वर्णीजी-प्रवचन:रयणसार - गाथा 49
From जैनकोष
पुव्वट्ठियं खवइ कम्मं पविसुदु णो देइ अहिणवं कम्मं।
इहपरलोयमहप्पं देइ तहा उवसमो भावो।।49।।
अविकार आत्म स्वरूप की आराधना में मोह का प्रक्षय―जब मोहनीय कर्म प्रबल रहता है उस समय की क्या स्थिति होती है, उसका वर्णन इससे पूर्व गाथा में आया था। और, जब मोहनीय का उपशम होता है तब क्या स्थिति होती है यह वर्णन इस गाथा में चलेगा। उपशमभाव, यहाँ उपशम का अर्थ सामान्यतया दूर होने में लिया गया है। कहीं मोह को दबाकर रखना, ऐसे उपशम की यहाँ चर्चा नहीं है। सिद्धांत में कहे गए उपशम की बात यहाँ नहीं कह रहे किंतु नीति में, रूढ़ि में उपशम शब्द कहा जाता है उससे हट जाने को, शांत हो गया, दूर हो गया। तो जिसने मोह का उपशम किया है वह पूर्वबद्ध कर्म का क्षय करता है। कर्म का क्षय जानकर नहीं किया जाता कि यह कर्म है, मुझे इसका विनाश करना चाहिए। ऐसी दृष्टि रखकर जतो चलेगा उसके कर्म नष्ट नहीं होते, और बँधते हैं, क्योंकि मोहकर्म दूर होने का एक ही तंत्र है। कर्म आने का जो द्वार है मोहराग द्वेष जो कि विकार है, उससे विविक्त अपने सहज सत्त्व में जो कुछ है उस रूप अपने को मानने लगना। जैसे लोक में एक बात कही जाती कि ‘‘बड़ी मार करतार की, दिल से दिया उतार’’। घरों में बहुत से लोग होते हैं, उनमें जो मुखिया है उसे अगर घर के किसी की बात नहीं सुहाती, परिजन की बात नहीं सुहाती तो वह उन सबसे मुख मोड़ता है, उनसे प्रीति नहीं दिखाता तो वे लोग अपने को ऐसा अनुभवते हैं कि ‘‘बड़ी मार करतार की, दिल से दिया उतार’’। अपने घर में आये हुए इन कर्मों को भी, कर्म सदा के लिए दूर करना है और यह जंच गया है कि कर्मों का बंधन इस जीव के लिए कष्ट है। तो बड़ी मार करतार की, दिल से दिया उतार। तो उस कर्म पर द्रव्य को उस कर्म पर द्रव्य का निमित्त पाकर होने वाले प्रतिफलन विकार को दिल से उतार दीजिये--वे मेरे नहीं है। मैं उनसे निराला ज्ञानमात्र हूँ, ऐसा अंतर अनुभव जाय तो मोह तड़ातड़ टूटेगा, कर्म की बेड़ियाँ टूट जायेंगी। कर्मोपशमन में यथोचित विशुद्धि की कारणता―भैया करने का काम एक यह ही है कि हम अपने सहज ज्ञानस्वरूप में अपना अनुभव करें, और ऐसा करने के लिए पात्रता चाहिए। वह पात्रता है सदाचार, जिसको दुराचार प्रिय है, जो दुराचार की भावना में रह रहा है उसे इस भगवान आत्मतत्त्व का दर्शन नहीं हो सकता क्योंकि उसका उपयोग, उसकी धुन तो खोटे कार्यों के लिए है। वहाँ मोक्षमार्ग का प्रकाश कैसे आ सकता? इसी कारण यह बताया गया है कि सप्तव्यसन का त्याग कर अष्ट मूलगुणों का पालन करें। कोई सप्त व्यसन को त्यागे हुए हो दिल से कि उन व्यसनों के बाबत भावना ही न जगे तो उसको पवित्रता आती है और यह सम्यक्त्व का पात्र होता है, एक समस्या सामने होती है कि परिणाम शुद्ध बनें तो कर्मों का विनाश हो और कर्मों का विनाश बने तो परिणाम शुद्ध हों। यह तो एक इस तरह की समस्या बन गई कि जैसे जो बिना चाभी के ताला बंद हो जाते उनमें से कोई ताला की चाभी तो रख दी गई टंªक के अंदर और बाहर से ताला मार दिया गया, तो देखिये वहाँ यह समस्या आ गई कि ताला खुले तो चाभी निकले और चाभी निकले तो ताला खुले। ठीक ऐसी ही समस्या यहाँ बन गई कि कर्मों का विनाश हो तो हमारा मोह भी उपशांत हो जाय और मोह अगर उपशांत हो तो कर्मों का विनाश हो। ऐसी स्थिति उसमें भी नहीं बन सकती। न कर्म का नाश बन सकता, न मोह का उपशम। तो क्या ऐसा ही है कि कोई कार्य न बनेगा? ऐसा नहीं है। जिन जीवों को मन मिला है और वे थोड़ा बहुत स्वाध्याय कर सकते हैं, बुद्धि मिली है, ज्ञान भी मिला है तो वे पुरुषार्थ पूर्वक स्वाध्याय ध्यान चर्चा, उसी ओर उमंग दृष्टि यह कार्य बने तो यह कार्य जैसे बनता है तो उसका निमित्त पाकर सम्यक्त्व घातक प्रकृतियों का बल क्षीण होता है। अंतःकरण हो, उनका उपशम हो। तो इस अभ्यास से तो उन प्रकृतियों का बल क्षीण हुआ और इस तरह की धारा बनी रहे तो कर्मों का बल क्षीण हो होकर उपशांत हो जाता है और यह ही उपशांत हुआ कि फिर विशुद्धभाव बन जाता है। तो यहाँ शिक्षा यह लेना है कि अपने को तो पौरुष करना है, आत्मा की बात जानें, आत्मा का ध्यान करें, आत्मा की दृष्टि बनावें, अभ्यास इस अंतस्तत्त्व का बने तो कर्मों का बल क्षीण होता जाता है। अपनी दृष्टि एक ही रहनी चाहिए कि मेरी दृष्टि में मेरा सहज स्वरूप बना रहे कि मैं यह हूँ। आत्मविस्मरण में आकुलता होने की प्राकृतिकता―जो अपने को भूला है वह आकुलित होता है। एक बाबूजी अपनी चीज सामान की व्यवस्था बनाने में बड़े कुशल थे। उनके घर पर ही उनका आफिस था। एक दिन की बात है कि वह अपनी व्यवस्था बना रहे थे, सभी चीजों को ढंग से रखते जाते थे जैसे छाते की जगह छाता, टोपी की जगह टोपी, कोट की जगह कोट, घड़ी की जगह घड़ी, जूतों की जगह जूते, और उस जगह उस चीज का नाम भी लिखते जाते थे। धीरे-धीरे उसी प्रसंग में रात्रि के 1॰ बज गए। थकावट विशेष आ जाने से खाट में लेट गए, तो खाट में लेटते समय खाट के पाये में लिख दिया मैं, याने यहाँ मैं धरा। और सो गए। जब प्रातः काल हुआ और बाबूजी सोकर जगे तो देखने लगे कि मेरी सब व्यवस्था सही है या नहीं। छाते की जगह छाता, ओ॰ एस॰ ड्खीक, दवात की जगह दवात, जूते की जगह जूते, बिल्कुल ठीक, छड़ी की जगह छड़ी, कोट की जगह कोट, टोपी की जगह टोपी, ओ॰ यस॰ बिल्कुल ठीक। और, जब देखा के पलंग की पाटी पर लिखा है ‘मैं’ तो उस मैं को खोजने लगा, यह मैं कहाँ धरा है? लिखा हुआ तो बराबर है। सो वह घबड़ा गया कि और सभी चीजें तो ज्यों की त्यों मिल गई पर यह मैं कहाँ गुम गया। पलंग के छेदों में देखा, नीचे देखा, कहीं चिपका तो नहीं है। पर जब वह ‘मैं’ कहीं न मिला तो बाबूजी बहुत घबड़ाये और अपने पुराने नौकर को पुकारा--अरे मनुआ ओ मनुआ यहाँ आना। मनुआ (आकर) क्या है बाबूजी, क्या हुक्म है? ...अरे देखो कहीं मेरा मैं गुम गया। ....इस तरह की पागलों जैसी गड़बड़ बात सुनकर उस नौकर को हँसी आ गई। बाबूजी (नौकर को हँसते देखकर) अरे यहाँ तो बड़ा गजब हो गया, तुझे हँसने की पड़ी है। वह नौकर पुराना था, अनुभवी था, सब बात समझ गया कि बाबू जी क्यों ऐसा अटपट बोल रहे? तो नौकर बोला―बाबू जी धैर्य धरो, आप थके हुए हैं, आराम से लेट जाइये। आप विश्वास कीजिए, मैं आपका ‘‘मैं’’ अवश्य खोज दूँगा। बाबू जी को उस नौकर पर बड़ा विश्वास तो था ही, सो उसकी बात पर विश्वास करके आराम से खाट पर लेट गया। जब अपने शरीर पर विश्राम से हाथ फेरा तो वह नौकर बोल उठा―अब देख लीजिए बाबू जी, आप स्वयं खाट पर लेटे हैं तो आपका मैं मिल गया ना? तो बाबूजी को उस ‘मैं’ का याद आ गया, अरे इस खाट पर मैं धरा, पड़ा था सो मैं लिखा था, ओ॰ यस॰ मेरा मैं मुझे मिल गया। तो देखिये इस कथानक में बाबूजी की पागलों जैसी बात सुनकर आप लोगों को हँसी आ रही होगी, पर जरा अपने आपके संबंध में विचारों, उन बाबू जी जैसी हालत बन रही है या नहीं। आपका मैं आपसे गुम चुका है तभी तो बाह्य पदार्थों में सुख ढूँढते फिर रहे हैं। सुख का ही तो नाम है मैं, ज्ञान का ही तो नाम है मैं, फिर बाहरी पदार्थों में सुख और ज्ञान क्यों प्रवर्ते? इसका मतलब है कि मेरा मैं मेरी दृष्टि में नहीं है इसलिए यह श्रद्धा बनाये फिर रहे कि मेरे को सुख बाह्य वस्तु से मिलेगा, मेरा ज्ञान कोई दूसरा दे देगा। आत्मोपासना बिना सर्वज्ञता की प्राप्ति की असंभवता―सीखने से ज्ञान कोई कितना बढ़ा लेगा? मान लो कोई 1॰-15 साल पढ़कर बी॰ ए॰, एम॰ ए॰ हो गया तो क्या उसने सब जान लिया? सीखते-सीखते कोई कितना जान सकता है, सो तो बताओ। क्या कोई समस्त विश्व को सीख सीखकर अभ्यास करके, प्रयत्न करके, जान जानकर सारे विश्व को जान लेगा? नहीं जान पायगा। और, कोई एक व्यक्ति जिसको अपने असलियत का पता है और समस्त बाह्य पदार्थों की असारता का परिचय है वह सबसे उपेक्षा करके अपने ही ज्ञानस्वरूप की भावना में लग जाय, नहीं पढ़ा लिखा है वह अधिक, मगर अपनी चीज अपने को दिख जाय, यह तो मन वाले कर सकते हैं। संज्ञी जीव कर सकते हैं। तो ऐसा ही कोई करे कि अपने ही ज्ञान को अपने ही ज्ञानस्वरूप में अपने ही ज्ञान से देखें और उसमें एक तान हो जाय, यह स्थिति अगर बना सके कोई तो उसको होता है केवलज्ञान। केवलज्ञान एक-एक बात सीख-सीख करके नहीं पाया जा सकता, शिक्षा के बल पर कि किसी ने दो पदार्थों को जाना, अब तीन को जान लिया, अब चार को जान लिया, ऐसा एक-एक से बढ़-बढ़कर मैं सारे विश्व को जान लूँ, इस तरह ज्ञान नहीं बढ़ता, किंतु अपने ज्ञानस्वभाव की उपासना के कारण यह ज्ञान अमर्याद एकदम बढ़ जाता है। सहज स्वरूप की आराधना के बल से कर्मनिर्जरण व कर्मसवंर―जिसने अपने इस सहज ज्ञानस्वरूप की आराधना की उसके पूर्वबद्ध कर्म क्षय को प्राप्त होते हैं और नवीन कर्म प्रवेश के लिए नहीं आने पाते। अर्थात् संवर और निर्जरा ये दोनों होते हैं। जैसे नाव में पानी भर गया छेद होने से तो नाविक पहले छेद को बंद करता है, फिर पानी उलीचता है। अगर छेद पहले बंद न करे और पानी उलीचता रहे तो उससे पानी का आना बंद नहीं होता और अगर छिद्र बंद कर दिया जाय और फिर पानी उलीचा जाय तो धीरे-धीरे वह नाव के अंदर आया हुआ सारा पानी खत्म हो जाता है। तो पहला काम है यह कि पहले छिद्र को बंद करें, ताकि नया पानी उसमें न आये। फिर आये हुए उस पानी को फेंक दें तो उसके अंदर का सारा पानी खत्म हो जाता है, ऐसे ही मिथ्यात्व पाप कषाय योग क्रिया, मन, वचन, काय की प्रवृत्तियाँ, ये हैं छिद्र और इन छिद्रों के आश्रय से नवीन कर्मों का आना होता है। अब यदि किसी अज्ञानी को आत्मा का तो निर्णय है नहीं किंतु बाहरी तप बहुत करे तो चूँकि उससे कहीं पाप कर्म खिरते तो नहीं है फिर भी कुछ न कुछ फर्क तो आ ही जाता है। मान लो थोड़े बहुत कर्म खिरे और आ रहे हैं उससे अनंतगुने कर्म तो इससे उसका क्या लाभ? तो पहले कर्मों के आने का द्वार रोका जाय वही कहलाता है संवर और कर्मों को हटाया लाय, यह कहलाती है निर्जरा तो ऐसा यह ज्ञान स्वरूप कर्म की निर्जरा कराता, नवीन कर्मों को नहीं आने देता और इहलोक व परलोक में अपना माहात्म्य प्रकट करता है।