वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 2035
From जैनकोष
रत्नत्रयसुधास्यंदमंदीकृतभवश्रमम् ।
वीतसंगं जितद्वैतं शिवं शांतं सनातनम् ।।2035।।
परम तीन रत्न―रत्नत्रय की मूर्तिरूप अमृत के स्यंदन से, उस अमृत की धारा के स्वाद से जिसने भव के श्रम को मंद कर दिया है ऐसे वे प्रभु हैं । तो रत्नत्रय क्या चीज है? आत्मा की सच्ची श्रद्धा एक रत्न, आत्मा का शुद्ध ज्ञान दूसरा रत्न और आत्मा में रमण करना, मग्न होना यह तीसरा रत्न । रत्न नाम काहे का? सार का । सार को भी रत्न कहते हैं । यहाँ रत्नत्रय का सारमय रत्न लेना, कहीं पत्थर के हीरा, जवाहरात रत्न की बात न लेना । इनका नाम रत्न कैसे पड़ा? तो रत्न तो यह ही कहलाता था, जो सारभूत हो उसे रत्नत्रय कहते हैं, यही रत्न कहा जाता रहा, पश्चात् इस श्रद्धान ज्ञान और चारित्र रत्नत्रय को तो लोग भूल गये पर रत्न शब्द को न भूले । तो जो उन्हें सार लगा संसार में उसका नाम रख दिया रत्न । लेकिन यह रत्न सार है कहाँ? जहाँ भी ये रत्न पाषाण जाते वहाँ ही मनुष्यों के चित्त को मलिन कर देते ।
दो भाई थे । वे परदेश गये धन कमाने । खूब धन कमाया । और जब घर आने लगे तो करीब एक-एक लाख के दो रत्न खरीद लिए । रत्न बड़े भाई के हाथ में थे । समुद्र का रास्ता था । जब नौका में बैठे तो बड़ा भाई सोचता है कि सारा परिश्रम तो मैंने किया, घर जाकर एक रत्न भाई को भी देना पड़ेगा, सो यहाँ एक धक्के का ही तो काम है, समुद्र में गिर जायगा फिर तो ये दोनों रत्न हमीं को मिल जायेंगे । फिर वह झट सम्हला, अरे क्या मैंने अनर्थ का काम सोच डाला, उसने अपने छोटे भाई से कहा कि हम तो ये रत्न अपने पास न रखेंगे, इन्हें तुम अपने पास रख लो । जब छोटे भाई ने अपने पास रख लिया तो उसने भी वही बात सोची जो बड़े भाई ने सोचा था । उसने भी उन्हें अपने पास रखने से इन्कार कर दिया । खैर, किसी तरह घर पहुंचे तो मां को वे दोनों रत्न दे दिये । अब माँ सोचती है कि इन रत्नों को तो ये लड़के हम से छुड़ा लेंगे, हैं ये बड़े कीमती हैं, सो ऐसा करें कि भोजन के साथ जहर मिलाकर इन्हें खिला दें, ये मर जावेंगे तो ये दोनों रत्न हमें मिल जायेंगे । फिर वह मां सम्हलती है और विचार कहती है―ओह ! मैंने यह क्या सोच डाला, उसने भी अपने पास उन रत्नों का रखना स्वीकार नहीं किया । बाद में दोनों भाइयों ने उन रत्नों को बहिन के पास रखवा दिया । अब बहिन के मन में भी वैसा ही खोटा विचार आया । बाद में वह बहिन भी सम्हली, उसने भी उन रत्नों को अपने पास रखना स्वीकार नहीं किया । चारों ने अपने मन में आयी हुई बात रखी बाद में सबने यही सलाह की कि इन रत्नों को समुद्र में फेंक दिया जाय, इस अमीरी से तो वह गरीबी ही भली है । उन्होंने वैसा ही किया तब शांति मिली । तो इन पाषाण रत्नों को लोग विपरीत बुद्धि के कारण रत्न कहने लगे, रत्न तो दर्शन ज्ञान और चारित्र को कहते हैं, जिसमें आत्मा को बड़ा संतोष होता है, जहाँ आकुलता का लेश नहीं रहता ऐसे आत्मदर्शन, आत्मज्ञान और आत्मा में मग्न होना यही है सार । इस कर्तव्य के बल से प्रभु ने कर्मईंधन नष्ट किया और सारे संसार के खेद को दूर कर दिया ।
ये प्रभु नि:संग हैं, कैसे हो किसी भी चीज का संग । दूसरी कोई वस्तु उनसे छुई हुई नहीं है । केवल ज्ञानपुंज हैं, रागद्वेष का भी संग नहीं है, कर्मो का भी संग नहीं है, ऐसे प्रभु असंग हैं । उनके कोई बाह्य परिग्रह तो है ही नहीं, और देखो तो कितना वैभव है प्रभु के निकट? कैसा सिंहासन, कैसे चमर कैसी शोभा, बड़ा वैभव । वे प्रभु उस वैभव के बीच सिंहासन से 4 अंगुल ऊपर विराजे हैं, वे प्रभु इस वैभव से अछूते हैं । प्रभु तो उस वैभव को छूते भी नहीं हैं । वह वैभव मानो प्रभु को छूने के लिए ऊपर से गिर रहा है । तीन जो छत्र प्रभु पर ढोले जा रहे हैं वे मानो लक्ष्मी रूप हैं जो कि प्रभु को छूने के लिए गिरे, पर ऊपर ही अटक गए, प्रभु को छू न सके, ऐसे निःसंग हैं वे प्रभु । जिन्होंने द्वैत के विकल्पों को जीत डाला है ऐसे शिव शांत प्रभु का ध्यान भक्तजन करते हैं ।
प्रभुचर्चा की उमंग―आप सोचते होंगे कि यह चर्चा बहुत दिनों से चली आ रही है अब तो इसमें रुचि नहीं रही । तो ठीक है, आप बड़ी अच्छी बात सोचते हैं । जो बात पुरानी हो जाय, बहुत दिनों की हो जाय उसमें प्रीति न करना चाहिए, उसमें रुचि भी न जगना चाहिए । यदि पुरानी बात जानकर कोई रुचि हटा रहा हो तो हम तो उसकी तारीफ करेंगे समर्थन करेंगे कि तुम बहुत अच्छा कर रहे हो । मगर जो बहुत पुरानी चीज है यह शरीर और उससे भी पुराना है यह कर्मजाल, कर्मफल परंपरा, जो कार्माण रूप में अनादि से परंपरा से चल रहा है । उससे रुचि हट जाय, अच्छी बात होगी, वह तो वंदनीय होगा । ऐसा भाव बनता है कि पुरानी बात में प्रीति न करना चाहिए, यह तो उत्तम है, पर इस बात पर मत आ जाय तो बहुत बढ़िया बात होगी । इस चर्चा के प्रसंग में यह भी तो ध्यान में लाये कि हम रोज-रोज कितने अपराध करते हैं, कितना विषय कषायों में रत रहते हैं, कितनी परिणामों में मलिनता रखते हैं, तो उसकी औषधि तो ये प्रभु भगवान हैं । यदि रोज-रोज मलिनता के परिणाम रखते हैं तो यह प्रभुभक्ति की ही औषधि हमें, रोज चाहिये या नहीं? तो इसमें अरुचि करने का कोई प्रसंग नहीं है । हम जिस किसी भी प्रकार उस ज्ञानपुंज प्रभुस्वरूप को निरखें या अपने आप में बसे हुए उस विशुद्ध ज्ञानस्वरूप को निरखें, बस करने के लिए, उद्धार के लिए काम तो यही पड़ा है । जिस प्रकार से बन सके ये ही तो दो काम किए जाने हैं ।