अन्यत्वानुप्रेक्षा: Difference between revisions
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- | <span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/7/415 </span><p class="SanskritText">शरीरादंयत्वचिंतनमंयत्वानुप्रेक्षा। तद्यथा-बंधं प्रत्येकत्वे सत्यपिलक्षणभेदादंयोऽहमैंद्रियकं शरीरमतींद्रियोऽहमज्ञं शरीरं ज्ञोऽहमनित्यं शरीरं नित्योऽहमाद्यंतवच्छरीरमनाद्यंतोऽहम्। बहूनि मे शरीरशतसहस्राण्यतीतानि संसारे परिभ्रमतः। स एवाहमन्यस्तेभ्यः इत्येवं शरीरादप्यन्यत्वं मे किमंग, पुनर्बाह्येभ्यः परिग्रहेभ्यः। इत्येवं ह्यस्य मनः समादधानस्य शरीरादिषु स्पृहा नोत्पद्यते। </p> | ||
<p class="HindiText">= शरीर से अन्यत्व का चिंतन करना '''अन्यत्वानुप्रेक्षा''' है। यथा बंध की अपेक्षा अभेद होने पर भी लक्षण के भेद से `मैं अन्य हूँ', शरीर ऐंद्रियक है, मैं अतींद्रिय हूँ। शरीर अज्ञ है, मैं ज्ञाता हूँ। शरीर अनित्य है, मैं नित्य हूँ । शरीर आदि अंतवाला है और मैं अनाद्यनंत हूँ। संसार में परिभ्रमण करते हुए मेरे लाखों शरीर अतीत हो गये हैं। उनसे भिन्न वह ही मैं हूँ। इस प्रकार शरीर से भी जब मैं अन्य हूँ तब हे वत्स! मैं बाह्य पदार्थों से भिन्न होऊँ, तो इसमें क्या आश्चर्य है? इस प्रकार मन की समाधान युक्त करने वाले इसके शरीरादि में स्पृहा उत्पन्न नहीं होती। </p> | |||
<p class="HindiText">- देखें [[ अनुप्रेक्षा ]]।</p> | |||
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सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/7/415
शरीरादंयत्वचिंतनमंयत्वानुप्रेक्षा। तद्यथा-बंधं प्रत्येकत्वे सत्यपिलक्षणभेदादंयोऽहमैंद्रियकं शरीरमतींद्रियोऽहमज्ञं शरीरं ज्ञोऽहमनित्यं शरीरं नित्योऽहमाद्यंतवच्छरीरमनाद्यंतोऽहम्। बहूनि मे शरीरशतसहस्राण्यतीतानि संसारे परिभ्रमतः। स एवाहमन्यस्तेभ्यः इत्येवं शरीरादप्यन्यत्वं मे किमंग, पुनर्बाह्येभ्यः परिग्रहेभ्यः। इत्येवं ह्यस्य मनः समादधानस्य शरीरादिषु स्पृहा नोत्पद्यते।
= शरीर से अन्यत्व का चिंतन करना अन्यत्वानुप्रेक्षा है। यथा बंध की अपेक्षा अभेद होने पर भी लक्षण के भेद से `मैं अन्य हूँ', शरीर ऐंद्रियक है, मैं अतींद्रिय हूँ। शरीर अज्ञ है, मैं ज्ञाता हूँ। शरीर अनित्य है, मैं नित्य हूँ । शरीर आदि अंतवाला है और मैं अनाद्यनंत हूँ। संसार में परिभ्रमण करते हुए मेरे लाखों शरीर अतीत हो गये हैं। उनसे भिन्न वह ही मैं हूँ। इस प्रकार शरीर से भी जब मैं अन्य हूँ तब हे वत्स! मैं बाह्य पदार्थों से भिन्न होऊँ, तो इसमें क्या आश्चर्य है? इस प्रकार मन की समाधान युक्त करने वाले इसके शरीरादि में स्पृहा उत्पन्न नहीं होती।
- देखें अनुप्रेक्षा ।