अतिप्रसंग: Difference between revisions
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<span class="GRef">पंचाध्यायी / पूर्वार्ध श्लोक 289</span> <p class="SanskritText">ननु चान्यतरेण कृतं किमथ प्रायः प्रयासभारेण। अपि गौरवप्रसंगादनुपदेयाच्च वाग्विलासत्वात्। </p> | |||
<p class="HindiText">= (शंकाकार का कहना है कि) जब अस्ति नास्ति दोनों में से किसी एक से ही काम चल जायेगा तो फिर दोनों को मानकर होनेवाले प्राय प्रयास भार से क्या प्रयोजन है। तथा दोनों को मानने से गौरव प्रसंग आता है अर्थात् एक प्रकार का अतिप्रसंग दोष आता है और वचन का विलास मात्र होने से दोनों का मानना उपादेय नहीं है।</p> | <p class="HindiText">= (शंकाकार का कहना है कि) जब अस्ति नास्ति दोनों में से किसी एक से ही काम चल जायेगा तो फिर दोनों को मानकर होनेवाले प्राय प्रयास भार से क्या प्रयोजन है। तथा दोनों को मानने से गौरव प्रसंग आता है अर्थात् एक प्रकार का अतिप्रसंग दोष आता है और वचन का विलास मात्र होने से दोनों का मानना उपादेय नहीं है।</p> | ||
Latest revision as of 09:46, 10 December 2022
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध श्लोक 289
ननु चान्यतरेण कृतं किमथ प्रायः प्रयासभारेण। अपि गौरवप्रसंगादनुपदेयाच्च वाग्विलासत्वात्।
= (शंकाकार का कहना है कि) जब अस्ति नास्ति दोनों में से किसी एक से ही काम चल जायेगा तो फिर दोनों को मानकर होनेवाले प्राय प्रयास भार से क्या प्रयोजन है। तथा दोनों को मानने से गौरव प्रसंग आता है अर्थात् एक प्रकार का अतिप्रसंग दोष आता है और वचन का विलास मात्र होने से दोनों का मानना उपादेय नहीं है।