वर्णीजी-प्रवचन:रयणसार - गाथा 147
From जैनकोष
मिहिरो महंधयार मरूदो मेहं महावणं दाहो।
वज्जो गिरिं जहा विणसिज्जइ सम्मं तहा कम्मं।।147।।
सम्यक्त्व भाव इस जीव का सर्वस्व शरण है। जीव का घन सम्यक्त्व है। जीव को चाहिए क्या? शांति। शांति है आत्मा के निज का भाव जो बात जहाँ नहीं हो सकती। बालू में तैल नहीं है तो बालू को कितना ही पेला जाय वहाँ से तैल निकलना असंभव है। अगर आत्मा में शांति का स्वभाव न होता तो यहाँ शांति का प्रकट होना संभव ही नहीं। यह शांति इस चेतन का धर्म है। किसी बाहरी पदार्थ से शांति निकलकर आयी हो ऐसा नहीं है। सो जैसे सम्यक्त्व भाव होता है वैसे ही इसके कर्म दूर होने लगते हैं। कर्म में और जीवभाव में निमित्त नैमित्तिक योग है। जैसे पुद्गल में खूब दृष्टगत होता है निमित्त नैमित्तिक योग। गैस में हवा भर दी जाय तो वह गैस अच्छी जलती है और उससे हवा निकल जाय तो वह बुझ जाती है। क्या है वहाँ? निमित्त नैमित्तिक योग। अग्नि ठीक जलती है तो उस पर रोटी अच्छी सिकती है और अगर अग्नि ठीक-ठीक नहीं जलती तो रोटी यों ही कच्ची धरी रह जाती है। तो यह क्या है? निमित्त नैमित्तिक योग। तो ऐसे ही जीवभाव में और कर्म का निमित्त नैमित्तिक योग है। जीव का भावों का स्नेह लगा तो कर्मबंध होता है। और अपने स्वभाव में रुचि रखे तो कर्मबंध नहीं होता। खुद की कला, खुद की कुशलता, खुद में बनी हुई है, मगर यह जीव मोह मुग्ध होने के कारण उसका प्रयोग नहीं जानता। इस जीव का सर्वस्व है सम्यग्दर्शन। सम्यक्त्व की अतुल महिमा―कोई कहे कि इस सम्यग्दर्शन की कितनी महिमा है। क्या इस देश के राजा महाराजा बराबर महिमा है? अरे तीनों लोक का सारा पुद्गल का ढेर सामने आ जाय तो भी इस सम्यग्दर्शन की बात को रंच भी नहीं पा सकता है कोई। धरा क्या है किसी बाहरी पदार्थ में? बाह्य पदार्थों का संग प्रसंग यह जीव के लिए अशुभ मार्ग का रास्ता है। वहाँ लगाव इस जीव का अहित है। स्वरूप कहाँ है? खुद का खुद में लगाव कौन करेगा? खुद ही। इसकी विधि कौन बतायगा? खुद ही। संतोष भी खुद ही पायगा। कैसा यह स्वाधीन विहार है अपने आप में कि जिसमें किसी पर पदार्थ द्वारा कुछ बाधा ही संभव नहीं है। यदि अपने स्वभाव की रुचि में दृढ़ रहे तो बाह्य पदार्थ तो अपने आप में अपना ही परिणमन करके रह जाते हैं। उनकी मुझ में कोई दखल नहीं है। ये सब बातें सम्यक्त्व के प्रकाश से आती हैं। तो सम्यक्त्व के समान इस जीव का कोई भी मित्र नहीं है, गुरु नहीं देव नहीं, सम्यक्त्व ही इसका सर्वस्व है। ये बाह्य विषय पंचेंद्रिय के विषयभूत पदार्थ इनका लगाव लोग शांति के लिए ही तो करते हैं, मगर जैसे वेदनीय का उदय शहद (मधु) लपेटी तलवार चाटने के समान बताया है ऐसे ही समस्त इंद्रिय का संग प्रसंग मधु से लिप्त तलवार की धार चाटने की तरह है। जैसे कि पुरुष को मधु का स्वाद छोड़ा नहीं जा पाता, चाटता रहता तो उसका परिणाम यह होता कि उसकी जीभ कट जाती है, ऐसे ही यह मोही जीव इन बाहरी पदार्थों से इष्ट अनिष्ट की कल्पना करके इष्ट पदार्थ को ग्रहण करता है, सो वह लगाव, वह विभाव इस आत्मा का घात करने वाला है। पर सम्यक्त्वहीन मोही पुरुष इस तथ्य को नहीं समझ पाते। सूर्य प्रकाश द्वारा महांधकार प्रक्षय की तरह एवं वायु द्वारा मेघ विलय की तरह सम्यक्त्व भाव द्वारा―सम्यक्त्व होने पर कर्म का ऐसा विनाश होता है जैसे सूर्य के प्रकट होने पर महान अंधकार का विनाश होता है। जैसे सूर्य का प्रकाश है उदय है, सक्षमता है, वहाँ अंधकार नहीं ठहर सकता ऐसे ही जहाँ सम्यग्दर्शन है, आत्मा के सहज अविकार स्वभाव का अनुभव हुआ है वहाँ अब मोहांधकार नहीं ठहर सकता। मोह ही एक विडंबना है। महती विपत्ति है। इस जीव पर मोह के सिवाय और कोई भी विपत्ति नहीं है। उस विपत्ति का उस अंधेरे का सूर्यवत यह सम्यक्त्व विनाश कर डालता है। जैसे तेज वायु मेघों को उड़ाकर हटा देती है ऐसे ही यह सम्यग्दर्शन इन कर्म वर्गणाओं को छिन्न भिन्न करके हटा देता है। खुद-खुद में खुद को खुद की प्रतिभास कला से जाने देखे, यहाँ रम जाय इतना ही तो कर्तव्य है जो बात इस जगह से सरल सस्ती नजर आती है। वह तो है कठिन और महंगी और जो अपने आप की बात, धर्म की बात, कठिन, महंगी, असंभव सी दिखती है वह है अत्यंत सुगम स्वाधीन। पर ज्ञान नेत्र पर से यह रंग बिरंगा मिथ्यात्व का चश्मा तो हटे, फिर स्पष्ट अपना अहित नजर आयगा। अग्नि द्वारा महावनदाह की तरह सम्यक्त्वभाव द्वारा कर्म विनाश―सम्यग्दर्शन होते ही यह विकार यह लगाव यह मोहांधकार ये सब हट जाया करते हैं जैसे अग्नि बहुत बड़े वन को भी जला देती है। ऐसे ही यह सम्यक्त्व रूप अग्नि इन कर्म ईधनों को भस्म कर देती है। बात कितनी सी जानना है। बाहर के इस फैलाव से तुलना कीजिए। तो इस फैलाव के आगे अपने आप को मध्य केंद्र का परिचय ऐसा लगेगा जैसे बहुत केंद्रित व्याप्य थोड़ी सी ही बात की गई है। अगर इसका प्रताप फैलता है तो इतना महान कि अष्ट कर्मों का विध्वंस होता है लोकालोक का ज्ञाता बनता है। जैसे महावन के सामने अग्नि का जरा सा भी कण ऐसा लगता है कि जैसे क्या दम है, क्या चीज है उस अग्नि के कण में मगर वह अग्नि का कण कहीं कूड़े में ठीक फिट बैठ जाय तो उसका प्रसार इतना बड़ा होता है कि वह महावन भी जलकर खाक हो जाता है। ऐसे ही यह सम्यक्त्व है। अपने जीवन में एक यह दृढ़ निर्णय करके तो रहे कि मेरा हित, मेरा मित्र, मेरा सर्वस्व यह सम्यक्त्व भाव है। रंच भी शंका न रहे इस बात में तो उसका उद्धार होगा। घर के कुटुंब के अथवा मित्र संघ के किसी भी पुरुष को देखकर रंच भी यह भाव से विघटे कि मेरा तो मात्र उस ही अंतस्तत्त्व की प्रसिद्धि है। शरीर लगा है। घर में रहते हैं। कार्य सब करने होते हैं तो यह लोक व्यवहार है या शब्द विराग होने पर भी बोलना चाहिए, बोलना पड़ता है, लेकिन अंतरंग में यह श्रद्धा हो कि मेरा तो मात्र मेरा यह ज्ञान स्वभाव ही शरण है, सर्वस्व है। मेरा स्वरूप मुझ पर अप्रसन्न न रहे, मेरा स्वरूप मुझ पर प्रसन्न रहे फिर मेरे को कोई चिंता नहीं। मेरा स्वरूप प्रसन्न रहे के मायने मेरे उपयोग में मेरा यह ज्ञान स्वरूप सहज अविकार जैसा स्वयं है। वहाँ विराजा रहे। तो यह सम्यक्त्व भाव, जैसे अग्नि महान बन को जला देती है। ऐसे ही यह भाव इस कर्मवन को विनष्ट कर देता है। बज्र द्वारा पर्वतों के भेदन की तरह सम्यक्त्व भाव द्वारा कर्मों का विनाश―जैसे बज्र पर्वत का भेदन कर देता है, प्रसिद्धि ऐसी है कि ऐसा बज्र तो इंद्र इसमें आरूढ़ है और वह बज्र पर्वत का विध्वंस कर देता है ऐसे ही इंद्र के आयुध इंद्र के पास रहने दो, यहीं देख लो, कैसा प्रयोग है हथियार है कि पर्वत को पत्ते की तरह उड़ा देते हैं। तो होती है कोई पर्वत विनाशक चीजें वे ही पर्वत के लिए बज्र हैं, जैसे बज्र महान पर्वत को भी पत्ते की तरह बिखरा देता है ऐसे ही यह सम्यक्त्व भाव अनादि काल की परंपरा से चले आये हुए इन कर्मों को विनष्ट कर देता है। कर्मों को पर्वत बताया गया है। भेत्तारं कर्मभूभृतां याने कर्म पहाड़ के भेदने वाला है। जहाँ द्रव्य कर्म भिदे, भाव कर्म भिदे वहाँ निर्मलता बढ़ती ही जाती है, सो आत्मा का द्रव्य कर्म के भेदने पर तो अधिकार है नहीं, क्योंकि जीव भिन्न द्रव्य है, कर्म भिन्न द्रव्य है, एक द्रव्य का दूसरे पर अधिकार नहीं, मगर यह अपने भाव कर्म को तो भेद सकता है और भेदना क्या? किसके द्वारा भेदना? प्रज्ञा द्वारा, भेद विज्ञान द्वारा। भेद विज्ञान से इन विकारों को स्वभाव से भिन्न जाना तो उस ही ज्ञान से जिस ज्ञान की कला भेद विज्ञान है उस ही ज्ञान से भिन्न किए गए आत्मस्वरूप का ग्रहण किया जाता है। तो इस आत्मस्वरूप के उपादान की विधि से ये भावकर्म नष्ट हो जाते हैं। भावकर्म के विघटते ही इन द्रव्य कर्मों में भी आफत आ जाती है। ये भी तितर बितर होकर अंत में नष्ट हो जाते हैं। तो इन सर्व कर्मों का विनाश करने वाला मौलिक भाव यह सम्यक्त्व भाव है। इन कर्माधीन प्राणियों को सम्यक्त्व लाभ का हर संभव उपायों से यत्न करना चाहिए।