वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 2055
From जैनकोष
भव्यतैव हि भूतानां साक्षांमुक्तेर्निबंधनम् ।
अत: सर्वज्ञता भव्ये भवंती नात्र शंकते ।।2055।।
भव्यता में मुक्तिकारणता―प्राणियों की भव्यता ही भव्यत्व नामक गुण साक्षात् मुक्ति का कारण होता हैं । इस भव्यत्व को एक तो दूरार्थ में भी लगा सकते हैं और एक भव्यत्व के निकट अर्थ में, जिसका कि संसार निकट रह गया है और रत्नत्रय रूप परिणमन चल रहा है यह उसका भव्यत्व है । जो निकट भव्य है उसकी भव्यता तो निकट काल में ही मुक्ति का वरण करायेगी, लेकिन भव्यत्वगुण की महिमा यहाँ बता रहे हैं । भव्यक्त्व न हो तो मुक्ति का पात्र नहीं होता । अथवा सर्वज्ञ ने जीवों में छांटकर यह संज्ञा नहीं रखी कि इतने जीव भव्य हो गए इतने अभव्य, किंतु जिन जीवो का ऐसा ही होंनहार है कि वे कभी भी रत्नत्रय को सम्यक्त्व को नहीं प्राप्त कर सकेंगे, उनका नाम रखा दूरातिदूर भव्य । कहीं नाम की संज्ञा में इन जीवों में छंटनी नहीं की गई है । जो कुछ काल में मुक्त होंगे, सम्यग्दृष्टि होंगे उन्हें निकटभव्य कहते हैं और जहाँ ऐसी योग्यता ही नहीं है उन्हें अभव्य बताया है । तो साक्षात् मुक्ति का कारण प्राणियों की भव्यता ही है, और इससे हम समझते हैं कि यह सर्वज्ञता भव्य में होती है।
उत्कर्ष का मार्ग―सभी जीव अपना उत्कर्ष चाहते हैं । हमारी उन्नति की स्थिति हो ऐसा सभी चाहते हैं, पर यह तो निर्णय करिये कि उन्नति की स्थिति वास्तव में है क्या? विशेष धनिक बन जाना, लखपति, करोड़पति अथवा अरबपति बन जाना यह क्या जीव की उन्नति है? अथवा लोक में बड़ी नामवरी फैल जाना यह क्या जीव का उत्कर्ष है? जीव का उत्कर्ष तो वह है जिसमें जीव धोखे से रहित स्वाधीन वास्तविक शांति प्राप्त कर सके । तो अब इन उत्कर्ष के लक्षणों से बँधकर इनकी खोज में चलिये । हम कौनसा प्रयत्न करें कि इन उत्कर्षों को पाये? इसको जरा जल्दी समझने के लिए हमें उस आदर्श का भी चिंतन करना होगा कि जिसके उत्कर्षों को प्राप्त कर लें, बस इसी से संबंधित है प्रभुभक्ति । प्रभुभक्ति में भक्त पुरुष प्रभु के साथ ऐसा निःसंकोच अपने भाव जोड़ता है, उसके निकट पहुंचता है कि प्रभु से अपने को जुदा नहीं निरखता ।
प्रभुभक्ति में नि:संकोचता की घटना―एक बार तो भक्ति में भक्त यह कह बैठा कि हे प्रभो ! यह तो बतावो कि तुम हमें उठाते हो या हम तुमको उठाते हैं? यह स्व प्रश्न रख दिया भक्त ने । उठाने के मायने उच्च प्रकट करना, उच्च बनाना । तो बतलावो कि प्रभु भक्त को ऊँचा उठाते हैं या भक्त लोग प्रभु को ऊँचा उठाते हैं । बात करते-करते ऐसे ही कह दिया भक्त ने कि भक्त प्रभु को ऊँचा उठाता है । इसे सुनकर यों अचरज करेंगे कि कैसी अनहोनी बात बतायी लेकिन समाधान में एक समस्या और रख दी कि यह बतावो कि पानी में हवा से भरी हुई एक मसक डाल दी जाय और उस पर मनुष्य तिर करके किनारे पहुंचता है तो यह बतावो कि मसक को पुरुष ने तिरा दिया या पुरुष ने मसक को तिरा दिया? इसी का ही उत्तर बता दो, क्या उत्तर होगा? कुछ तो ऐसा भी लगता कि मसक ने पुरुष को, तिरा दिया और कुछ ऐसा तो है ही कि पुरुष उस मसक को लिए जा रहा है । तो यह ही बात हम और आपके बीच के प्रश्न की है । यह तो मानते ही हैं सब कि प्रभुभक्त को तारते हैं, यह निमित्त दृष्टि से कथन है, पर यह भी तो देख लो कि भक्तजन न हों तो प्रभु को पूछे कौन? प्रभु का स्वरूप जाने कौन? उनकी शोभा रहे कैसे? तो भक्तों ने तो प्रभु को उठाया है ।
भक्त की प्रभु से एक मांग―भक्तिरस में चूंकि आशय बड़ा विशुद्ध है, गुणानुराग है इसलिए उस आशय में किस ही प्रकार प्रभु की भक्ति करें पर अभिलाषा यह होनी चाहिए कि हम प्रभु के स्वरूप से अपने को अभेद बनाये हैं । एक बार भक्ति में भक्त कहता है कि हे प्रभो ! आप सर्वज्ञ हो ना, तो देखो―हमने आपको अपना कितना नाटक दिखाया कि आज तक अनादिकाल से लेकर अब तक अनंत जन्म किए, तो हमने आपको कितने नाटक दिखाये? हां हां अनंत नाटक दिखाये । तो नाटक दिखाने वाले पर आप प्रसन्न हुए कि नहीं? नाटक दिखाने वालों के मन में यह रहता है कि मेरा मालिक मेरे नाटक को देखकर खुश हो जाय । तो मैंने तो आपको कितने ही नाटक दिखाये, पर आप मुझ पर प्रसन्न हुए कि नहीं? यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो जो मैं मांगता हूँ सो दो । मैं मांगता हूँ मुक्ति, निर्वाण । और यदि आप प्रसन्न न हुए हों मेरे नाटक को देखकर, तो मेरे उन नाटकों को खतम करा दो जिनको देखकर आप खुश ही नहीं होते । जब आप खुश ही नहीं होते तो फिर उन नाटकों की जरूरत ही क्या है? जब भाव विशुद्ध रहता है, गुणानुराग रहता है तो भक्ति में कैसा ही कहा जाय, उद्देश्य यही है प्रभु का गुणानुराग ।