसी बातचीत रति और काम जिसके विषय में कर रहे हों ऐसे जिनेंद्र प्रभु हम आप सबकी रक्षा करें । गुणियों के गुणों का स्मरण हमारी रक्षा करता है । तो ये प्रभु विषयरूपी सर्प के लिए गरुड़ के समान हैं ।
ये प्रभुसमस्त अम्युदय के मंदिर हैं, समस्त अभ्युदय के ये घर हें । अरहंत प्रभु के अब कौनसा वैभव बाकी रहा? आप कहेंगे कि उनके पास मकान नहीं, मोटर कार नहीं । हाँ न हों, लेकिन ये तीनों लोकों के इंद्र नौकर से बनकर इनके चरणों में जो गिर रहे हैं यह क्या उस वैभव से कम वैभव है? और उनके क्षुधा तृषा भी नहीं है तो उनके साधन क्या बनाये? जिसके कोई फोड़ा फुंसी ही न हो वह मलहम पट्टी करता फिरे ऐसा भी कोई करता है क्या? यदि कोई ऐसा करे तो उसे तो लोग बेवकूफ (पागल) कहेंगे । तो जब प्रभु के क्षुधा तुषा आदिक रोग ही नहीं हैं तो उनको उनके साधन बनाने की जरूरत ही क्या है? तो प्रभु का कुछ कम वैभव है क्या? अरे उनके पास बाह्य वैभव तो लोकोत्तम है ही, किंतु अंतरंग भी असीम ज्ञान का वैभव है । यहाँ तो लोग थोड़ी दूर भी जाये तो कितनी ही चीजें लादकर ले जानी पड़ती हैं, कुछ छूट जाती हैं, कुछ चिंता उत्पन्न कर देती हैं, पर प्रभु का अनंत ज्ञान, अनंत आनंद का वैभव सदा उनके साथ रहता है । तो वे प्रभु सर्व अभ्युदयों के मंदिर हैं ।
दुःखी प्राणियों के लिए प्रभु का हस्तावलंबन―प्रभु दुःखरूपी समुद्र में गिरने वाले प्राणियों को हस्तावलंबन देने वाले हैं । अब भी बहुत से समझदार लोग जब किसी बात से दुःखी हो जाते हैं तो देवालय में प्रभु के समक्ष बैठकर उनका स्तवन करने में रत हो जाते है, ऐसी श्रद्धा वाले लोग अब भी देखे जाते हैं । जिस समय उनके गुणों के स्मरण में उपयोग है उस समय तो उनको शांति है, निराकुलता है । जो पुरुष अनेक कल्पनाओं से व्याप्त है, जिस पर कुछ संकट छाये हैं ऐसे पुरुष को आप कहाँ बैठलवा देंगे कि उसको शांति मिले? जहाँ बैठालोगे वहीं ओर कुछ न होगा अधिक से अधिक कृपा होगी तो कोई उसको सहानुभूति प्रकट कर देगा-हाय बड़ा दुःख है, कैसा था अमुक और छोड़कर चला गया । ये बेचारे यहाँ रह गए । बाहरी सहानुभूति, न भी कुछ ख्याल आता हो तो ख्याल कराकर लोग उसके दुःख को कहो और भी बढ़ा दें, तो उस दुःखी पुरुष को आप कहाँ बैठालोगे, जगह तो बतावो? वह स्थान है प्रभु के चरणों का अथवा ज्ञानी गुरु संतों के चरणों का स्थान है । इसके सिवाय अन्यत्र कहाँ बैठावोगे जो उसे शांति मिले? ये प्रभु तो सर्वोत्कृष्ट हैं । दुःख समुद्र में गिरने वाले प्राणियों को हस्तावलंबन देने वाले हैं । वे प्रभु हम आप से कुछ भी नहीं बोलते, फिर भी उनका बड़ा सहारा है, उनके गुणस्मरण कर हम आप भी अपने आप ही गद्गद हो जाते हैं।