रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 150 - टीका हिंदी: Difference between revisions
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Latest revision as of 21:30, 2 November 2022
'जिनपतिपदपद्मपे्रक्षिणी' इस शब्द में जो पद शब्द है, उसके दो अर्थ हैं -- एक सुबन्त, तिङन्तरूप पद शब्द समूह और दूसरा चरणकमल । वह अर्थ इस प्रकार है- तीर्थङ्करभगवन्त के शब्द रूप कमलों का श्रद्धान करने वाली, अथवा तीर्थङ्कर भगवान् के चरणकमलों का अवलोकन करने वाली अर्थात् उनके प्रति पूर्ण श्रद्धा रखने वाली सम्यग्दर्शनरूपी लक्ष्मी मुझे सुखी करे । जिस प्रकार विषयसुख की भूमि कामिनी कामी पुरुष को सुखी करती है, उसी प्रकार आत्मोत्थसुख की भूमि सम्यग्दर्शनरूपी लक्ष्मी मुझे सुखी करे । जिस प्रकार शुद्धशीला-निर्दोष सदाचारिणी माता अपने निर्दोष पुत्र की रक्षा करती है, किन्तु दुराचारिणी माता नहीं । उसी प्रकार शुद्धशीला / निरतिचार गुणव्रत और शिक्षाव्रत रूप सप्तशील से युक्त सम्यग्दर्शनरूपी लक्ष्मी मेरी रक्षा करे । तथा जिस प्रकार गुणभूषा—शील, अलंकारों आदि से विभूषित कन्या अपने कुल को पवित्र एवं प्रशंसनीय बनाती है, उसी प्रकार गुणभूषा-अष्टांग आदि से युक्त सम्यग्दर्शनरूपी लक्ष्मी मुझे अच्छी तरह पवित्र करे, मुझे कर्मकलंक से रहित करे ।
येनाज्ञानतमो इति- जिन्होंने भव्य जीवों के चित्त में स्थित समस्त अज्ञानरूपी अन्धकार को नष्ट कर दिया है तथा सम्यग्ज्ञानरूपी किरणों के द्वारा समस्त गृहस्थ धर्मरूप मार्ग को प्रकट किया है, जो श्री रत्नत्रयरूप पिटारे को प्रकाशित करने के लिए सूर्य हैं, पक्ष में भाव से कर्ता होने के कारण रत्नकरण्ड नामक ग्रन्थ को प्रकाशित करने के लिए सूर्य हैं । संसाररूपी नदी को सुखाने वाले हैं । समन्तभद्र-कल्याणों से परिपूर्ण मुनियों की रक्षा करने वाले हैं । पक्ष में इस ग्रन्थ के कत्र्ता समन्तभद्रस्वामी के रक्षक हैं । अनन्तचतुष्टयरूप श्री से सहित हैं तथा प्रभा-कान्ति से जो चन्द्रमा हैं, ऐसे जिनेन्द्र देव जयवन्त रहें ।
इस प्रकार प्रभाचन्द्राचार्य द्वारा विरचित, समन्तभद्रस्वामी द्वारा विरचित उपासकाध्ययन की टीका में पञ्चम परिच्छेद सल्लेखना प्रतिमाधिकार पूर्ण हुआ॥ ५॥