वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 591
From जैनकोष
सप्रपंचं प्रवक्ष्यामि ज्ञात्वेदं गहनं व्रतम्।
स्वल्पोऽपि न सतां क्लेश: कार्योऽस्यालोक्य विस्तरम्।।
ब्रह्मचर्य की उपास्यता- तीन जगत में ब्रह्मचर्य नाम का व्रत ही प्रशंसा करने के योग्य है, क्योंकि जिन आदमियों ने इस व्रत को निर्मलता और निरतिचारपूर्वक पालन किया है वे बड़े-बड़े पूज्य पुरुषों के द्वारा भी पूजे जाते हैं। ब्रह्मचर्य के पूर्णधाम तो अरहंत भगवान हैं। जहाँ समस्त शील परिपूर्ण हुए हैं उन समृद्धिशाली पुरुषों की पूजा मुनि और गणधर आदिक सभी करते हैं। ब्रह्मचर्य से विवेक बुद्धि स्थिर रहती है, चित्त में बल रहता है, और चूँकि वह एक परमतपश्चरण है, तो ब्रह्मचर्य के प्रताप से कर्मों की निर्जरा चलती रहती है। ब्रह्मचर्यव्रत की पूर्णता तो साधु महाराज के होती है और गृहस्थ पुरुषों के अणुव्रत होता है, इसका नाम स्वदारसंतोष भी है, यह अति आवश्यक है गृहस्थों को कि वे केवल अपनी स्त्री में ही संतोष रक्खें। स्वस्त्री के साथ भी काम की आसक्ति न रखें और परस्त्री के संबंध में तो चित्त रंच भी न डिगे, और अधिकाधिक समय ब्रह्मचर्य में व्यतीत करें।
ब्रह्मचर्य से निजब्रह्मोपलब्धि- ब्रह्मचर्य की साधना इस ब्रह्म प्रभु को प्रसन्न करने के लिए है। जो ब्रह्म में लीन होने का यत्न करते हैं उन्हें परमात्मा से भेंट होती है। विषयकषायों में फंसने वाले महापुरुषों के प्रभु के दर्शन नहीं प्राप्त होते। जो परविषयों में आसक्त रहते हैं उनको केवल क्लेश ही भोगने को मिलते हैं। यह आत्मा ज्ञान और आनंद से भरपूर है। जरा अपने को अकेला निरखो तो सही, शरीर से भी न्यारा ज्ञानमात्र मैं हूँ ऐसी बारंबार भावना तो कीजिए। इस निज भावना में अतुल आनंद बसा हुआ है। और इस ही आनंद में यह सामर्थ्य है कि अष्टकर्मों को नष्ट किया जा सकता है। हम अपने पुरुषार्थ पर विश्वास करें, अपने पैरों पर खड़े हों, अपने आपकी दृष्टि का स्वावलंबन पायें तो यह ही संसार में हम आपका शरण है। किसी परवस्तु का मोह केवल दु:ख को ही उत्पन्न करता है।