वर्णीजी-प्रवचन:रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 58
From जैनकोष
चौरप्रयोग चौरार्था दान विलोपसदशसन्मिश्रा: ।
हीनाधिक विनिमानं पंचास्तेये व्यतीपाता: ।। 58 ।।
अचौर्याणुव्रत के पांच अतिचार―जो श्रावक अचौर्यव्रत के धारी हैं वे अपने व्रतों में दोष नहीं आने देते । वे दोष क्या हैं इनका वर्णन इस छंद में किया गया है । दोष व अतिचार एकार्थक हैं । अचौर्याणुव्रत का (1) पहला अतिचार है चौरप्रयोग याने कोई चोरी का उपाय बताना―जैसे इसके पीछे की छत छोटी है, इसके घर में जाने का ऊपर से रास्ता है... आदिक कुछ भी बात कहना देखिये लगता तो ऐसा है कि यह कोई चोरी तो नहीं कर रहा, सिर्फ चोरी करने का थोड़ासा भाव बना है, इसको अनाचार का दोष न लगना चाहिए, सिर्फ अतिचार का दोष लगना चाहिए पर कहते हैं कि भाई यह बात नहीं है । यह बहुत बड़ा दोष है । (2) दूसरा अतिचार है चौरार्थादान―चोरी में कोई वस्तु लाये उसे ग्रहण करना, खरीद लेना, चाहे सही भाव में भी खरीदे फिर भी उसमें चोरी का दोष लग गया । जब वह चोरी का लाया हुआ है तो उसने चोरी के लिए प्रेरणा तो दी। एक ऐसी घटना बहुत प्रसिद्ध है कि एक बालक को बचपन से ही चोरी की आदत बन गई, वह कहीं से एक चाकू चुरा लाया अपनी मां को दिया तो माँ ने उसे शाबासी दी । अब मां की शाबासी मिलने से वह बालक स्वच्छंद बन गया और धीरे-धीरे बढ़-बढ़कर वह बहुत बड़ा डाकू बन गया । आखिर पुलिस के द्वारा पकड़ा गया और फांसी का आर्डर हुआ ।
उस समय उससे पूछा गया कि इस मौके पर तुम क्या चाहते हो? तो उसने कहा कि मैं अपनी मां को देखना चाहता हूँ । अब उस प्रसंग में जब उसकी मां उससे मिलने आयी तो उसने एक चाकू लेकर उस मां की नाक काट डाला । लोगों ने पूछा कि ऐसा तुमने क्यों किया? तो उसने बताया कि आज जो मेरी यह हालत हुई कि फांसी पर लटक रहा हूँ उसमें कारण मेरी यह मां है । मैने जब इसे शुरू-शुरु में चाकू चुराकर दिया था तो इसने मुझे शाबासी दी थी । उससे मेरा हौसला बढ़ता गया और आज इस स्थिति को प्राप्त हुआ । तो चोरी का माल रखना यह अतिचार है, बड़ा दोष है । अचौर्याणुव्रत का तीसरा अतिचार है ब्लेक करना, राजाज्ञा का उल्लंघन करना, न्याय छोड़कर अन्य रीति से वस्तु को ग्रहण करना, राजा ने जिसका निषेध किया हो उस चीज को ग्रहण करना यह अतिचार है । (4) चौथा अतिचार है सदृशसन्मिश्र जिसके कहते हैं मिलावट । चीजों में मेल मिलावट करना, जैसे कि एक असली तेल में अनेक नकली तेल मिलाकर बेचना, यह अतिचार है । (5) पांचवां अतिचार है हीनाधिकविनिमान याने छोटे बड़े बांट तराजू रखना । माल खरीदते समय तो अधिक तोल वाले बांट का प्रयोग करना और बेचते समय कम तोल वाले बांट का प्रयोग करना । तो देखिये इसमें बहुत बड़ा दोष है, पर चूंकि थोड़ा यह भाव रख रहा कि मैं स्पष्ट चोरी न कर रहा इस कारण इसका नाम अतिचार रखा गया है ।
अचौर्यव्रतपालन की पूरक पांच भावनाओं में शून्यागारावास व विमोचितावास नाम की प्रथम व द्वितीय भावना―गृहस्थ के 5 अणुव्रतों में अचौर्याणुव्रत का प्रसंग चल रहा है । अचौर्याणुव्रत का पूर्णतया पालन हो, इसके लिए 5 भावनायें हैं । ये भावनायें मुनिजन भी भाते है और गृहस्थ भी भाते हैं । (1) पहली भावना है शून्यागार―ऐसी भावना होना कि मैं सूने घर में रहूं । भरा पूरा घर है, अनेक धन वैभव है तो कहीं चित्त न चल जाय । यद्यपि गृहस्थ गृहस्थी में है मगर भावना तो मुनि की है, जिस गृहस्थ के चित्त में मुनिव्रत की भावना नहीं है उसे श्रावक न कहा जायगा, चाहे वह कभी मुनि हो नहीं, जो ऊंचे पद हैं मुनि अर्जिका वगैरह के, वे चाहे जीवन में इस पद में न आयें, मगर उसकी चाह और भावना होती ही है कि मैं कब इस संग के जाल से छूटकर ऐसा अकेला रहूं और स्वानुभव के लिए खूब प्रयत्न करूं, स्वानुभव में रहूं । उस ही की धुन रहे, यह भावना जिसके है वह गृहस्थ सद्गृहस्थ है तब ही तो श्रावक का दूसरा नाम है उपासक । सभी गृहस्थ उपासक कहलाते है । उपासक का अर्थ है―जो मुनिव्रत की, जो आत्मानुभूति की उपासना करते हैं वे उपासक कहलाते हैं । तो सूने घर में रहना यह भावना है अचौर्यव्रत की, क्योंकि सूने घर में निवास होगा, कोई वस्तु ही न होगी, आश्रयभूत कारण ही न मिलेगा तो परिणाम गंदे न होंगे चोरी करने के परिणाम न होंगे । (2) दूसरी भावना है विमोचितावास । जो घर किसी ने छोड़ दिया हो, छूटा घर, जहाँ से सब चीजें निकालकर गृहस्थ दूसरे नगर में भाग गए ऐसे विमोचिता घर में रहना । ठंड के दिन, बरसात के दिन, आखिर किसी स्थान में रहता ही तो है मुनि । तो उनकी भावना है कि ऐसे स्थान में रहूं जहाँ विकार का आश्रयभूत कारण ही न रहे ।
अचौर्यव्रत पालन की पूरक परोपरोधाकरण नाम की तृतीय भावना―तीसरी भावना है परोपरोधाकरण । दूसरों को ठहरने से रोकना नहीं । जहाँ कोई मुनिराज विराजे है उनको यह अधिकार नहीं है कि वे किसी दूसरे को ठहरने से रोकें । आप यहाँ न रहिये । वे पूछ सकते है कि आप यहाँ रहने को हमें क्यों मना करते? वे तो यही समझेंगे कि इसके पास कोई धन दौलत परिग्रह होगा या इसमें कोई कपट की बात होगी तभी तो यह दूसरे को ठहरने से रोकता? जिसके पास कुछ भी परिग्रह न होगा वह क्यों रोकेगा? इसलिए यहाँ बताया है कि दूसरों को ठहरने से रोकना नहीं । गृहस्थ यों पायगा कि आखिर मुनिव्रत पाये बिना आत्मा का गुजारा तो होगा नहीं, यह बिल्कुल निश्चित बात है । इस भव में न सही, किसी भव में हों, निर्ग्रंथ दिगंबर सबका विकल्प तजकर केवल सहज चैतन्य स्वरूप आत्मा की धुन बने तो मुक्ति का मार्ग बढ़ेगा अन्यथा नहीं । सो यह बात सबको करनी है । और यह भी देख लीजिए कि जब भी भला होगा, मुक्ति होगी तो यह बतलावो अनंतकाल तक आप अकेले ही तो रहेंगे । केवल ज्ञानपुंज शरीर भी नहीं, कर्म भी नहीं, दूसरा कोई जीव भी इसका साथी नहीं । केवल अकेला ज्ञानपुंज रहेगा अनंतकाल तक । तो जिसको अनंतकाल तक पूर्ण अकेला ही रहना है शुद्ध ज्ञानपुंज रूप में, तो यहाँ अकेले रहने में क्यों घबड़ाते? मार्ग तो वही है । यहाँ भी चाहे घर में भरे पूरे में रह रहे हैं, पर अपने को अकेला ही निरखियेगा । मैं आत्मा ज्ञानमूर्ति केवल अपने में ही हूँ । वस्तुत्वगुण क्या कहता है? अपने ही स्वरूप से सत् होना, पररूप से असत् होना यह प्रत्येक पदार्थ में धर्म है । मैं अपने स्वरूपमात्र हूँ । दूसरा मेरा कुछ नहीं है, ऐसे अपने मुक्त आत्मस्वरूप में निवास करना, यह कला जिसने पायी है बस महापुरुष, परम पुरुष वही है । ऐसा होने की भावना गृहस्थ के रहती है, तो उस मुनि व्रत में ये भावनायें साकार चलती हैं । किसी दूसरे को ठहरने से रोकना नहीं ।
अचौर्यव्रतपालन की पूरक भैक्ष्यशुद्धिनाम की चतुर्थ भावना―अचौर्य व्रत की चौथी भावना है भैक्ष्यशुद्धि । आहार शुद्ध करना, निर्दोष अंतराय टालकर करना । देखिये―इस भावना का अधिक संबंध मुनि महाराज से है पर अचौर्यव्रत के प्रकरण में क्यों यह कहा जा रहा कि वह श्रावक ही नहीं जो मुनि होने की भावना ही नहीं रखता । न हो सके मुनि जीवन में यह बात अलग है पर गृहस्थों में मुनिव्रत की भावना न हो तो उनके परिणामों में उत्कर्षता नहीं आ सकती । और मुनिव्रत में भैक्ष्यशुद्धि पूर्णतया चलती है । गृहस्थ दशा में यथासंभव होना ही चाहिए । अच्छा इनका अचौर्यव्रत से क्या संबंध है? तो देखिये―मुनि महाराज भिक्षा भोजन ले रहे है, अंतराय कोई आ रहा और उसे वे टाल जायें तो बताओ चोरी का दोष है कि नहीं? कोई थोड़ा सा बाल निकल आया और उसे यों ही सरका दे तो बताओ चोरी का दोष है कि नहीं? भैक्ष्यशुद्धि न हो तो उसमें चोरी का दोष लगता है । अच्छा, मुनि महाराज की बात तो ऊंची ही है पर गृहस्थ में भी देखिये जो गृहस्थ राजा सेठ जिस तरह खाया करते है, थाल सजाकर आती है, प्रार्थना की जाती है―महाराज भोजन लीजिए तब भोजन लेते हैं, ऐसी जिनकी वृत्ति है वे यदि घर में रखी हुई चीज भी कहीं से उठाकर खाये तो उठाते समय नियम से जरा ध्यान जरा चोरी जैसा बन जाता, वैसे चीज घर की है और उठाने खाने में कोई दोष की बात नहीं है मगर जिस प्रक्रिया से वह रोज खाया करता है उस प्रक्रिया के खिलाफ कहीं से कुछ उठाकर खाने में चोरी जैसा दिल बन जाता है ।
पदविरुद्ध प्रवृत्ति में चोरी के दोष का एक लौकिक दृष्टांत तथा अचौर्यव्रत की पंचम भावना―एक राजा था सो वह अपने बगीचे में अकेला ही घूमने गया हुआ था घूमते हुए में उसने क्या देखा कि एक बड़ा सुंदर सेब एक पेड़ के नीचे पड़ा था पर गोबर से भिड़ा था । उसे देखकर राजा को लालच आ गया, इधर उधर देखा कि कोई देख तो नहीं रहा, फिर उसे उठाया और रुमाल से पोंछकर खा लिया । अब खा तो लिया पर उसको यह शंका बराबर बनी रहो कि कहीं इस तरह से सेब खाते हुए हमें किसीने देखा तो नहीं । खैर जब वह दरबार में पहुंचा तो वह समय था दो बजे दिन का । उस समय पर प्रतिदिन उस राजदरबार में नृत्यगान हुआ करते थे । वहाँ नर्तकी ने अपना नृत्य गायन करना प्रारंभ कर दिया । 5-7 गीत गाये पर राजा ने उसे कोई इनाम न दिया । एक बार नर्तकी ने यह गीत गाया ‘‘कहि देहौ ललन की बतिया... यह उसकी टेक थी । इस टेक को सुनकर राजा ने यह भ्रम किया किं शायद इस नर्तकी ने हमें बगीचे में सेव खाते हुए देख लिया है तभी तो कह रही इस भरी सभा में कि कहि देहौ ललन की बतिया। सो इस टेक को सुनकर राजा ने अपना एक आभूषण उतार कर दे दिया। उसका प्रयोजन यह था कि यह इस भरी सभा में मेरी बात न कहे, उधर उस नर्तकी ने यह जाना कि राजा साहब को हमारा यह गीत बहुत पसंद आ रहा है सो कई बार वही टेक दुहराया । यहाँ तक कि राजा के पास पहुंचकर 5-7 बार वही गीत गाया―‘‘कहि देहौ ललन की बतिया... राजा ने अपने 5-7 गहने जो पहन रखा था सब उतारकर दे दिया, नर्तकी फिर भी वही टेक दुहरावे यह समझकर कि राजा साहब को हमारे इस गीत की टेक ही बहुत पसंद आयी हैं उधर राजा का गहने उतार कर देने का प्रयोजन यही था इस भरी सभा में यह नर्तकी मेरी सेव खाने वाली बात न बोले । आखिर जब वह नर्तकी फिर भी वही टेक गाने लगी तो राजा को उस पर रोष जगा और बोल उठा―अरे कह दे जो कहना हो, तेरे कहने से नहीं डरते । अधिक से अधिक यही तो कहेगी कि राजा साहब ने बगीचे में गोबर से भरा सेब उठाकर खाया था । लो राजा की चोरी की बात प्रकट हो गई । तो यहाँ चोरी की बात कह रहे । जिसकी जो विधि है उस विधि से न खाये, उस विधि का उल्लंघन करे तो इसमें चोरी का दोष लगता है । अचौर्यव्रत की पांचवीं भावना है साधर्मीजनों से विसम्वाद न करना । जिन्हें अचौर्यव्रत का पूर्णरूपेण पालन करना है उनकी यह भावना होती है कि साधर्मीजनों के साथ हमारा विसम्वाद न बने । विसम्वाद से चोरी का संबंध बन जाता है ।
कुतप के फल में प्राप्त क्षणिक चोरी के लाभ से हानियां―चोरी के पाप में बड़ा दोष आता है यह जन्म भी बुरा बनता है और भविष्य भी बुरा होता है । चोरी करने वाले का कोई विश्वास नहीं करता । पुत्र, पिता, सगा मित्र, राजा आदि कोई भी पास में बैठने नहीं देते । और जिसको चोरी की आदत हो जाती उसके हिंसा का परिणाम बन जाता है । अवसर पाये तो जान से मार दे, चाकू मार दे । उसके चित्त में किसी प्रकार का धर्म नहीं रहता । और यहाँ लोग पीटें, राजा दंड दे, अनेक प्रकार के यहाँ कष्ट सहने पड़ते, जेलखाना हो और मर जाय तो नारकादिक गतियों में जन्म होता । देखिये जो लोग भिखारी है अत्यंत दरिद्र हैं, दुःखी हैं अथवा समझिये ऐसा ही कोई पाप किया या चोरी जैसा, दूसरे का धन हड़प करना, सो उस पाप के फल में ऐसी दुर्गति मिलती है । और जो धन हरण किया था, चोरी में जो खूब धन मिल जाता है, क्योंकि कमाना तो कुछ पड़ता नहीं, बस गए और डाका डाल लिया, अथवा चोरी की, लाखों का माल लूटा तो आप यह कह सकते कि पुण्य के बिना तो धन नहीं मिलता, तो बताओ उस चोर के भी पुण्य का उदय है क्या? हां है तो उदय पुण्य का, जो उसने चाहा सो समागम मिला मगर वह कुतप वाला पुण्याश्रव है । पूर्व भव में खोटी तपस्या की तो उन कुतपों के फल में पुण्य तो, थोड़ा आया मगर इस रूप में आया कि चोरी डकैती आदिक के द्वारा प्राप्त हुआ जिसके फल में उसे उसी जन्म में कष्ट भोगना पड़े और मरकर दरिद्री होना पड़े ।
परदृष्टि हटाकर निज सहज अंतस्तत्त्व का आदर करने का अनुरोध―हे आत्मन् भीतरी अपने स्वभाव की दृष्टि कीजिए । कहां तो आत्मा का भगवान जैसा स्वरूप । जैसा अरहंत सिद्ध प्रभु का आत्मा है ज्ञानमय सहज आनंदमय, अपनी सत्तामात्र वही स्वरूप तो हमारा आपका सबका है । इस स्वरूप का आदर करना चाहिए जिसमें सर्व ऋद्धियां भरी पड़ी हुई है । सर्व अर्थ जिसमें सिद्ध होते हैं उस सहज परमात्मा भगवान की उपासना को छोड़कर बाह्य पौद्गलिक ढेरों में चोरी जैसा परिणाम करे कोई तो यह उसके बड़ा पाप का उदय है । और फिर रहना तो कुछ नहीं है पास, सब छूट जाता है, छूटेगा, अब भी छूटा हुआ ही है । कल्पना से मान रखा कि मेरा है तो ऐसे अत्यंत भिन्न पदार्थों से उसके संग्रह में चोरी मायाचार आदिक जो पाप बनाया तो क्यों बनाये जाते हैं । ज्ञानी पुरुष में इतनी दृढ़ता रहती है कि यह लक्ष्मी आना हो जाय, जाना हो जाय, उसके बिना मेरी कुछ अटकी नहीं है, क्योंकि मुझ में यह कला है कि जो भी स्थिति आयगी उसी में हम अपनी व्यवस्था बना लेंगे, पर आत्मधर्म को, स्वभावदृष्टि को, धर्मपालन को मैं कभी न छोड़ सकूँगा । ऐसा स्वभावदृष्टि करने वाले सद्गृहस्थ के अचौर्याणुव्रत का पालन होता है ।