GP:प्रवचनसार - गाथा 312 - तत्त्व-प्रदीपिका - हिंदी
From जैनकोष
'यह आत्मा कौन है (कैसा है) और कैसे प्राप्त किया जाता है' ऐसा प्रश्न किया जाय तो इसका उत्तर (पहले ही) कहा जा चुका है और (यहाँ) पुनः कहते हैं :-
प्रथम तो, आत्मा वास्तव में चैतन्य-सामान्य से व्याप्त अनन्त धर्मों का अधिष्ठाता (स्वामी) एक द्रव्य है, क्योंकि अनन्त धर्मों में व्याप्त होनेवाले जो अनन्त नय हैं उनमें व्याप्त होनेवाला जो एक श्रुतज्ञान-स्वरूप प्रमाण है, उस प्रमाणपूर्वक स्वानुभव से (वह आत्म-द्रव्य) प्रमेय होता है (ज्ञात होता है) ।
- वह आत्मद्रव्य द्रव्यनय से, पटमात्र की भाँति, चिन्मात्र है (आत्मा द्रव्यनय से चैतन्यमात्र है, जैसे वस्त्र वस्त्रमात्र है तदनुसार) ।
- आत्मद्रव्य पर्यायनय से, तंतुमात्र की भाँति, दर्शन-ज्ञानादिमात्र है (अर्थात् आत्मापर्यायनय से दर्शन-ज्ञान-चारित्रादिमात्र है, जैसे वस्त्र तंतुमात्र है ।)
- आत्मद्रव्य अस्तित्वनय से स्वद्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव से अस्तित्ववाला है; --
- लोहमय (स्व-द्रव्य),
- डोरी और धनुष के मध्य में स्थित (स्व-क्षेत्र),
- संधानदशा में रहे हुए (स्व-काल) और
- लक्ष्योन्मुख (स्व-भाव)
- आत्मद्रव्य नास्तित्वनय से पर द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव से नास्तित्ववाला है; -
- अलोहमय,
- डोरी और धनुष के मध्य में नहीं स्थित,
- संधानदशा में न रहे हुए और
- अलक्ष्योन्मुख
- आत्मद्रव्य अस्तित्वनास्तित्वनय से क्रमशः स्व-पर द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव से अस्तित्व-नास्तित्ववाला है;
- लोहमय तथा अलोहमय,
- डोरी और धनुष के मध्य में स्थित तथा डोरी और धनुष के मध्य में नहीं स्थित,
- संधान अवस्था में रहे हुए तथा संधान अवस्था में न रहे हुए और
- लक्ष्योन्मुख तथा अलक्ष्योन्मुख
- आत्मद्रव्य अव्यक्तव्यनय से युगपत् स्व-पर द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव से अवक्तव्य है; --
- लोहमय तथा अलोहमय,
- डोरी और धनुष के मध्य में स्थित तथा डोरी और धनुष के मध्य में नहीं स्थित,
- संधान अवस्था में रहे हुए तथा संधान अवस्था में न रहे हुए और
- लक्ष्योन्मुख तथा अलक्ष्योन्मुख
- आत्मद्रव्य अस्तित्व-अवक्तव्य नय से स्व-द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव से तथा युगपत् स्व-पर द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव से अस्तित्ववाला-अवक्तव्य है;
- (स्वचतुष्टय से) लोहमय, डोरी और धनुष के मध्य में स्थित, संधान अवस्था में रहे हुए और लक्ष्योन्मुख ऐसे तथा
- (युगपत् स्व-पर चतुष्ट से) लोहमय तथा अलोहमय, डोरी और धनुष के मध्य में स्थित तथा डोरी और धनुष के मध्य में नहीं स्थित, संधान अवस्था में रहे हुए तथा संधान अवस्था में न रहे हुए और लक्ष्योन्मुख तथा अलक्ष्योन्मुख
- आत्मद्रव्य नास्तित्व-अवक्तव्यनय से पर-द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव से तथा युगपत् स्व-पर द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव से नास्तित्ववाला-अवक्तव्य है; --
- (पर-चतुष्टय से) अलोहमय, डोरी और धनुष के मध्य में नहीं स्थित, संधान अवस्था में नहिं रहे हुए और अलक्ष्योन्मुख ऐसे तथा
- (युगपत् स्व-पर-चतुष्टय से) लोहमय तथा अलोहमय, डोरी और धनुष के मध्य में स्थित तथा डोरी और धनुष के मध्य में नहीं स्थित, संधान अवस्था में रहे हुए तथा संधान अवस्था में न रहे हुए और लक्ष्योन्मुख तथा अलक्ष्योन्मुख
- आत्मद्रव्य अस्तित्व-नास्तित्व-अवक्तव्यनय से स्व-द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव से, पर-द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव से तथा युगपत् स्व-पर-द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव से अस्तित्ववाला-नास्तित्ववाला-अवक्तव्य है; --
- (स्व-चतुष्टय से) लोहमय, डोरी और धनुष के मध्य में स्थित, संधान अवस्था में रहे हुए और लक्ष्योन्मुख ऐसे,
- (पर-चतुष्टय से) अलोहमय, डोरी और धनुष के मध्य में नहीं स्थित, संधान अवस्था में न रहे हुए और अलक्ष्योन्मुख ऐसे तथा
- (युगपत् स्व-पर-चतुष्टय से) लोहमय तथा अलोहमय, डोरी और धनुष के मध्य में स्थित तथा प्रत्यञ्चा और धनुष के मध्य में नहीं स्थित, संधान अवस्था में रहे हुए तथा संधान अवस्था में न रहे हुए और लक्ष्योन्मुख तथा अलक्ष्योन्मुख
- आत्मद्रव्य विकल्पनय से, बालक, कुमार और वृद्ध ऐसे एक पुरुष की भाँति, सविकल्प है (आत्मा भेदनय से, भेद-सहित है, जैसे कि एक पुरुष बालक, कुमार और वृद्ध ऐसे भेदवाला है ।)
- आत्मद्रव्य अविकल्पनय से, एक पुरुषमात्र की भाँति, अविकल्प है (अभेदनय से आत्मा अभेद है, जैसे कि एक पुरुष बालक, कुमार और वृद्ध ऐसे भेद-रहित एक पुरुषमात्र है ।)
- आत्मद्रव्य नामनय से, नामवाले की भाँति, शब्दब्रह्म को स्पर्श करनेवाला है (आत्मा नामनय से शब्दब्रह्म से कहा जाता है, जैसे कि नामवाला पदार्थ उसके नामरूप शब्द से कहा जाता है ।)
- आत्मद्रव्य स्थापनानय से, मूर्तिपने की भाँति, सर्व पुद्गलों का अवलम्बन करनेवाला है(स्थापनानय से आत्मद्रव्य की पौद्गलिक स्थापना की जा सकती है, मूर्ति की भाँति)
- आत्मद्रव्य द्रव्यनय से बालक, सेठ की भाँति और श्रमण, राजा की भाँति, अनागत और अतीत पर्याय से प्रतिभासित होता है (आत्मा द्रव्यनय से भावी और भूत पर्यायरूप से ख्याल में आता है, जैसे कि बालक सेठपने स्वरूप भावी पर्यायरूप से ख्याल में आता है और मुनि राजास्वरूप भूत-पर्यायरूप से आता है ।)
- आत्मद्रव्य भावनय से, पुरुष के समान प्रवर्तमान स्त्री की भाँति, तत्काल (वर्तमान) की पर्यायरूप से उल्लसित / प्रकाशित / प्रतिभासित होता है (आत्मा भावनय से वर्तमानपर्यायरूप से प्रकाशित होता है, जैसे कि पुरुष के समान प्रवर्तमान स्त्री पुरुषत्वरूप पर्यायरूप से प्रतिभासित होती है ।)
- आत्मद्रव्य सामान्यनय से, हार / माला / कंठी के डोरे की भाँति, व्यापक है, (आत्मा सामान्यनय से सर्व पर्यायों में व्याप्त रहता है, जैसे मोती की माला का डोरा सारे मोतियों में व्याप्त होता है ।)
- आत्मद्रव्य विशेषनय से, उसके एक मोती की भाँति, अव्यापक है (आत्मा विशेषनय से अव्यापक है, जैसे पूर्वोक्त माला का एक मोती सारी माला में अव्यापक है ।)
- आत्मद्रव्य नित्यनय से, नट की भाँति, अवस्थायी है (आत्मा नित्यनय से नित्य / स्थायी है, जैसे राम-रावणरूप अनेक अनित्य स्वांग धारण करता हुआ भी नट तो वह का वही नित्य है ।)
- आत्मद्रव्य अनित्यनय से, राम-रावण की भाँति, अनवस्थायी है (आत्मा अनित्यनय से अनित्य है, जैसे नट के द्वारा धारण किये गये राम-रावणरूप स्वांग अनित्य है ।)
- आत्मद्रव्य सर्वगतनय से, खुली हुई आँख की भाँति, सर्ववर्ती (सब में व्याप्त होनेवाला) है
- आत्मद्रव्य असर्वगतनय से, मींची हुई (बन्द) आँख की भाँति, आत्मवर्ती (अपने में रहनेवाला) है ।
- आत्मद्रव्य शून्यनय से, शून्य (खाली) घर की भाँति, एकाकी (अमिलित) भासित होता है ।
- आत्मद्रव्य अशून्यनय से, लोगों से भरे हुए जहाज की भाँति, मिलित भासित होता है ।
- आत्मद्रव्य ज्ञानज्ञेय-अद्वैतनय से (ज्ञान और ज्ञेय के अद्वैतरूप नय से), महान-ईंधन-समूहरूप परिणत अग्नि की भाँति, एक है ।
- आत्मद्रव्य ज्ञान-ज्ञेय-द्वैतनय से, पर के प्रतिबिंबों से संपृक्त दर्पण की भाँति, अनेक है (आत्मा ज्ञान और ज्ञेय के द्वैतरूपनय से अनेक है, जैसे पर-प्रतिबिम्बों के संगवाला दर्पण अनेकरूप है ।)
- आत्मद्रव्य नियतिनय से नियत-स्वभावरूप भासित होता है, जिसकी उष्णता नियमित (नियत) होती है ऐसी अग्नि की भाँति । (आत्मा नियतिनय से नियत-स्वभाववाला भासित होता है जैसे अग्नि के उष्णता का नियम होने से अग्नि नियत-स्वभाववाली भासित होती है ।)
- आत्मद्रव्य अनियतिनय से अनियत-स्वभावरूप भासित होता है, जिसके उष्णता नियति (नियम) से नियमित नहीं है ऐसे पानी के भाँति । (आत्मा अनियतिनय से अनियत स्वभाववाला भासित होता है, जैसे पानी के (अग्नि के निमित्त से होनेवाली) उष्णता अनियत होने से पानी अनियत स्वभाववाला भासित होता है ।)
- आत्मद्रव्य स्वभावनय से संस्कार को निरर्थक करनेवाला है (आत्मा को स्वभावनय से संस्कार निरुपयोगी है), जिसकी किसी के नोक नहीं निकाली जाती (किन्तु जो स्वभाव से ही नुकीला है) ऐसे पैने काँटे की भाँति ।
- आत्मद्रव्य अस्वभावनय से संस्कार को सार्थक करनेवाला (आत्मा को अस्वभावनय से संस्कार उपयोगी है), जिसकी (स्वभाव से नोक नहीं होती, किन्तु) संस्कार करके लुहार के द्वारा नोक निकाली गई हो ऐसे पैने बाण की भाँति ।
- आत्मद्रव्य कालनय से जिसकी सिद्धि समयपर आधार रखती है ऐसा है, गर्मी के दिनों के अनुसार पकनेवाले आम्रफल की भाँति । (कालनय से आत्मद्रव्य की सिद्धि समय पर आधार रखती है, गर्मी के दिनों के अनुसार पकनेवाले आम की भाँति ।)
- आत्मद्रव्य अकालनय से जिसकी सिद्धि समयपर आधार नहीं रखती ऐसा है, कृत्रिमगर्मी से पकाये गये आम्रफल की भाँति ।
- आत्मद्रव्य पुरुषकारनय से जिसकी सिद्धि यत्नसाध्य है ऐसा है, जिसे पुरुषकार से नींबू का वृक्ष प्राप्त होता है (उगता है) ऐसे पुरुषकारवादी की भाँति । (पुरुषार्थनय से आत्मा की सिद्धि प्रयत्नसे होती है, जैसे किसी पुरुषार्थवादी मनुष्य को पुरुषार्थ से नीबू का वृक्ष प्राप्त होता है ।)
- आत्मद्रव्य दैवनय से जिसकी सिद्धि अयत्नसाध्य है (यत्न बिना होता है) ऐसा है;पुरुषकारवादी द्वारा प्रदत्त नींबू के वृक्ष के भीतर से जिसे (बिना यत्न के, दैव से) माणिक प्राप्त हो जाता है ऐसे दैववादी की भाँति ।
- आत्मद्रव्य ईश्वरनय से परतंत्रता भोगनेवाला है, धाय की दुकान पर दूध पिलाये जानेवाले राहगीर के बालक की भाँति ।
- आत्मद्रव्य अनीश्वरनय से स्वतंत्रता भोगनेवाला है, हिरन को स्वच्छन्दता (स्वतन्त्रता,स्वेच्छा) पूर्वक फाड़कर खा जानेवाले सिंह की भाँति ।
- आत्मद्रव्य गुणीनय से गुणग्राही है, शिक्षक के द्वारा जिसे शिक्षा दी जाती है ऐसे कुमार की भाँति ।
- आत्मद्रव्य अगुणीनय से केवल साक्षी ही है (गुणग्राही नहीं है), जिसे शिक्षक के द्वारा शिक्षा दी जा रही है ऐसे कुमार को देखनेवाले पुरुष (प्रेक्षक) की भाँति ।
- आत्मद्रव्य कर्तृनय से, रंगरेज की भाँति, रागादि परिणाम का कर्ता है (आत्माकर्तानय से रागादिपरिणामों का कर्ता है, जैसे रंगरेज रंगने के कार्य का कर्ता है ।)
- आत्मद्रव्य अकर्तृनय से केवल साक्षी ही है (कर्ता नहीं), अपने कार्य में प्रवृत्त रंगरेज को देखनेवाले पुरुष (प्रेक्षक) की भाँति ।
- आत्मद्रव्य भोक्तृनय से सुख-दुःखादि का भोक्ता है, हितकारी / अहितकारी अन्न को खानेवाले रोगी की भाँति । (आत्मा भोक्तानय से सुख-दुःखादि को भोगता है, जैसे हितकारक या अहितकारक अन्न को खानेवाला रोगी सुख या दुःख को भोगता है ।)
- आत्मद्रव्य अभोक्तृनय से केवल साक्षी ही है, हितकारी / अहितकारी अन्न को खानेवाले रोगी को देखनेवाले वैद्य की भाँति । (आत्मा अभोक्तानय से केवल साक्षी ही है - भोक्ता नहीं; जैसे सुख-दुःख को भोगनेवाले रोगी को देखनेवाला वैद्य वह तो केवल साक्षी ही है । )
- आत्मद्रव्य क्रियानय से अनुष्ठान की प्रधानता से सिद्धि सधे ऐसा है, खम्भे से सिर फूट जाने पर दृष्टि उत्पन्न होकर जिसे निधान प्राप्त हो जाय ऐसे अंध की भाँति । (क्रियानय से आत्मा अनुष्ठान की प्रधानता से सिद्धि हो ऐसा है; जैसे किसी अंध-पुरुष को पत्थर के खम्भे के साथ सिर फोड़ने से सिर के रक्त का विकार दूर होने से आँखे खुल जायें और निधान प्राप्त हो, उस प्रकार ।)
- आत्मद्रव्य ज्ञाननय से विवेक की प्रधानता से सिद्धि सधे ऐसा है; मुट्ठीभर चने देकरचिंतामणि-रत्न खरीदनेवाले घर के कोने में बैठे हुए व्यापारी की भाँति । (ज्ञाननय से आत्मा को विवेक की प्रधानतासे सिद्धि होती है, जैसे घर के कोने में बैठा हुआ व्यापारी मुट्ठीभर चना देकर चिंतामणि-रत्न खरीद लेता है, उस प्रकार । )
- आत्मद्रव्य व्यवहारनय से बंध और मोक्ष में द्वैत का अनुसरण करनेवाला बंधक है, (बंधकरनेवाले) और मोचक (मुक्त करनेवाले) ऐसे अन्य परमाणु के साथ संयुक्त होनेवाले और उससे वियुक्त होनेवाले परमाणु की भाँति । (व्यवहारनय से आत्मा बंध और मोक्ष में, पुद्गल के साथ, द्वैतको प्राप्त होता है, जैसे परमाणु के बंध में वह परमाणु अन्य परमाणु के साथ संयोग को पानेरूप द्वैत को प्राप्त होता है और परमाणु के मोक्ष में वह परमाणु अन्य परमाणु से पृथक् होनेरूप द्वैत को पाता है, उस प्रकार । )
- आत्मद्रव्य निश्चयनय से बंध और मोक्ष में अद्वैत का अनुसरण करनेवाला है, अकेले बध्यमानऔर मुच्यमान ऐसे बंध-मोक्षोचित्त स्निग्धत्व-रूक्षत्व-गुणरूप परिणत परमाणु की भाँति । (निश्चयनय से आत्मा अकेला ही बद्ध और मुक्त होता है, जैसे बंध और मोक्ष के योग्य स्निग्ध या रूक्षत्वगुणरूप परिणमित होता हुआ परमाणु अकेला ही बद्ध और मुक्त होता है, उस प्रकार । )
- आत्मद्रव्य अशुद्धनय से, घट और रामपात्र से विशिष्ट मिट्टी मात्र की भाँति, सोपाधि-स्वभाववाला है ।
- आत्मद्रव्य शुद्धनय से, केवल मिट्टी-मात्र की भाँति, निरुपाधि-स्वभाववाला है ।
((जावदिया वयणवहा तावदिया चेव होंति णयवादा ।
जावदिया णयवादा तावदिया चेव होंति परसमया ॥
परसमयाणं वयणं मिच्छं खलु होदि सव्वहा वयणा ।
जइणाणं पुण वयणं सम्मं खु कहंचि वयणादो ॥गो. क. 894/1073॥))
जितने वचनपंथ हैं उतने वास्तव में नयवाद हैं; और जितने नयवाद हैं उतने ही परसमय (पर मत) हैं । परसमयों (मिथ्यामतियों) का वचन सर्वथा (अपेक्षा बिना) कहा जाने के कारण वास्तव में मिथ्या है; और जैनों का वचन कथंचित् (अपेक्षा सहित) कहा जाता है इसलिये वास्तव में सम्यक् है ।
इसप्रकार इस (उपरोक्त) सूचनानुसार (अर्थात् ४७ नयों में समझाया है उस विधि से)
- एक-एक धर्म में एक-एक नय (व्यापे), इसप्रकार अनन्त-धर्मों में व्यापक अनन्त नयों से निरूपण किया जाय तो, समुद्र के भीतर मिलनेवाले श्वेत-नील गंगा-यमुना के जल-समूह की भाँति, अनन्त-धर्मों को परस्पर अतद्भावमात्र से पृथक् करने में अशक्य होने से, आत्मद्रव्य अमेचक स्वभाववाला, एक धर्म में व्याप्त होनेवाला, एक धर्मी होने से यथोक्त एकान्तात्मक (एक धर्म-स्वरूप) है ।
- परन्तु युगपत् अनन्तधर्मों में व्यापक ऐसे अनन्त नयों में व्याप्त होनेवाला एक श्रुतज्ञान-स्वरूप प्रमाण से निरूपण किया जाय तो, समस्त नदियों के जल-समूह के समवायात्मक (समुदायस्वरूप) एक समुद्र की भाँति, अनन्त धर्मों को वस्तुरूप से पृथक् करना अशक्य होने से आत्मद्रव्य मेचक स्वभाववाला, अनन्त धर्मों में व्याप्त होनेवाला, एक धर्मी होने से यथोक्त अनेकान्तात्मक (अनेक धर्मस्वरूप) है ।
(( (दोहा)
स्याद्वादमय नय प्रमाण से दिखे न कुछ भी अन्य ।
अनंत धर्ममय आत्म में दिखे एक चैतन्य ॥१९॥))
इसप्रकार स्यात्कारश्री (स्यात्काररूपी लक्ष्मी) के निवास के वशीभूत वर्तते नय-समूहों से (जीव) देखें तो भी और प्रमाण से देखें तो भी स्पष्ट अनन्त धर्मोंवाले निज-आत्मद्रव्य को भीतर में शुद्ध-चैतन्यमात्र देखते ही हैं ।
इसप्रकार आत्मद्रव्य कहा गया । अब उसकी प्राप्ति का प्रकार कहा जाता है :-
प्रथम तो, अनादि पौद्गलिक कर्म जिसका निमित्त है ऐसी मोहभावना के (मोह के अनुभव के) प्रभाव से आत्म-परिणति सदा चक्कर खाती है, इसलिये यह आत्मा समुद्र की भाँति अपने में ही क्षुब्ध होता हुआ क्रमशः प्रवर्तमान अनन्त ज्ञप्ति-व्यक्तियों से परिवर्तन को प्राप्त होता है, इसलिये ज्ञप्ति-व्यक्तियों के निमित्तरूप होने से जो ज्ञेयभूत हैं ऐसी बाह्य-पदार्थ-व्यक्तियों के प्रति उसकी मैत्री प्रवर्तती है, इसलिये आत्म-विवेक शिथिल हुआ होने से अत्यन्त बहिर्मुख ऐसा वह पुनः पौद्गलिक कर्म के रचयिता राग-द्वेष द्वैतरूप परिणमित होता है और इसलिये उसके आत्म-प्राप्ति दूर ही है । परन्तु अब जब यही आत्मा प्रचण्ड कर्मकाण्ड द्वारा अखण्ड ज्ञान-कांड को प्रचंड करने से अनादि - पौद्गलिक-कर्मरचित मोह को वध्य-घातक के विभागज्ञान पूर्वक विभक्त करने से (स्वयं) केवल आत्मभावना के (आत्मानुभव के) प्रभाव से परिणति निश्चल की होने से समुद्र की भाँति अपने में ही अति-निष्कंप रहता हुआ एक साथ ही अनन्त ज्ञप्ति-व्यक्तियों में व्याप्त होकर अवकाश के अभाव के कारण सर्वथा विवर्तन (परिवर्तन) को प्राप्त नहीं होता, तब ज्ञप्ति-व्यक्तियों के निमित्तरूप होने से जो ज्ञेयभूत हैं ऐसी बाह्य-पदार्थव्यक्तियों के प्रति उसे वास्तव में मैत्री नहीं प्रवर्तती और इसलिये आत्म-विवेक सुप्रतिष्ठित (सुस्थित) हुआ होने के कारण अत्यन्त अन्तर्मुख हुआ ऐसा यह आत्मा पौद्गलिक कर्मों के रचयिता राग-द्वेष द्वैतरूप परिणति से दूर होता हुआ पूर्व में अनुभव नहीं किये गये अपूर्व ज्ञानानन्द-स्वभावी भगवान् आत्मा को आत्यंतिक रूप से ही प्राप्त करता है । जगत भी ज्ञानानन्दात्मक परमात्मा को अवश्य प्राप्त करो ।
यहाँ श्लोक भी है :-
(( (हरिगीत)
आनन्द अमृतपूर से भरपूर जो बहती हुई ।
अरे केवलज्ञान रूपी नदी में डूबा हुआ ॥
जो इष्ट है स्पष्ट है उल्लसित है निज आतमा ।
स्याद्चिह्नित जिनेन्द्र शासन से उसे पहिचान लो ॥२०॥))
आनन्दामृत के पूर से भरपूर बहती हुई कैवल्य-सरिता में (मुक्तिरूपी नदी में) जो डूबा हुआ है, जगत को देखने में समर्थ ऐसी महासंवेदनरूपी श्री (महाज्ञानरूपी लक्ष्मी) जिसमें मुख्य है, जो उत्तम रत्न-किरण की भाँति स्पष्ट है और जो इष्ट है ऐसे उल्लसित (प्रकाशमान, आनन्दमय) स्वतत्त्व को जन स्यात्कार लक्षण जिनेश शासन के वश से प्राप्त हों । ('स्यात्कार' जिसका चिह्न है ऐसे जिनेन्द्रभगवान के शासन का आश्रय लेकर के प्राप्त करो ।)
(( (हरिगीत)
वाणिगुंफन व्याख्या व्याख्येय सारा जगत है ।
और अमृतचन्द्रसूरि व्याख्याता कहे हैं ॥
इसतरह कह मोह में मत नाचना हे भव्यजन! ।
स्याद् विद्याबल से निज पा निराकुल होकर नचो ॥२१॥))
वास्तव में पुद्गल ही स्वयं शब्दरूप परिणमित होते हैं, आत्मा उन्हें परिणमित नहीं कर सकता, तथा वास्तव में सर्व पदार्थ ही स्वयं ज्ञेयरूप – प्रमेयरूप परिणमित होते हैं, शब्द उन्हें ज्ञेय बना - समझा नहीं सकते इसलिये 'आत्मा सहित विश्व वह व्याख्येय (समझाने योग्य) है, वाणी का गुंथन वह व्याख्या है और अमृतचन्द्रसूरि वे व्याख्याता हैं, इसप्रकार जन मोह से मत नाचो (मत फूलो) (किन्तु) स्याद्वादविद्याबल से विशुद्ध ज्ञान की कला द्वारा इस एक समस्त शाश्वत स्व-तत्त्व को प्राप्त करके आज (जन) अव्याकुलरूप से नाचो (परमानन्दपरिणामरूप परिणत होओ ।)
(( (हरिगीत)
चैतन्य का गुणगान तो उतना ही कम जितना करो ।
थोड़ा-बहुत जो कहा वह सब स्वयं स्वाहा हो गया ॥
निज आत्मा को छोड़कर इस जगत में कुछ अन्य ना ।
इक वही उत्तम तत्त्व है भवि उसी का अनुभव करो ॥२२॥))
इसप्रकार (इस परमागम में) अमन्दरूप से (बलपूर्वक, जोरशोर से) जो थोड़ा-बहुत तत्त्व कहा गया है, वह सब चैतन्य में वास्तव में अग्नि में होमी गई वस्तु के समान (स्वाहा) हो गया है । (अग्नि में होमे गये घी को अग्नि खा जाती है, मानो कुछ होमा ही न गया हो ! इसीप्रकार अनन्त माहात्म्यवन्त चैतन्य का चाहे जितना वर्णन किया जाय तथापि मानो उस समस्त वर्णन को अनन्त महिमावान चैतन्य खा जाता है; चैतन्य की अनन्त महिमा के निकट सारा वर्णन मानो वर्णन ही न हुआ हो इस प्रकार तुच्छता को प्राप्त होता है ।) उस चैतन्य को ही चैतन्य आज प्रबलता / उग्रता से अनुभव करो (अर्थात् उस चित्स्वरूप आत्मा को ही आत्मा आज अत्यन्त अनुभवो ) क्योंकि इस लोक में दूसरा कुछ भी (उत्तम) नहीं है, चैतन्य ही परम (उत्तम) तत्त्व है ।
इस प्रकार (श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेवप्रणीत श्री प्रवचनसार शास्त्र की श्रीमद्-अमृतचन्द्राचार्यदेवविरचित) तत्त्वदीपिका नामक संस्कृत टीका के अनुवाद का हिन्दी रूपान्तर समाप्त हुआ ।