वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 2092
From जैनकोष
अनुप्रेक्षाश्च धर्म्यस्य स्यु: सदैव निबंधनम् ।
चित्तभूमौ स्थिरीकृत्य स्वस्वरूपं निरूपय: ।।2092।।
धर्मप्रगति के लिये अनुप्रेक्षण―अब धर्म की बढ़वारी के लिए अनुप्रेक्षावों के चिंतन का उपदेश किया जा रहा है । अनुप्रेक्षावों की भावना कीजिए । यह ध्यान की बात है, इसीलिए इस ग्रंथ में आदि में बारह भावनाओं का भी वर्णन किया है । उन भावनाओं को भाकर, सुनकर चित्त में उतारकर पहिले आशय विशुद्ध बने तब फिर इसे ध्यान की बात बतायी जाय । तो पहिले भी बारह भावनाओं का विचार किया और बीच में उस ध्यान के मार्ग में चले भी, और फिर भी जरूरत पड़े तो फिर हम बारह भावनाओं का चिंतन कर रहे हैं । ये भावनायें ध्यान में बढ़ने के लिए ऐसा काम करती हैं जैसे अग्नि को जलाने के लिए हवा काम करती है ।
अनित्य और अशरण भावना की झांकी―जहाँ ध्यान में आया कि ये सब समागम क्षणिक हैं बस राग के दूर होने का मौका मिला? जहाँ ध्यान में आया कि मात्र केवल अपना ज्ञानस्वभाव ही नित्य हे और सदा मेरा साथी है तो यहाँ अनुराग करने का, रुचि करने का मौका मिलाना जिससे बाह्यपदार्थों का राग छोड़ने में और अधिक सहयोग मिल जाय । ध्यान हुआ कि इस लोक में कहीं कोई शरण नहीं है । जहाँ शरण में जाऊँ वहीं से धोखा मिलता है, संकट मिलता है । जो आज संतान के कारण दुःख का अनुभव कर रहे हैं या किसी और काम के कारण बड़ा परिवार मिलने से कुछ क्लेश अनुभव कर रहे हैं, उन्होने विवाह के समय में ऐसा कुछ सोचा था क्या? तब तो फूले नहीं समाते थे । तब तो सोचा कि हें इसकी शरण में रहूंगा ।शरण मानकर ही तो यह एक दूसरे से राग किया जाता हे । यह केवल पुरुषों की ही बात नहीं है । स्त्रियों के लिए भी यही बात है, पर यहाँ तो जिस किसी के भी शरण में जावो वहाँ से धोखा ही मिलता है । बाह्य में कहीं कोई शरण नहीं है । जब यह निगाह में आये तो कुछ राग हटा ना, और समझ में आया कि मेरे आत्मा का खुद ही अपना स्वभाव, उसका ही आलंबन शरण हें । निज शरण मानने के फल में पर को शरण मानने का अपने में जो संस्कार था वह भी समाप्त हो जाता है । इन भावनाओं का विस्तारपूर्वक वर्णन आया है । इन भावनाओं के भाने से इस जीव का राग हटता है, और ध्यान में उसके सिद्धि बढ़ती है ।
संसार और एकत्वभावना की झलक―बाहर में निरख लो, सर्व स्थितियां दुःखरूप हैं ।हम क्या यहाँ बन जाये कि सुखी हो जाये, इसका भी कुछ निर्णय कर लो । क्या नेता बन जायें, क्या दूकानदार बन जायें, क्या बाबू जी बन जाये, क्या पूंजीपति बन जायें? अरे इन सभी स्थितियों में केवल क्लेश ही क्लेश नजर आयगा । कोई कष्ट न माने तो यह तो उसके मोह की बात है, पर वास्तव में बाहर की सारी स्थितियां कष्टरूप हैं । बाहर की स्थितियाँ नहीं, जो हमारा उपयोग हमारे आधार को छोड़कर बाहर गया बस वही कष्ट है और उसमें बाहर की स्थितियों की बदनामी भी आती है । बाहर की सर्व स्थितियां कष्ट रूप हैं, जब अंदर में निरखा वह कैवल्यस्वरूप शुद्ध आत्मतत्त्व, उसका अवलोकन किया, आलंबन किया तो वहाँ एक अलौकिक आनंद प्राप्त हुआ । उस स्थिति में इस प्रकार का ज्ञान हुआ कि वास्तव में मैं तो अकेला हूँ, इसी स्थिति में एक अद्भुत आनंद है, अन्य बाहरी स्थितियाँ तो क्लेशों से ही भरी हुई हैं । ऐसा विचार करके ही दूसरों से जो स्नेह किया था, जो दूसरों में आपा मान रखा था, अपने ऊपर जो सारे विकल्पों के बोझ बना रखा था वे सब दूर हो जाते हैं । अरे एक परिवार में भी सबके अपने-अपने कर्म लगे हैं और उनके पुण्य पाप के उदय के अनुसार उन्हें सुख दुःख प्राप्त हो रहे हैं । आप क्यों स्त्री पुत्रादिक के कारण अपने ऊपर एक बड़ा भारी बोझसा मान रहें हो? आप उनका पालन-पोषण नहीं करते, उनका खुद ऐसा पुण्य का उदय है कि जिसके कारण आपको उनकी चाकरी करनी पड़ रही है । आपके पुण्य से भी उन सबका पुण्य अधिक प्रबल है तभी तो आपको उनकी बराबर चिंता रखनी पड़ती है । तो जिन जीवों के पुण्य का उदय चल रहा है उनकी चिंता क्या करना? इस प्रकार की बात जब दृष्टि में आती है तब राग निवृत्त होने का अवकाश मिलता है । यह राग दूर हुआ कि मन स्थिर हो गया ।
अन्यत्वभावना का चिंतन―अन्यत्व भावना में चिंतन चलता है कि सब अन्य हैं, जुदे हैं, मुझ से न्यारे हैं । जब उनके पुण्योदय के कारण सेवा करते-करते भारी परेशान हो जाते हैं तो झल्ला करके तो सभी कह बैठते हैं कि सब अपने-अपने मतलब के हैं, लेकिन वस्तुस्वरूप को निरखकर समता के साथ उनका आदर रख कर के कोई चिंतन करे कि ये सब अपने स्वरूप में परिपूर्ण हैं, और मुझ से उतने ही भिन्न हैं जितने कि अन्य लोग भिन्न हैं । दूसरों पर झल्ला करके ये गैर हैं ऐसा मानने में यहाँ कुछ मिलता नहीं है, शांति नहीं होती, किंतु उनको हटा रहे हैं, जुदा कर रहे हैं । तो बड़े आदर से, झल्लाकर नहीं । उनका आदर यही है कि अपने स्वरूप की ही तरह उनके स्वरूप को निरखकर फिर समझें कि सब परस्पर विविक्त हैं, जुदे हैं, भिन्न हैं । जब ऐसा अन्यपन चिंतन में आता है तब राग दूर होता है ।
अशुचिभावना का चिंतन―अब अशुचि भावना की बात देखिये―इस शरीर का रंगढंग देखिये, जब कोई आदमी कहीं अकेला ही होता है तो बह खुले बदन जैसा तैसा ही पड़ा रहता है, उस समय के रंग ढंग को देखो, और जब वह चार आदमियों के बीच में जाता है अथवा किसी सभा सोसाइटी में जाता है तो कैसा हाथ पैर झटककर, बड़े साफ कपड़े पहिनकर खूब सज धज कर जाता है, तो उस समय के उसके रंगढंग को देखो । पर क्या कोयले में बहुत धोया जाने पर भी कहीं उसमें सफेदी नजर आती है? नहीं नजर आती । इसी प्रकार यह मनुष्य इस अत्यंत अशुचि, अपवित्र शरीर को चाहे कितना ही धोये, साफ करे, पर यह पवित्र नहीं हो सकता । मनुष्य के अंगों में सबसे अच्छा अंग माना जाता है यह कंधे के ऊपर चढ़ा हुआ टोकना । पर यह टोकना सबसे ज्यादा गंदा है । कान का कनेऊ, नासिका की नाक, मुख के लार थूक कफ, आँख के कीचड़ आदि सब इसी टोकने में हैं । तो इस सबसे अधिक अशुचि अपवित्र इस टोकने को यह मनुष्य सबसे सुंदर समझता है । यह एक इस शरीर के अशुचिपने की बात कह रहे हैं । दूसरों पर क्या निरखना, अपने को ही निरख लो, ऐसा यह अशुचि शरीर है और इसी अशुचि शरीर पर यह मनुष्य अपनी शान बगरा रहा है । इसी तरह से धन व ज्ञान आदि पाकर शान बगराता है यह मनुष्य । अनेक प्रकार के नटखट यह मनुष्य किसलिए करता है? एक इस अपवित्र शरीर की शान बढ़ाने के लिए । इस प्रकार की बात जब चित्त में बैठ जाती है तो फिर इस शरीर में उसके राग रहेगा क्या? न रहेगा राग। अरे जहाँ अनेक प्रकार की बातें सोचा करते हो तहाँ इस अपने शरीर को दृष्टि में रखकर थोड़ा उसकी अपवित्रता पर भी विचार करो, उससे बहुत कुछ शिक्षा मिलेगी । इन शरीरों से राग हटेगा, पर से स्नेह मोह ममतायें दूर होंगी । उसी चिंतन के साथ एक इस प्रकार का भी चिंतन हो कि इस अपवित्र शरीर से मैं आत्मा अत्यंत भिन्न हूँ, निर्लेप हूँ, अमूर्त हूँ, उसमें कोई भी ग्लानि की बात नहीं हे । ऐसा मैं पवित्र आत्मा इस देह के अंदर विराजमान हूँ, इस प्रकार के चिंतन से इस शरीर की अशुचिता का ध्यान रखने के कारण घबड़ाहट न होगी और एक अपने आपमें तृप्ति का अनुभव होगा । तो यों इन बारह भावनाओं के ध्यान से धर्म में स्थिर होने का बड़ा सहयोग मिलता है । इससे हे ध्यानार्थियो ! इन भावनाओं का चिंतन करो ।
आस्रव भावना का चिंतन―शांति का साधन ध्यान है, उसके विषय में बड़ी समता से यदि ध्यान करें तो वहाँ अशांति नहीं ठहर सकती । जब ध्यान में मन न लगे तो योगियों को, विवेकियों को बारह भावनाओं का चिंतन करना चाहिए। वे आस्रवभावना के संबंध में विचार करते हें कि जीव तो स्वयं अपने आप ज्ञानानंदरस से परिपूर्ण है, किंतु अनादि से इसके साथ कोई दूसरी चीज लगी है जिसका फल सामने देख ही रहे हैं कि किस बंधन में यह जीव पड़ा हुआ है । वह दूसरी चीज है कर्म । नाम कुछ भी रख लो, पर यह निश्चय है कि मेरे साथ कोई दूसरी चीज लगी हुई है जिसके कारण मैं नाना विकारों में चल रहा हूँ । वे कर्म आते हैं, वे बड़े दुःखदायी हैं । रागादिक भाव उत्पन्न होते हैं, वे इस जीव को बड़ा कष्ट देते हैं, किंतु खुद का जो आत्मा का भाव है वह सर्व पर तत्वों से रहित है, इसलिए रागादिक भावों का आकर्षण लाभकारी नहीं है ।
संवर व निर्जरा व लोकभावना की झलक―रागादिक भावों से उनसे हटकर अपने स्वभाव में रुचि लगाये, वहाँ ठहरे, यह लाभकारी है, इसी का नाम है संवर । अपने आपके स्वरूप में आना, इससे कर्मो का आना रुकता है, रागादिक विभाव घटते हैं और इस संवर से जीव को शांति प्राप्त होती है । संवर होने पर कर्मो का झड़ना शुरू हो जाता है । जो कर्म अज्ञान दशा में बंध गए थे वे कर्म अपने शुद्धस्वरूप के परिचय में झड़ने लगते हैं । कर्मों का झरना लाभकारी है । योगियों की दृष्टि लोक की रचना पर प्राय: बहुत काल ठहरती है । संस्थानविचय धर्मध्यान में मुख्यता यही है कि लोक और काल कितना बड़ा है, यह ज्ञान के सामने आंखों के सामने बना रहे, इससे रागभाव न ठहरता है, न बनता है । जिसे यह विदित है कि 343 घनराजू प्रमाण यह लोक है, जंबूद्वीप एक लाख योजन का है । दो हजार कोश का एक योजन होता है । जंबूद्वीप से दूना एक लवणसमुद्र है । एक ओर इससे दूना द्वीप, द्वीप से दूना समुद्र, इस तरह द्वीप और समुद्र चलते जा रहे हैं । कितने हैं वे सब? अनगिनते ।तौ ऐसे दूने-दूने विस्तार के हैं और इतना ही विस्तार दूसरी ओर है । यो असंख्यात द्वीपसमुद्रों में आखिरी जो समुद्र है वहाँ तक है सारा का सारा मध्यलोक । ये सब द्वीप समुद्र चारों तरफ के मिलकर एक घनराजू प्रमाण भी नहीं होते । ऐसे-ऐसे 343 घनराजूप्रमाण यह दुनिया है । इसके बहुत थोड़े से क्षेत्र में ही आज की यह परिचित दुनिया है, फिर जिस क्षेत्र में हम आप रह रहे हैं वह क्षेत्र इतनी बड़ी दुनिया के आगे कुछ गिनती भी रखता है क्या? अरे जिस जगह आप रहते हैं उसकी तो बात जाने दो, जिस प्रांत में, जिस देश में आप रहते हैं उतना क्षेत्र भी कुछ गिनती नहीं रखता, फिर इस थोड़े से क्षेत्र में क्या ख्याति की चाह करना? काल की बात देखो―हम आपका अनंतकाल व्यतीत हो गया और कितना काल और व्यतीत होगा, अंत ही नहीं है । इतने लंबे काल के भीतर यह 100-50 वर्ष की जिंदगी क्या गिनती रखती है? जितने में हम आप ओटपाये करते हैं, बड़ा राग विरोध मचाते हैं लोकभावना में ये योगीजन उस लोक के स्वरूप का चिंतन करते है जिससे राग न हो और मन स्थिर हो जाय।
बोधिदुर्लभ भावना का चिंतन―लोक में सबसे दुर्लभ चीज क्या है? प्रथम तो निगोद से, अन्य स्थावरों से, विकलत्रयों से या और-और भवों से निकलकर मनुष्य बनना यह बड़ी दुर्लभ चीज है । जैसे बैल गाड़ी के जुवा में दोनों ओर छोर पर एक-एक छिद्र होता है जिनमें एक-एक सैल पड़ा रहता है । उस जुवा से सैल निकालकर मानो किसी नदी में दोनों को एकएक अलग किनारे से बहा दिया जाय, वे बहते-बहते फिर किसी जगह इकट्ठे हो जावे और ठीक पहिले की ही भाँति उस जुवा के छिद्रों में दोनों ओर वे सैल फिर उसी तरह पड़ जावें तो बतावो यह बड़ी कठिन बात है कि नहीं? बहुत कठिन है । इसी प्रकार अन्य-अन्य भवों से निकलकर मनुष्यभव पाना बहुत कठिन है । जरा जगत की जीव जातियों पर दृष्टि डालकर देख लो । मनुष्य होने से योग्य जो परिणाम चाहिए उन परिणामों की कितनी विरलता है? खैर मनुष्य हुए तो इतना तो पार पा चुके । अब मनुष्य होने पर भी उत्तम देश मिलना कठिन है, अगर कोई म्लेच्छ देश में जन्म हो जाय, जहाँ निरंतर बर्फ पड़ रही है, जहाँ खेती का नाम नहीं है, जहाँ मांसभक्षियों का निवास है ऐसी जगह में पैदा हो गए तो ऐसा मनुष्यजीवन भी क्या जीवन है? तो उत्तम देश का मिलना कठिन है । उत्तम देश के बाद उत्तम कुल मिलना कठिन है । अच्छे देश में भी मानो उत्पन्न हो गए, पर उत्पन्न हुए किसी चांडाल के घर, अथवा भिखारियों के घर अथवा हिंसक घरानों में तो वह मनुष्यजीवन भी क्या जीवन है? तो उत्तमकुल पाना कठिन है । मानो उत्तम कुल भी पा गए तो शरीर पुष्ट मिलना, इंद्रिय समर्थ होना यह उत्तरोत्तर दुर्लभ है, और फिर बुद्धि ठिकाने हो और धर्म में रुचि जगे, उपदेश सुनने व उसको ग्रहण करने का चाव हो, उसको अवधारण करने व सम्यक्त्व प्राप्ति की भावनायें बनाना ये उत्तरोत्तर कठिन बातें हैं । संयमी बनना, अपने आत्मा में अपने उपयोग को नियंत्रित करना, रत्नत्रय धर्म पालना, ये कितनी दुर्लभ चीजें हैं? इस प्रकार का चिंतन बोधिदुर्लभ भावना में चलता है ।
धर्मभावना का चिंतन―धर्मभावना में धर्म की महिमा निरखी जायगी । सर्व समृद्धियां, शांति, तृप्ति सब कुछ इस धर्म के प्रसाद से प्राप्त होता है । सच तो यह जानो कि जब से धर्मलाभ हो तब से अपना जीवन है । कोई पूछे कि आपकी कितनी उम्र है तो आप क्या कहेंगे? क्या यह कह देंगे कि हमारी आयु तो 50-60 अथवा 70 वर्ष की है? अरे इस उसको अपनी सही उम्र न समझो । वास्तव में उम्र उतनी है जितने दिनों से आपको धर्म में रुचि हुई हो । नहीं तो आपको अनंतकाल का बूढ़ा कहना चाहिए । वास्तव में धर्मलाभ से ही यह जीवन सफल है ।इस धर्म का फल बिना विचारे, बिना मांगे स्वयं सामने आता है । धर्म का वास्तविक फल तो सर्व संकल्पविकल्पों से सर्व संकटों से मुक्त होकर एक शुद्ध कैवल्यस्वरूप का, ज्ञानानंदस्वरूप का अनुभव करना है, सदा के लिए संकटों से छुटकारा पाना है । जब धर्म के प्रति लगन होती है तो उस समय अविशिष्ट राग के कारण विशेष पुण्य का बंध होता है जिससे बड़ी-बड़ी समृद्धियां स्वत: ही प्राप्त होती हैं । ऊँचा से ऊँचा पद संसार के सुखों में मिलता है तो सम्यग्दृष्टि को ही मिलता है । तो धर्म के प्रसाद से सर्व समृद्धियां प्राप्त होती हैं । यदि विशुद्ध धर्मपालन हो तो निर्वाण प्राप्त होता है । ऐसा धर्मभावना में योगीजन चिंतन करते हैं ।