वर्णीजी-प्रवचन:रयणसार - गाथा 150
From जैनकोष
धम्मज्झाणब्भासं करेइ तिविहेण भावसुद्धेण।
परमप्पझाणं चेतो तेणेव खवेइ कम्माणि।।150।।
धर्मध्यानाभ्यास की महिमा―जब कोई साधक भगवान आत्मा का सेवक मन, वचन, काय से आत्मा की दृष्टि से धर्म ध्यान का अभ्यास करता है तो उस ही ये परमात्मा का ध्यान चित्त में रहता है। और ऐसा अनुभवन कर्मों का क्षय करता है। यह प्रथा तो बहुत चलाया कैसी कि आठ कर्म दुष्ट हैं वैरी हैं इनका क्षय कीजिये। दुष्ट प्रकृति के लोगों ने साधु का रूप रख लिया यद्यपि ये निमित्त दृष्टि से भक्ति हैं मगर तत्त्व का श्रद्धान नहीं है तो ऐसा कुछ कार्य नहीं बनता कर्मों का क्षय कर्मों का नाम लेने से न होगा। किसी को कर्म समझ कर उन पर नाराज होकर कर्म का क्षय न होगा। कर्म की तो बात ही न करनी चाहिए। जान लिया कि कर्मोंदय हमारे विकार भाव का कारण है। किंतु कर्म के ऊपर दृष्टि चाहे हटाने के लिए ही जाए चाहे लगाने लिए ही जाए कर्म का आश्रयभूत बनाने से कर्म का क्षय नहीं होता। जैसे लोक व्यवहार में कोई बड़ा कठोर दुश्मन है तो उस दुश्मन से प्रेम का व्यवहार करने से भी काम नहीं बनता जो सज्जन हैं विवेकी हैं वे उपेक्षा करते हैं और उससे स्वयं रास्ता निकलता है फिर तो यह परमार्थ मार्ग की बात का प्रसंग है। कर्म का नाम लेकर कर्म को चित्त में बसा कर कर्म में हम हानि नहीं कर सकते किंतु कर्म क्षय का उपाय है आत्मा का जो सहज ज्ञान स्वरूप है उस ही रूप में अपना अनुभव बने। बस भली मार करतार की दिल के दिया उतार। अपने चित्त से समस्त बाह्य पदार्थों को उतार दीजिए। इन कर्मों की उपेक्षा कर दीजिए और अपने आपके स्वभाव में आइये। अपने अंदर बैठिये स्वयं रास्ता मिलता है। कर्मों का क्षय होता है तो कर्म क्षय का उपाय अपने आप की साधना है कर्म को बुरी निगाह से निरखना या दूसरों से फरियाद करना कि मेरे कर्म हटा दें मिटा दें या उन अष्ट कर्मों के ध्वंस करने के लिए मैं खूब धूप खेता हूँ किलो भर धूप खे डाला या कुछ भी उपाय कर डाले। भले ही उनमें मंद कषाय है कि शुभोपयोग बनेगा पुण्यबंध का हेतु बनेगा मगर किसी भी पर और परभाव की दृष्टि कर्म के क्षय का कारण नहीं होता सो जब साधक मन वचन काय को शुद्ध करके धर्म ध्यान का अभ्यास करता शुद्ध आत्मा के ध्यान में तो उस ही ध्यान से उस ही श्रेष्ठ ध्यान में मग्न होकर कर्मों का क्षय कर देता है। आत्मा क्षय नहीं करता कर्म का किंतु आत्मा अपने स्वभाव में आये तो कर्म अपने आप विलीन हो जाते हैं। शुद्धज्ञान मात्र अंतस्तत्त्व के अभेद ध्यान के प्रताप से कर्म प्रक्षय―जो पुरुष मन से वचन से काय से भावों की विशुद्धि से धर्मध्यान का अभ्यास करता है सो इस ही उपाय से वह ध्यान में लगा हुआ पुरुष कर्मों का विनाश करता है धर्मध्यान अभ्यास मायने धर्म के ध्यान का अभ्यास करना धर्म के मायने आत्मा का जो सहज ज्ञानस्वरूप है वह है धर्म। धर्म को दृष्टि में रखना अर्थात् अपने वास्तविक स्वरूप की दृष्टि में लेना सो ऐसा धर्मध्यान का जो मन, वचन, काय और भाव शुद्धि से अभ्यास करता है वह मोक्ष सुख पाता है मन वचन काय से आत्मा के स्वरूप का अभ्यास करना है। मन से तो सही-सही बात विचारना मैं अविकार ज्ञान स्वरूप हूँ ज्ञान ज्योतिमात्र ज्ञानमय पदार्थ हूँ इसको मन से विचार करना यह मन से धर्म ध्यानाभ्यास है और इस ही अंतस्तत्त्व के विषय में वार्ता करना यह है वचन द्वारा धर्म ध्यान का अभ्यास और जब-जब यह भाव बने इस ही परमब्रह्म स्वरूप की वार्ता बने तो उससे मन चलित न होना और शरीर से संतप्त उस तत्त्व की स्वीकृति कर लेना यह सब काय में धर्म ध्यानाभ्यास है। अथवा जिसके चरणों में मौलिक धर्मध्यान का अभ्यास किया जा सकता है जहाँ वह ज्ञान बसा हो वहाँ जाय निवेदन करे सेवा करे तो यह सब काय से धर्मध्यान का अभ्यास है और मूल बात तो भाव विशुद्धि की है ही परिणामों में रागद्वेष भाव न आये किंतु ज्ञाता दृष्टा की स्थिति रखे तो वह भाव की विशुद्धि की है ही परिणामों में रागद्वेष भाव न आये किंतु ज्ञाता दृष्टा की स्थिति रखे तो वह भाव की विशुद्धि कहलाती हैं। सो इस प्रकार जो धर्म ध्यान का अभ्यास करता है उसके उपयोग में परमात्मा का ध्यान रहता है और जिस उपयोग में परमात्मस्वरूप का ध्यान रहता है उसके ही द्वारा यह कर्म का क्षय करता है। यहाँ दो बातें कही गई हैं कर्मों का क्षय होना यह तो कार्य बताया है और आत्मा के स्वरूप का अभ्यास रखना यह उसका कारण बताया है सो यह निमित्त नैमित्तिक योग है और इस ही निमित्त नैमित्तिक योग को उपचार भाषा में बताया गया है, तो इसमें भाव क्या लेना कि कर्म के क्षय पर इसका अधिकार नहीं। कर्म है परवस्तु और पर वस्तु के संचय पर रक्षण पर मेरा अधिकार नहीं। मेरा अधिकार तो अपने भावों को निर्मल रखने पर है सो अपने भावों को निर्मल रखना फिर स्वयं जो हो सो होगा। किस तरह कर्मक्षय होता है जो भी बात बनती है घटना में वह स्वयं हो जायेगी। अपना पौरुष तो यह है कि अविकार सहज ज्ञान ज्योति स्वरूप की दृष्टि करना।