शीलपाहुड गाथा 5
From जैनकोष
आगे ज्ञान का, लिंगग्रहण का तथा तप का अनुक्रम कहते हैं -
णाणं चरित्तहीणं लिंगग्गहणं च दंसणविहूणं ।
संजमहीणो य तवो जइ चरइ णिरत्थयं सव्व ।।५।।
ज्ञानं चारित्रहीनं लिंगग्रहणं च दर्शनविहीनं ।
संयमहीनं च तप: यदि चरति निरर्थकं सर्व् ।।५।।
दर्शन रहित यदि वेष हो चारित्र विरहित ज्ञान हो ।
संयम रहित तप निरर्थक आकास-कुसु समान हो ।।५।।
अर्थ - ज्ञान यदि चारित्ररहित हो तो वह निरर्थक है और लिंग का ग्रहण यदि दर्शनरहित हो तो वह भी निरर्थक है तथा संयमरहित तप भी निरर्थक है इसप्रकार ये आचरण करे तो सब निरर्थक है ।
भावार्थ - हेय उपादेय का ज्ञान तो हो और त्याग ग्रहण न करे तो ज्ञान निष्फल है, यथार्थ श्रद्धान के बिना भेष ले तो वह भी निष्फल है (स्वात्मानुभूति के बल द्वारा) इन्द्रियों को वश में करना, जीवों की दया करना यह संयम है इसके बिना कुछ तप करे तो अहिंसादिक विपर्यय हो तब तप भी निष्फल हो इसप्रकार से इनका आचरण निष्फल होता है ।।५।।