अभ्यास: Difference between revisions
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<li id = "2" class="HindiText"><strong> मोक्षमार्ग में अभ्यास का महत्त्व</strong><br /> | <li id = "2" class="HindiText"><strong> मोक्षमार्ग में अभ्यास का महत्त्व</strong><br /> | ||
<span class="GRef">समाधिशतक / मूल या टीका गाथा 37 </span><span class="SanskritText"> अविद्याभ्याससंस्कारैरवशंक्षिप्यते मनः। तदेवज्ञानसंस्कारै स्वतस्तत्त्वेऽवतिष्ठते ॥37॥</span> | <span class="GRef">समाधिशतक / मूल या टीका गाथा 37 </span><span class="SanskritText"> अविद्याभ्याससंस्कारैरवशंक्षिप्यते मनः। तदेवज्ञानसंस्कारै स्वतस्तत्त्वेऽवतिष्ठते ॥37॥</span> | ||
<span class="HindiText">= शरीरादिक को शुचि स्थिर और आत्मीय मानने रूप जो अविद्या या अज्ञान है उसके पुनः पुनः प्रवृत्तिरूप अभ्यास से उत्पन्न हुए संस्कारों द्वारा मन स्ववश न रहकर विक्षिप्त हो जाता है। वही मन आत्म देह के भेद विज्ञानरूप संस्कारों के द्वारा स्वयं ही आत्मस्वरूप में स्थिर हो जाता है।</span>,br /> | <span class="HindiText">= शरीरादिक को शुचि स्थिर और आत्मीय मानने रूप जो अविद्या या अज्ञान है उसके पुनः पुनः प्रवृत्तिरूप अभ्यास से उत्पन्न हुए संस्कारों द्वारा मन स्ववश न रहकर विक्षिप्त हो जाता है। वही मन आत्म देह के भेद विज्ञानरूप संस्कारों के द्वारा स्वयं ही आत्मस्वरूप में स्थिर हो जाता है।</span>,<br /> | ||
<span class="GRef">मोक्षपाहुड़ / मूल या टीका गाथा /63/351 </span><span class="SanskritText"> शनैः शनैः आहरोऽल्पः क्रियते। शनैः शनैरासन पद्मासनं उद्धभासनं चाभ्यस्यते। शनैः शनैः निद्रापि स्तोका स्तोका क्रियते एकस्मिन्नेव पार्श्वे पार्श्वपरिवर्तनं न क्रियते। एवं सति सर्वोऽप्याहारस्त्यक्तुं शक्यते। आसनं च कदाचिदपि त्यक्तं(न) शक्यते। निद्रापि कदाचिदप्यकर्त्तु शक्यते। अभ्यासात् कि न भवति। तस्मादेव कारणात्केवलिभिः कदाचदपि न भुज्यते। पद्मासन एव वर्षाणां सहस्रैरपि स्थीयते, निद्राजयेनाप्रमत्तैर्भूयते, स्वप्नो न दृश्यते। </span> | <span class="GRef">मोक्षपाहुड़ / मूल या टीका गाथा /63/351 </span><span class="SanskritText"> शनैः शनैः आहरोऽल्पः क्रियते। शनैः शनैरासन पद्मासनं उद्धभासनं चाभ्यस्यते। शनैः शनैः निद्रापि स्तोका स्तोका क्रियते एकस्मिन्नेव पार्श्वे पार्श्वपरिवर्तनं न क्रियते। एवं सति सर्वोऽप्याहारस्त्यक्तुं शक्यते। आसनं च कदाचिदपि त्यक्तं(न) शक्यते। निद्रापि कदाचिदप्यकर्त्तु शक्यते। अभ्यासात् कि न भवति। तस्मादेव कारणात्केवलिभिः कदाचदपि न भुज्यते। पद्मासन एव वर्षाणां सहस्रैरपि स्थीयते, निद्राजयेनाप्रमत्तैर्भूयते, स्वप्नो न दृश्यते। </span> | ||
<span class="HindiText">= धीरे-धीरे आहार अल्प किया जाता है, धीरे धीरे पद्मासन या खड्गासन का अभ्यास किया जाता है। धीरे-धीरे ही निद्रा को कम किया जाता है। करवट बदले बिना एक ही करवट पर सोने का अभ्यास किया जाता है। इस प्रकार करते करते एक दिन सर्व ही आहार का त्याग करने में समर्थ हो जाता है, आसन भी ऐसा स्थिर हो जाता है, कि कभी भी न छूटे। निद्रा भी कभी न आये ऐसा हो जाता है। अभ्यास से क्या क्या नहीं हो जाता है? इसीलिए तो केवली भगवान् कभी भी भोजन नहीं करते, तथा हजारों वर्षों तक पद्मासन से ही स्थित रह जाते हैं। निद्राजय के द्वारा अप्रमत्त होकर रह सके हैं, कभी स्वप्न नहीं देखते। अर्थात् यह सब उनके पूर्व अभ्यास का फल है।</span></li> | <span class="HindiText">= धीरे-धीरे आहार अल्प किया जाता है, धीरे धीरे पद्मासन या खड्गासन का अभ्यास किया जाता है। धीरे-धीरे ही निद्रा को कम किया जाता है। करवट बदले बिना एक ही करवट पर सोने का अभ्यास किया जाता है। इस प्रकार करते करते एक दिन सर्व ही आहार का त्याग करने में समर्थ हो जाता है, आसन भी ऐसा स्थिर हो जाता है, कि कभी भी न छूटे। निद्रा भी कभी न आये ऐसा हो जाता है। अभ्यास से क्या क्या नहीं हो जाता है? इसीलिए तो केवली भगवान् कभी भी भोजन नहीं करते, तथा हजारों वर्षों तक पद्मासन से ही स्थित रह जाते हैं। निद्राजय के द्वारा अप्रमत्त होकर रह सके हैं, कभी स्वप्न नहीं देखते। अर्थात् यह सब उनके पूर्व अभ्यास का फल है।</span></li> |
Latest revision as of 14:31, 26 December 2022
- न्यायदर्शन सूत्र/भा.3-2/43 अभ्यासस्तु समाने विषये ज्ञानानामभ्यावृत्तिरभ्यासजनितः संस्कार आत्मगुणोभ्यासशब्देनोच्यते स च स्मृतिहेतुः समान इति। =अभ्यास - एक विषय में बार-बार ज्ञान होने से जो संस्कार उत्पन्न होता है, उसी को अभ्यास कहते हैं। यह भी स्मरण का कारण है।
- मोक्षमार्ग में अभ्यास का महत्त्व
समाधिशतक / मूल या टीका गाथा 37 अविद्याभ्याससंस्कारैरवशंक्षिप्यते मनः। तदेवज्ञानसंस्कारै स्वतस्तत्त्वेऽवतिष्ठते ॥37॥ = शरीरादिक को शुचि स्थिर और आत्मीय मानने रूप जो अविद्या या अज्ञान है उसके पुनः पुनः प्रवृत्तिरूप अभ्यास से उत्पन्न हुए संस्कारों द्वारा मन स्ववश न रहकर विक्षिप्त हो जाता है। वही मन आत्म देह के भेद विज्ञानरूप संस्कारों के द्वारा स्वयं ही आत्मस्वरूप में स्थिर हो जाता है।,
मोक्षपाहुड़ / मूल या टीका गाथा /63/351 शनैः शनैः आहरोऽल्पः क्रियते। शनैः शनैरासन पद्मासनं उद्धभासनं चाभ्यस्यते। शनैः शनैः निद्रापि स्तोका स्तोका क्रियते एकस्मिन्नेव पार्श्वे पार्श्वपरिवर्तनं न क्रियते। एवं सति सर्वोऽप्याहारस्त्यक्तुं शक्यते। आसनं च कदाचिदपि त्यक्तं(न) शक्यते। निद्रापि कदाचिदप्यकर्त्तु शक्यते। अभ्यासात् कि न भवति। तस्मादेव कारणात्केवलिभिः कदाचदपि न भुज्यते। पद्मासन एव वर्षाणां सहस्रैरपि स्थीयते, निद्राजयेनाप्रमत्तैर्भूयते, स्वप्नो न दृश्यते। = धीरे-धीरे आहार अल्प किया जाता है, धीरे धीरे पद्मासन या खड्गासन का अभ्यास किया जाता है। धीरे-धीरे ही निद्रा को कम किया जाता है। करवट बदले बिना एक ही करवट पर सोने का अभ्यास किया जाता है। इस प्रकार करते करते एक दिन सर्व ही आहार का त्याग करने में समर्थ हो जाता है, आसन भी ऐसा स्थिर हो जाता है, कि कभी भी न छूटे। निद्रा भी कभी न आये ऐसा हो जाता है। अभ्यास से क्या क्या नहीं हो जाता है? इसीलिए तो केवली भगवान् कभी भी भोजन नहीं करते, तथा हजारों वर्षों तक पद्मासन से ही स्थित रह जाते हैं। निद्राजय के द्वारा अप्रमत्त होकर रह सके हैं, कभी स्वप्न नहीं देखते। अर्थात् यह सब उनके पूर्व अभ्यास का फल है। - ध्यान सामायिक में अभ्यास का महत्त्व
धवला पुस्तक 13/54,26/गा.23-24/67-68 एगवारेणेव बुद्धीए थिरत्ताणुववत्तीदो एत्थ गाहा-पुव्वकयब्भासो भावणाहिज्झाणस्स जोग्गदमुवेदि। ताओ य णाणदंसणचरित्त-वेराग्गजणियाओ ॥23॥ णाणे णिच्चब्भासो कुणइ मणोबाइणं विसुद्धिं च। णाणगुणमुणियसारो तो ज्झायइ णिच्चलमईओ ॥24॥ = केवल एक बार में ही बुद्धि में स्थिरता नहीं आती। इस विषय में गाथा है-जिसने पहिले उत्तम प्रकार से अभ्यास किया है वह पुरुष ही भावनाओं द्वारा ध्यान की योग्यता को प्राप्त होता है और वे भावनाएँ ज्ञान दर्शन चारित्र और वैराग्य से उत्पन्न होती हैं ॥23॥ जिसने ज्ञान का निरंतर अभ्यास किया है वह पुरुष ही मनोनिग्रह और विशुद्धि को प्राप्त होता है क्योंकि जिसने ज्ञानगुण के बल से सारभूत वस्तु को जान लिया है निश्चलमति हो ध्यान करता है ॥24॥
सागार धर्मामृत अधिकार 5/32 सामायिकं सुदुःसाध्याप्याभ्यासेन साध्यते। निम्नीकरोति वार्बिंदुः किं नाश्मानं मुहुः पतन् ॥32॥ = अत्यंत दुःसाध्य भी सामायिक व्रत अभ्यास के द्वारा सिद्ध हो जाता है, क्योंकि, जैसे कि बार-बार गिरने वाली जल की बूंद क्या पत्थरमें गड्ढा नहीं कर देती ॥32॥
अनगार धर्मामृत अधिकार 8/77/805 नित्येनेत्थमथेतरेण दुरितं निर्मूलयन् कर्मणा, योऽभ्यासेन विपाचयत्यमलयन् ज्ञानं त्रिगुप्तिश्रितः। स प्रोद्बुद्धनिसर्गशुद्धपरमानंदानुविद्धस्फुरद्विश्वाकारसमग्रबोधशुभगं कैवल्यमास्तिघ्नुते ॥77॥ = नित्य और नैमित्तिक क्रियाओं के द्वारा पापकर्मों का निर्मूलन करते हुए और मन वचन काय के व्यापारों को भले प्रकार निग्रह करके तीनों गुप्तियों के आश्रय से ज्ञान को निर्मल बनाता है, वह उस कैवल्य निर्वाण को प्राप्त कर लेता है।