वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 2072
From जैनकोष
अथरूपे स्थिरीभूतचित्त: प्रक्षीणविभ्रम: ।
अमूर्तमजमव्यक्तं ध्यातुं प्रक्रमते ततः ।।2072।।
रूपस्थ ध्यान के बाद रूपातीत ध्यान का प्रक्रम―उस ज्ञानी ने अभी रूपस्थध्यान में सकलपरमात्मा का ध्यान किया था । अरहंत भगवान अर्थात् सशरीर भगवान के ध्यान को रूपस्थध्यान कहते हैं, क्योंकि अभी वहाँ मुद्रारूप शरीर दिव्यकाय वह सब उपस्थित है और उस मुद्रा के माध्यम से यहाँ ध्यान हुआ । तो रूपस्थध्यान में उसने अपना चित्त स्थिर किया, ऐसा वह ध्यानी जिसको किसी भी प्रकार का कुछ विभ्रम नहीं रहा वह इसके अनंतर अमूर्त, अजन्मा और अव्यक्त तत्व का ध्यान करने के लिए उद्यम करता है, अर्थात् रूपातीत ध्यान में अब आता है । रूपातीत का अर्थ है―जो रूप मुद्रा आकार प्रकार से अतीत है, दूर है । इस ध्यान में दो स्थानों पर दृष्टि जायगी―एक तो सिद्ध प्रभु और दूसरा अपने आप में अनादि अनंत विराजमान शुद्ध चैतन्य तत्व । दोनों रूपातीत हैं, और उनमें भी प्रधान है वह ज्ञानस्वभाव जिसके ध्यान में इसे न अपने व्यक्ति का ख्याल है और न सिद्ध व्यक्ति का ख्याल है । ऐसा जो ज्ञानस्वरूप है, स्वभाव है वह है रूपातीत ।
रूपातीत तत्त्व की अमूर्तता व अजता―रूपातीत ज्ञानस्वभाव अमूर्त है याने रूप, रस, गंध, स्पर्श से रहित है । वह किसी आधार में नहीं बँधा, किसी आकार में नहीं बँधा । अत: वह सर्व प्रकार से अमूर्त है । इसकी उत्पत्ति रही है, सदा से है, अत: अनादि है । किसने उत्पन्न किया है इस रूपातीत तत्त्व को? यह विशेषण प्रधानरूप से आत्मस्वभाव में घटित होता है पर सिद्धस्वरूप को भी देखो तो वह भी अज है, किसी से उत्पन्न नहीं है । यद्यपि कर्मों के क्षय का निमित्त पाकर सिद्धस्वरूप बना है, इस व्यवहारदृष्टि से उस सिद्धपर्याय को सादि कह सकते हैं और जायमान कह सकते हैं, किंतु उसकी वास्तविकता पर ध्यान दे तो विदित होगा कि वह सिद्ध विकास भी किसी द्रव्य से उत्पन्न नहीं हुआ, किसी कारण से उत्पन्न नहीं हुआ, कोई वहाँ भिन्न कार्य नहीं है, क्योंकि वहाँ हुआ ही नहीं कुछ काम । देखिये इतना बड़ा काम होकर भी संसार के जन्ममरण कट गए, कर्मों का बंधन मिट गया, रागादिक विकार दूर हो गए तिस पर भी एक दृष्टि ऐसी है कि जिस दृष्टि में यह नजर आयगा कि सिद्ध भगवान में जो बात बनी है वह कोई कही से आकर नहीं बनी है ।
रूपातीत तत्त्व के स्वयंभुता पर एक दृष्टांत―रूपातीत तत्त्वविकास की अजता के संबंध में एक दृष्टांत लो । टाँकी से उकेरी हुई प्रतिमा । एक बड़े पाषाण में एक प्रतिमा बनवानी है तो कारीगर को बुलाकर वह पाषाण दिखाया और कह दिया कि देखो यह प्रतिमा इसमें बननी है । तो पाषाण के देखते ही उस प्रतिमा का वह आकार जो बनाना है वह उस पाषाण के अंदर उसे दिख गया, और वह कह देता है कि ठीक है प्रतिमा बन जायगी । तो कारीगर उस प्रतिमा को कोई नई नहीं बना रहा, किसी चीज को जोड़ नहीं रहा, जैसे कि कोई मिट्टी की प्रतिमा बनाये तो मिट्टी जोड़ जोड़कर उसमें लगा लगाकर एक प्रतिमा खड़ी कर दे, इस तरह से नहीं किया जा रहा है किंतु जो प्रतिमा निकालनी है वह प्रतिमा उस पाषाण के अंदर विराजमान है । सिर्फ उस प्रतिमा के ढाकने वाले (आवरण करने वाले) जो अगल-बगल के पत्थर हैं उन्हें कारीगर हटाता है । जब पूर्ण रूप से आवरण हट गये तो जो प्रतिमा उस पाषाण के अंदर पहिले से ही मौजूद थी वह निकल आयी । इसी तरह से उस सिद्ध अवस्था में हुआ क्या कि जो आत्मा में था स्वभाव, उसकी अपने सत्व के कारण जो बात थी वह प्रकट हो गयी । इस दृष्टि से यह कहेंगे कि यह सिद्ध अवस्था किसी पर से जायमान नहीं है, अतएव वह भी अज है । जो विशेषण प्रधानरूप से आत्मस्वभाव में लगे, उसे वहाँ लगाये और जो दोनों जगह लगे उसे दोनों जगह लगाये ।
रूपातीत तत्त्व की अव्यक्तता―वह रूपातीत तत्व कल्पनातीत अव्यक्त है । कहाँ प्रकट है? किसीने कहा कि चलो आज हम एक संत के दर्शन करा लाये । चल दिया । वहाँ बता दिया कि ये देखो बैठे हैं महाराज । ठीक है दर्शन कर लिया । अब चलो वीतराग प्रभु के, सकलपरमात्मा के दर्शन करा लाये―चलिये―लें गया और करा दिया दर्शन । ये देखो विराजमान हैं प्रभु । ठीक है दर्शन कर लिया । चाहे परमार्थ बात उसने न भी जानी तो भी दिल को तो चैन हो गया कि हमने प्रभु के दर्शन कर लिये और कोई कहे कि चलो हम तुम्हें उस सिद्ध स्वरूप के, चैतन्यस्वरूप के दर्शन करा लायें । चलो । अब कहाँ दर्शन कराये, कहाँ दिखाये, कहाँ बैठाये? वह स्वरूप तो अव्यक्त है, जो ज्ञानद्वारा जानने का उद्यम करता है सो ही जान सकता है । ज्ञानियों को तो वह स्वरूप व्यक्त है पर अज्ञानियों को अव्यक्त है, यों भी कह सकते हैं । और फिर बाह्य संपर्क न होने से व्यवहार में किसी भी रूप में व्यक्त नहीं है । ऐसा जो रूपातीत तत्व है उसका ध्यान करने के लिए यह योगी उपाय करता है ।