वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 230
From जैनकोष
तस्माद्यदि विनिष्त्क्रांत: स्थावरेषु प्रजायते।
त्रसत्यवमथवाप्नोति प्राणी केनापि कर्मणा।।230।।
निगोद की अपेक्षा स्थावरपना उत्तम―बोधिदुर्लभ भावना में बोधि की प्राप्ति कितनी कठिन है, यह बताया जा रहा है। यह जीव अनादि काल से तो निगोद में रहा आया। निगोद जीव वनस्पति के भेदों में से हैं। वनस्पति के दो भेद होते हैं, एक साधारण वनस्पति, एक प्रत्येक वनस्पति। साधारण वनस्पति का नाम निगोद है। साधारण वनस्पति में भी दो भेद हैं―एक बादर साधारण वनस्पति, एक सूक्ष्म साधारण वनस्पति, जिन्हें बादर निगोद और सूक्ष्मनिगोद कहते हैं। इन निगोद में एक श्वास में 18 बार जन्म-मरण का क्लेश सहना पड़ता है। ऐसा सबसे अधिक दुर्गति का स्थान यह निगोद है। इस निगोद से यह जीव निकला तो अन्य स्थावरों में उत्पन्न हुआ―पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और प्रत्येक वनस्पति। यह निगोद की अपेक्षा कुछ अच्छी स्थिति है, किंतु हैं ये सब स्थावर। इन स्थावरों में भी यह जीव असंख्यात काल तक भ्रमण करता रहता है।
स्थावरत्व से विकलत्रयपने की उत्कृष्टता―किसी भी कर्म से कुछ पुण्य कर्म का उदय हो तो स्थावर काय से निकलकर त्रस गति को प्राप्त करता है। त्रसों में 4 प्रकार हैं―दो इंद्रिय, तीन इंद्रिय, चारइंद्रिय और पंचइंद्रिय। इनमें सबसे हीन दर्जे के हैं दो इंद्रिय, जिनके स्पर्शन और रसना इन दो इंद्रियों का विकास हुआ हो वे दो इंद्रिय जीव कहलाते हैं। स्थावरों में केवल स्पर्शन इंद्रिय का ज्ञान था और स्पर्शन इंद्रिय से उत्पन्न सुख का लाभ था। अब दो इंद्रिय होने पर स्पर्शन इंद्रियजंय ज्ञान हुआ और रसना इंद्रियजंय भी ज्ञान हुआ। अब इसको रस का भी ज्ञान होने लगा, तीन इंद्रिय जीव हुआ तो स्पर्शन, रसना और घ्राण इन तीन इंद्रियों से ज्ञान उत्पन्न होने लगा। अब यह जीव सुगंध दुर्गंध का भी ज्ञान करने लगा। तीन इंद्रिय के बाद चतुरिंद्रिय जीव हुआ। तो ये स्पर्शन, रसना, घ्राण और चक्षु इन चार इंद्रिय के निमित्त से ज्ञान और सुख होने लगा। यहाँ तक यह जीव विकलत्रय कहलाता है। यह जीव निगोद । यह जीव निगोद से निकला अन्य स्थावरों में हुआ, वहाँ से निकला दो इंद्रिय हुआ, फिर तीन इंद्रिय फिर चार इंद्रिय हुआ, ये सब उत्तरोत्तर दुर्लभ दशायें हैं अनंतानंत जीव तो अब भी निगोद में पड़े हुए हैं। कम से कम इतना तो निर्णय हो ही गया है कि हम निगोद राशि से निकल आये, व्यवहार राशि में आ गए और उसमें भी आत विकलत्रयों से भी निकलकर पंचेंद्रिय हो गए, लेकिन एक नियमित दृष्टि नहीं कर सकते, कल्पनावश दु:ख हुआ करते हैं, हाय में कुछ भी अच्छी स्थिति नहीं है, न अधिक धन है न अधिक परिवार है, न आज्ञाकारी गोष्ठी है, न जाने कितनी कल्पना करके दु:खी होते हैं। जरा इस ओर दृष्टि तो दो कि अनंतानंत जीवों से हम कितनी अच्छी स्थिति में है, बस संसार का यही चक्र है, अच्छी स्थिति में आने पर भी अपनी अच्छी स्थिति से लाभ नहीं उठाना चाहते। उसही विषयवासना के संस्कारों को दृढ़ कर करके ऐसे अमूल्य अवसर को भी खो देते हैं। यह जीव निगोदराशि से निकलकर यहाँ चतुरिंद्रिय तक में उत्पन्न हुआ, ऐसी दुर्लभ दशाओं का उत्तरोत्तर वर्णन किया है।