वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 2046
From जैनकोष
तस्मिंनिरंतराभ्यासवशात्संजातनिश्चला: ।
सर्वावस्थासु पश्यंति तमेव परमेहिनम् ।।2046।।
अभ्यस्त तत्व का सतत अवलोकन―सर्वज्ञदेव के ध्यान में अभ्यास करने के प्रभाव से जो निश्चल हुए हैं ऐसे योगीजन समस्त अवस्थाओं में उसी परमेष्ठी को, उसी ज्ञान को देखते हैं । जिसकी जहाँ श्रद्धा है उसका चित्त वहीं लीन रहता है । जिसका जहाँ चित्त लगा है उसे उस ही के दर्शन होते हैं । एक दृष्टांत दिया है कि―एक पंडितजी पगड़ी बाँधे हुए कहीं शास्त्र पढ़ रहे थे । एक बजाज सेठ भी पंडित जी के पीछे बैठा हुआ शास्त्र सुन रहा था । शास्त्र सुनते हुए में उस सेठ के निद्रासी आ गई, कुछ स्वप्नसा भी आ गया । स्वप्न में क्या देखता है कि मैं दूकान पर बैठा हूँ, कपड़ा खरीदने वाले लोग आ रहे हैं । किसी खरीददार ने पूछा कि यह कपड़ा क्या भाव में दोगे? सो उसने कहा 3 रुपया गज । उसने 1।।) रु0 गज माँगा । आखिर तय न होने पर खरीददार चलने लगा । तो वह सेठ उस पंडितजी की पगड़ी खींचकर फाड़कर कहता है अच्छा 1।।) रु0 गज में ही ले जावो । तो कोई एक ही बात नहीं, सभी कामों में यही बात है, जिसका चित्त जहाँ लगा होता है उसे स्वप्न में भी वही बात दीखती है । कभी आपने स्वप्न में देखा होगा कि हम तीर्थयात्रा में गए हुए हैं, एक टोंक से दूसरी टोंक में झट पहुंचकर वंदना कर रहे हैं, कभी बड़े-बड़े पर्वतों पर जरा-जरासी बात में लाँघकर जा रहे हैं और कहीं एकदम उड़ते हुए चले जा रहे हैं । तो ऐसे स्वप्न उन्हें आते हैं जिन्हें उन तीर्थक्षेत्रों के प्रति श्रद्धा है, उनके प्रति ध्यान बनाते हैं ।
चित्तप्रासाद में हितसंबंधित स्वप्न―जिनके चित्त में जो बात बसी है स्वप्न में भी वही बात दीखती है । जब कभी इस प्रकार के अच्छे स्वप्न किसी को दिखते हैं तो उनमें वह बड़ा खुश होता है, उन्हें अपना सगुन समझता है, वह सोचता है कि मेरे मन का संतुलन ठीक था, मेरे भाग्य का उदय हुआ है, नहीं तो ऐसा स्वप्न न आता । यों सोचकर वह बड़ा संतुष्ट होता है । कभी ऐसा स्वप्न आये कि हम समुद्र में गिर गए या मगर हमारा पैर पकड़े खींच रहा है, या सिंहादिक क्रूर जानवर हम पर आक्रमण कर रहे हैं तो उन स्वप्नों को देखकर हम घबड़ा जाते हैं, दुःखी होते हैं । तो जैसा अभ्यास हो उसके अनुसार वही चीज दिखती है । इन योगीजनों को सर्व अवस्थावों में उस ही ज्ञानपुंज भगवान परमेष्ठी का दर्शन होता रहता है । पर एक बात और जानने की है कि हमारा चित्त यदि समाधानरूप है, धीर है, गंभीर है तो स्वप्न आयेंगे नहीं, और अगर आयेंगे तो एक विश्राम पहुंचाते हुए स्वप्न आयेंगे । तो ज्ञानी पुरुष जो इस आत्मतत्त्व के अभिलाषी हैं, उन्हें जब भी स्वप्न आयेंगे तब आत्मतत्व का अनुभव करने के प्रसंग ही आयेंगे । उनके इन बाह्य इंद्रियों का व्यापार बंद होता है शयन अवस्था में, मन भी उपशांतसा रहता है, किंतु वह मन अपने भीतर ही काम करता रहता है । तो जिन योगीजनों ने अभ्यास किया है वे सर्व अवस्थाओं में परमेष्ठी प्रभु को ही निरखते हैं । जैसे मोही जन कोई धनसंपदा की प्राप्ति का स्वप्न देखकर बड़े खुश होते हैं और जगने पर जरा खेदसा मानते हैं ऐसे ही जब कुछ आत्मानुभव की आनंद की बात कही जाती है तो किसी भी स्थिति में चाहे सोते हुए में, चाहे जगते हुए में, और जब वह स्थिति मिलती है तब जगने पर उस आत्मा को कुछ खेद होता है, ऐसी स्थिति क्यों न बनी रही?
स्वप्नवत् असार समागमों को त्यागकर प्रभु स्मरण का अनुरोध―सांसारिक मौज का स्वप्न देखकर भी लोग जगने पर विषाद करते हैं । एक मनुष्य था उसे स्वप्न आया कि मुझे राजा ने 50 गायें इनाम में दी हैं । ग्राहक लोग उन्हें खरीदने आये । पूछा―इन गायों का क्या मूल्य है? तो उसने बताया कि इन सभी गायों का मूल्य 100-100 रु0 है । ग्राहक लोग 50-60-70 रु0 प्रति गाय का मूल्य लगा रहे हैं । वह 90) रु0 प्रति गाय कहने लगा । बात न पटी तो ग्राहक लोग चल पड़े । इतने में वह जग गया, देखता है ओह ! यहाँ तो कहीं कुछ भी नहीं है । तो झट आँखें बंद कर लेता है और कहता है―अच्छा तुम 70-70 रु0 में ही ले जावो । था तो वहाँ कुछ नहीं, वह तो स्वप्न की बात थी, पर उसी को वह सत्य मान रहा था । ऐसे ही मोहनिद्रा में सोये हुए इन प्राणियों को यहाँ की सारी बातें―मेरा घर, मेरे परिजन, मेरा वैभव आदिक सभी बातें सच मालूम हो रही हैं, पर है वास्तव में किसी का कुछ नहीं, किसी से कोई संबंध नहीं, पर मोहवश अपने आपको दुःखी कर रहे हैं और दूसरों को भी सत्पथ से विचलित करते हैं । जब ज्ञानज्योति जगती है तब विदित होता है―ओह ! ये सब मोहनिद्रा के स्वप्न हैं । जैसे अभी अपने जीवन में जिन लोगों का वियोग हुआ है―पिता का, बहिन का, भाई का या किसी का भी, वे अब स्वप्नवत् लग रहे हैं, तो जैसे बीती हुई बातें स्वप्नवत् लग रही हैं इसी तरह वर्तमान में भी जो कुछ समागम हैं वे भी स्वप्नवत् ही समझिये । इन असार तत्वों को त्यागकर इनसे उपेक्षा कर के जो ज्ञानपुंज गुण के स्वरूप में तल्लीन होते हैं वे प्रभु को निहारते हैं और प्रभुस्वरूप को प्राप्त करते हैं ।