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| <p class="SanskritText">सर्वार्थसिद्धि अध्याय 5/32/303 अनेकान्तात्मकस्य वस्तुनः प्रयोजनवशाद्यस्य कस्यचिद्धर्मस्य विवक्षया प्रापितं प्राधान्यमर्पितमुपनीतमिति यावत्। तद्विपरीतमनर्पितम्।</p>
| | <span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि अध्याय 5/32/303</span> <p class="SanskritText">अनेकांतात्मकस्य वस्तुनः प्रयोजनवशाद्यस्य कस्यचिद्धर्मस्य विवक्षया प्रापितं प्राधान्यमर्पितमुपनीतमिति यावत्। तद्विपरीतमनर्पितम्।</p> |
| <p class="HindiText">= वस्तु अनेकान्तात्मक है। प्रयोजनके अनुसार उसके किसी एक धर्मको विवक्षासे जब प्रधानता प्राप्त होती है तो वह अर्पित या उपनीत कहलाता है। और प्रयोजनके अभावमें जिसकी प्रधानता नहीं रहती वह अनर्पित कहलाता है। नोट-इस शब्दका न्यायविषयक अर्थ योजित है। अर्हन्त - जैन दर्शनके अनुसार व्यक्ति अपने कर्मोंका विनाश करके स्वयं परमात्मा बन जाता है। उस परमात्माकी दो अवस्थाएँ हैं - एक शरीर सहित जीवन्मुक्त अवस्था, और दूसरी शरीर रहित देह मुक्त अवस्था। पहली अवस्थाको यहाँ अर्हन्त और दूसरी अवस्थाको सिद्ध कहा जाता है। अर्हन्त भी दो प्रकारके होते हैं - तीर्थंकर व सामान्य। विशेष पुण्य सहित अर्हन्त जिनके कि कल्याणक महोत्सव मनाये जाते हैं तीर्थंकर कहलाते हैं, और शेष सर्व सामान्य अर्हन्त कहलाते हैं। केवलज्ञान अर्थात् सर्वज्ञत्व युक्त होनेके कारण इन्हें केवली भी कहते हैं।</p> | | <p class="HindiText">= वस्तु अनेकांतात्मक है। प्रयोजन के अनुसार उसके किसी एक धर्म को विवक्षा से जब प्रधानता प्राप्त होती है तो वह अर्पित या उपनीत कहलाता है। और प्रयोजन के अभाव में जिसकी प्रधानता नहीं रहती वह अनर्पित कहलाता है। नोट-इस शब्द का न्यायविषयक अर्थ योजित है। </p> |
| <p>1. अर्हन्तका लक्षण</p>
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| <p>1. पूजाके महत्त्वसे अर्हन्त व्यपदेश</p>
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| <p class="SanskritText">मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 505,562 अरिहंति णमोक्कारं अरिहा पूजा सुरुत्तमा लोए ॥505॥ अरिहंति वंदणणमंसणाणि अरिहंति पूयसक्कारं। अरिहंति सिद्धिगमणं अरहंता तेण उच्चंति ॥562॥</p>
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| <p class="HindiText">= जो नमस्कार करने योग्य हैं, पूजाके योग्य हैं, और देवोंमें उत्तम हैं, वे अर्हन्त हैं ॥505॥ वन्दना और नमस्कारके योग्य हैं, पूजा और सत्कारके योग्य हैं, मोक्ष जानेके योग्य हैं इस कारणसे अर्हन्त कहे जाते हैं ॥562॥</p>
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| <p class="SanskritText">धवला पुस्तक 1/1,1,1/44/6 अतिशयपूजार्हत्वाद्वार्हन्तः।</p>
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| <p class="HindiText">= अतिशय पूजाके योग्य होनेसे अर्हन्त संज्ञा प्राप्त होती है।</p>
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| <p>( महापुराण सर्ग संख्या 33/186) (न.च.वृ/272) ( चारित्तपाहुड़ / मूल या टीका गाथा 1/31/5)।</p>
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| <p class="SanskritText">द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 50/211/1 पञ्चमहाकल्याणरूपां पूजामर्हति योग्यो भवति तेन कारणेन अर्हन् भण्यते।</p>
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| <p class="HindiText">= पंच महाकल्याणक रूप पूजाके योग्य होता है, इस कारण अर्हन् कहलाता है।</p>
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| <p>2. कर्मों आदिके हनन करनेसे अर्हन्त है</p>
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| <p class="SanskritText">बोधपाहुड़ / मूल या टीका गाथा 30 जरवाहिजम्ममरणं चउगइगमणं च पुण्णपावं च। हतूण दोसकम्मे हुउ णाणमयं च अरहंतो ॥30॥</p>
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| <p class="HindiText">= जरा और व्याधि अर जन्ममरण, चार गति विषै गमन, पुण्य और पाप इन दोषनिके उपजानेवाले कर्म हैं। तिनिका नाश करि अर केवलज्ञान मई हुआ होय सो अरहंत हैं।</p>
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| <p class="SanskritText">मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 505,561 रजहंता अरिहंति य अरहंता तेण उच्चदे ॥505॥ जिदकोहमाणमाया जिदलोहा तेण ते जिणा होंति। हंता अरिं च जम्मं अरहंता तेण वुच्चंति ॥561॥</p>
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| <p class="HindiText">= अरि अर्थात् मोह कर्म, रज अर्थात् ज्ञानावरण व दर्शनावरण कर्म और अनन्तराय कर्म इन चारके हनन करनेवाले हैं। इसलिए `अरि' का प्रथमाक्षर `अ', `रज' का प्रथमाक्षर `र' लेकर उसके आगे हननका वाचक `हन्त' शब्द जोड़ देनेपर अर्हन्त बनता है ॥505॥ क्रोध, मान, माया, लोभ इन कषायोंको जीत लेनेके कारण `जिन' हैं और कर्म शत्रुओं व संसारके नाशक होनेके कारण अर्हंत कहलाते हैं ॥561॥</p>
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| <p class="SanskritText">धवला पुस्तक 1/1,1,1/42/9 अरिहननादरिहन्ता। अशेषदुःखप्राप्तिनिमित्तत्बा दरिर्मोहः।...रजोहननाद्वा अरिहंता। ज्ञानदृगावरणानि रजांसीव... ...वस्तुविषयबोधानुभवप्रतिबन्धकत्वाद्रजांसि।..रहस्याभावाद्वा अरिहन्ता। रहस्यमन्तरायः तस्य शेषघातित्रितयविनाशाविनाभाविनो भ्रष्टबीजवन्निशक्तोकृताघातिकर्मणो हननादरिहन्ता।</p>
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| <p class="HindiText">= `अरि' अर्थात् शत्रुओंका नाश करनेसे अरिहंत यह संज्ञा प्राप्त होती है। समस्त दुखोंकी प्राप्तिका निमित्त कारण होनेसे मोहको अरि कहते हैं।...अथवा रज अर्थात् आवरण कर्मोंका नाश करनेसे `अरिहन्त' यह संज्ञा प्राप्त होती है। ज्ञानावरण और दर्शनावरण रजकी भाँति वस्तु विषयक बोध और अनुभवके प्रतिबन्धक होनेसे रज कहलाते हैं।...अथवा रहस्य के अभावसे भी अरिहंत संज्ञा प्राप्त होती है। रहस्य अन्तराय कर्मको कहते हैं। अन्तराय कर्मका नाश शेष तीन उपरोक्त कर्मोंके नाशका अविनाभावी है, और अन्तरायकर्मके नाश होने पर शेष चार अघातिया कर्म भी भ्रष्ट बीजके समान निःशक्त हो जाते हैं।</p>
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| <p>( नयचक्रवृहद् गाथा 272), (भ.आ/वि/46/153/12) ( महापुराण सर्ग संख्या 33/186) ( द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 50/210/9), ( चारित्तपाहुड़ / मूल या टीका गाथा 1/31)।</p>
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| <p class="SanskritText">धवला पुस्तक 8/3,41/89/2. ``खविदघादिकम्मा केवलणाणेण दिट्ठसव्वट्ठा अरहंता णाम। अधवा, णिट्ठविदट्ठकम्माणं घाइदघादिकम्माणं च अरहंतेत्ति सण्णा, अरिहणणं पदिदोण्हं भेदाभावादो।''</p>
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| <p class="HindiText">= जिन्होंने घातिया कर्मोंको नष्ट कर केवलज्ञानके द्वारा सम्पूर्ण पदार्थोंको देख लिया है वे अरहन्त हैं। अथवा आठों कर्मोंको दूर कर देनेवाले और घातिया कर्मोंको नष्टकरदेनेवालोंका नाम अरहन्त है। क्योंकि कर्म शत्रुके विनाशके प्रति दोनोंमें कोई भेद नहीं है। (अर्थात् अर्हत व सिद्ध जिन दोनों ही अरहन्त हैं)।</p>
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| <p>2. अर्हन्तके भेद </p>
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| <p>सत्तास्वरूप/38 सात प्रकारके अर्हंत होते हैं। पाँच, तीन व दो कल्याणकयुक्त (देखो तीर्थंकर/1); सातिशय केवली अर्थात् गन्धकुटी युक्त केवली, सामान्य केवली अर्थात् मूक केवली, उत्सर्ग केवली, और अन्तकृत् केवली। और भी देखें [[ केवली#1 | केवली - 1]]।</p>
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| <p>3. भगवानमें 18 दोषोंके अभावका निर्देश</p>
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| <p class="SanskritText">नियमसार / मूल या टीका गाथा 6 ``छुहतण्हभीरुरोसो रागो मोहो चिंताजरारुजामिच्चू। स्वेदं खेदं मदो रइ विम्हियणिद्दाजणुव्वेगो ॥6॥</p>
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| <p class="HindiText">= 1. क्षुधा, 2. तृषा, 3. भय, 4. रोष (क्रोध), 5. राग, 6. मोह, 7. चिन्ता, 8. जरा, 9. रो, 10. मृत्यु, 11. स्वेद, 12. खेद, 13. मद, 14. रति, 15. विस्मय, 16. निद्रा, 17. जन्म और 18. उद्वेग (अरति-ये अठारह दोष हैं)</p>
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| <p>( जंबूदीव-पण्णत्तिसंगहो अधिकार 13/85-87) ( द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 50/210)।</p>
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| <p>4. भगवानके 46 गुण</p>
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| <p>चार अनन्त चतुष्टय, 34 अतिशय और आठ प्रतिहार्य, ये भगवानके 46 गुण हैं।</p>
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| <p>5. भगवानके अनन्त चतुष्टय</p>
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| <p>(अनन्त दर्शन, अनन्त ज्ञान, अनन्त सुख और अनन्त वीर्य-ये चार अनन्त चतुष्टय कहलाते हैं-विशेष देखें [[ चतुष्टय ]]।</p>
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| <p>6. चौतीस अतिशयोंके नाम निर्देश</p>
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| <p> तिलोयपण्णत्ति अधिकार 4/896-914/ केवल भाषार्थ-1. जन्मके 10 अतिशय 1. स्वेदरहितता; 2. निर्मल शरीरता; 3. दूधके समान धवल रुधिर; 4. वज्रऋषभनाराच संहनन; 5. समचतुरस्र शरीर संस्थान; 6. अनुपमरूप; 7. नृपचम्पकके समान उत्तम गन्धको धारण करना; 8. 1008 उत्तम लक्षणोंका धारण; 9. अनन्त बल; 10. हित मित एवं मधुर भाषण; ये स्वाभाविक अतिशयके 10 भेद हैं जो तीर्थंकरोंके जन्म ग्रहणसे ही उत्पन्न हो जाते हैं। ॥896-898॥</p>
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| <p>2. केवलज्ञानके 11 अतिशय-1. अपने पाससे चारों दिशाओंमें एक सौ योजन तक सुभिक्षता; 2. आकाशगमन; 3. हिंसाका अभाव; 4. भोजनका अभाव; 5. उपसर्गका अभाव; 6. सबकी ओर मुख करके स्थित होना; 7. छाया रहितता; 8. निर्निमेष दृष्टि; 9. विद्याओंकी ईशता; 10. सजीव होते हुए भी नख और रोमोंका समान रहना; 11. अठारह महा भाषा तथा सात सौ क्षुद्रभाषा युक्त दिव्यध्वनि। इस प्रकार घातिया कर्मोंके क्षयसे उत्पन्न हुए ये महान आश्चर्यजनक 11 अतिशय तीर्थंकरोंके केवलज्ञानके उत्पन्न होनेपर प्रगट होते हैं ॥899-906॥</p>
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| <p>3. देवकृत 13 अतिशय - 1. तीर्थंकरोंके महात्म्यसे संख्यात योजनों तक वन असमयमें ही पत्रफूल और फलोंकी वृद्धिसे संयुक्त हो जाता है; 2. कंटक और रेती आदिको दूर करती हुई सुखदायक वायु चलने लगती है; 3. जीव पूर्व वैरको छोड़कर मैत्रीभावसे रहने लगते हैं; 4. उतनी भूमि दर्पणतलके सदृश स्वच्छ और रत्नमय हो जाती है; 5. सौ धर्म इन्द्रकी आज्ञासे मेघकुमारदेव सुगन्धित जलकी वर्षा करते हैं; 6. देव विक्रियासे फलोंके भारसे नम्रीभूत शालि और जौ आदि सस्यकों रचते हैं; 7. सब जीवोंको नित्य आनन्द उत्पन्न होता है; 8. वायुकुमारदेव विक्रियासे शीतल पवन चलाता है; 9. कूप और तालाब आदिक निर्मल जलसे पूर्ण हो जाते है; 10. आकाश धुआँ और उल्कापातादिसे रहित होकर निर्मल हो जाता है; 11. सम्पूर्ण जीवोंको रोग आदिकी बाधायें नहीं होती हैं; 12. यक्षेन्द्रोंके मस्तकोंपर स्थिर और किरणोंसे उज्ज्वल ऐसे चार दिव्य धर्म चक्रोंको देखकर जनोंको आश्चर्य होता है; 13. तीर्थंकरों के चारों दिशाओंमें (व विदिशाओंमें) छप्पन सुवर्ण कमल, एक पादपीठ, और दिव्य एवं विविध प्रकारके पूजन द्रव्य होते हैं ॥907-914॥ चौंतीस अतिशयोंका वर्णन समाप्त हुआ।</p>
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| <p>( जंबूदीव-पण्णत्तिसंगहो अधिकार 13/93-114) ( दर्शनपाहुड़ / मूल या टीका गाथा 35/28)</p>
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| <p>7. इतने ही नहीं और भी अनन्तों अतिशय होते हैं</p>
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| <p class="SanskritText">स्याद्वादमंजरी श्लोक 1/8/4 यथा निशीथचूर्णों भगवतां श्रीमदर्हतामष्टोत्तरसहस्रसंख्याबाह्यलक्षणसंख्याया उपलक्षणत्वेनान्तरङ्गलक्षणानां सत्त्वादीनामानन्त्यमुक्तम्। एवमतिशयानामधिकृतपरिगणनायोगेऽप्यपरितत्वमविरुद्धम्।</p>
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| <p class="HindiText">= जिस प्रकार `निशीथ चूर्णि' नाम ग्रन्थमें श्री अर्हन्त भगवानके 1008 बाह्य लक्षणोंको उपलक्षण मानकर सत्त्वादि अन्त रंग लक्षणोंको अनन्त कहा गया है, उसी प्रकार उपलक्षणसे अतिशयोंको परिमित मान करके भी उन्हें अनन्त कहा जा सकता है। इसमें कोई शास्त्र विरोध नहीं है।</p>
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| <p>8. भगवान्के 8 प्रातिहार्य</p>
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| <p> तिलोयपण्णत्ति अधिकार 4/915-927/ भावार्थ-1. अशोक वृक्ष; 2. तीन छत्र; 3. रत्नखचित सिंहासन; 4. भक्ति युक्त गणों द्वारा वेष्टित रहना; 5. दुन्दुभि नाद; 6. पुष्पवृष्टि; 7. प्रभामण्डल; 8. चौसठ चमरयुक्तता</p>
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| <p>( जंबूदीव-पण्णत्तिसंगहो अधिकार 13/122-130)</p>
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| <p>• अष्टमंगल द्रव्योंके नाम - देखें [[ चैत्य#1.11 | चैत्य - 1.11]]।</p>
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| <p>• अर्हन्तको जटाओंका सद्भाव व असद्भाव - देखें [[ केशलोच#4 | केशलोच - 4]]</p>
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| <p>• अर्हन्तोंका वीतराग शरीर - देखें [[ चैत्य#1.12 | चैत्य - 1.12]]।</p>
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| <p>• अर्हन्तोंके मृत शरीर सम्बन्धी कुछ धारणाएँ-देखें [[ मोक्ष#5 | मोक्ष - 5]]।</p>
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| <p>• अर्हन्तोंका विहार व दिव्य ध्वनि - देखें [[ वह वह नाम ]]।</p>
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| <p>• भगवानके 1008 नाम - देखें [[ महापुराण#25.100 | महापुराण - 25.100]]-217 ।</p>
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| <p>9. भगवानके 1008 लक्षण</p>
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| <p> महापुराण सर्ग संख्या 15/37-44/ केवल भाषार्थ - श्रीवृक्ष, शंख, कमल, स्वस्तिक, अंकुश, तोरण, चमर, सफेद छत्र, सिंहासन, पताका, दो मीन, दो कुम्भ, कच्छप, चक्र, समुद्र, सरोवर, विमान, भवन, हाथी, मनुष्य, स्त्रियाँ, सिंह, बाण, धनुष, मेरु, इन्द्र, देवगंगा, पुर, गोपुर, चन्द्रमा, सूर्य, उत्तम घोड़ा, तालवृन्त (पंखा), बाँसुरी, वीणा, मृदंग, मालाएँ, रेशमी वस्त्र, दुकान, कुण्डल आदि लेकर चमकते हुए चित्र विचित्र आभूषण, फल सहित उपवन, पके हुए वृक्षोंसे सुशोभित खेत, रत्नद्वीप, वज्र, पृथिवी, लक्ष्मी, सरस्वती, कामधेनु, वृषभ, चूडामणि, महानिधियाँ, कल्पलता, सुवर्ण, जम्बूद्वीप, गरुड़, नक्षत्र, तारे, राजमहल, सूर्यादि ग्रह, सिद्धार्थ वृक्ष, आठ प्रातिहार्य और आठ मंगल द्रव्य आदि, इन्हें लेकर एकसौ आठ लक्षण और मसूरिका आदि नौ सौ व्यंजन भगवान्के शरीरमें विद्यमान थे। (इस प्रकार 108 लक्षण+900 व्यंजन=1008)</p>
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| <p>( दर्शनपाहुड़ / मूल या टीका गाथा 35/27)</p>
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| <p>• अर्हन्तके चारित्रमें कथञ्चित् मलका सद्भाव (देखें [[ केवली#2. | केवली - 2.]]सयोगी व अयोगीमें अन्तर)।</p>
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| <p>• सयोग केवली-देखें [[ केवली ]]।</p>
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| <p>10. सयोग केवली व अयोगकेवली दोनों अर्हन्त हैं</p>
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| <p class="SanskritText">धवला पुस्तक /8/3,41/89/2 खविदघादिकम्मा केवलणाणेण दिट्ठसव्वट्ठा अरहंता णाम।</p>
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| <p class="HindiText">= जिन्होंने घातिया कर्मोंको नष्ट कर केवलज्ञानके द्वारा सम्पूर्ण पदार्थोंको देख लिया है वे अरहन्त हैं। (अर्थात् सयोग व अयोग केवली दोनों ही अर्हन्त संज्ञाको प्राप्त हैं।)</p>
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| <p>• सयोग व अयोग केवलीमें अन्तर - देखें [[ केवली ]]/2।</p>
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| <p>11. अर्हन्तोंकी महिमा व विभूति</p>
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| <p class="SanskritText">नियमसार / मूल या टीका गाथा 71 घणघाइकम्मरहिया केवलणाणाइपरमगुणसहिया। चोत्तिसअदिसयजुत्ता अरिहंता एरिसा होंति।</p>
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| <p class="HindiText">= घनघातिकर्म रहित केवलज्ञानादि परमगुणों सहित, और चौंतीस अतिशय युक्त ऐसे अर्हन्त होते हैं।</p>
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| <p>( क्रियाकलाप मुख्याधिकार संख्या /3-1/1)</p>
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| <p class="SanskritText">नियमसार / तात्पर्यवृत्तिगाथा 7 में उद्धृत कुन्दकुदाचार्यकी गाथा-``तेजो दिट्टी णाणं इड्ढो सोक्खं तहेव ईसरियं। तिहुवणपहाणदइयं माहप्पं जस्स सो अरिहो।</p>
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| <p class="HindiText">= तेज (भामण्डल), केवलदर्शन, केवलज्ञान, ऋद्धि (समवसरणादि) अनन्त सौख्य, ऐश्वर्य, और त्रिभुवनप्रधानवल्लभपना - ऐसा जिनका माहात्म्य है, वे अर्हन्त हैं।</p>
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| <p class="SanskritText">बोधपाहुड़ / मूल या टीका गाथा 29 दंसण अणंतणाणे मोक्खो णट्ठट्ठकम्मबंधेण। णिरुवमगुणमारूढो अरहंतो एरिसो होइ ॥29॥</p>
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| <p class="HindiText">= जाके दर्शन और ज्ञान ये तौ अनन्त हैं, बहुरि नष्ट भया जो अष्ट कर्मनिका बन्ध ताकरि जाके मोक्ष है, निरुपम गुणोंपर जो आरूढ़ हैं ऐसे अर्हन्त होते हैं।</p>
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| <p>(ब्र.सं./मू./50) ( पंचाध्यायी / उत्तरार्ध श्लोक 607)</p>
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| <p> धवला पुस्तक 1/1,1,1/23-25/45/ केवल भावार्थ - मोह, अज्ञान व विघ्न समूहको नष्ट कर दिया है ॥23॥ कामदेव विजेता, त्रिनेत्र द्वारा सकलार्थ व त्रिकालके ज्ञाता, मोह, राग, द्वेषरूप त्रिपुर दाहक तथा मुनि पति हैं ॥24॥ रत्नत्रयरूपा त्रिशूल द्वारा मोहरूपी अन्धासुरके विजेता, आत्मस्वरूप निष्ठ, तथा दुर्नयका अन्त करनेवाले ॥25॥ ऐसे अर्हन्त होते हैं।</p>
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| <p> तत्त्वानुशासन श्लोक 123-128 केवल भावार्थ - देवाधिदेव, घातिकर्म विनाशक अनन्त चतुष्टय प्राप्त ॥123॥ आकाश तलमें अन्तरिक्ष विराजमान, परमौदारिक देहधारो ॥124॥ 34 अतिशय व अष्ट प्रातिहार्य युक्त तथा मनुष्य तिर्यंच व देवों द्वारा सेवित ॥125॥ पंचमहाकल्याणकयुक्त, केवलज्ञान द्वारा सकल तत्त्व दर्शक ॥126॥ समस्त लक्षणोंयुक्त उज्ज्वल शरीरधारी, अद्वितीय तेजवन्त, परमात्मावस्थाको प्राप्त ॥127-128॥ ऐसे अर्हन्त होते हैं।</p>
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