विशिष्टाद्वैत: Difference between revisions
From जैनकोष
(Imported from text file) |
J2jinendra (talk | contribs) No edit summary |
||
(One intermediate revision by one other user not shown) | |||
Line 1: | Line 1: | ||
{{:रामानुज_वेदांत_या_विशिष्टाद्वैत }} | |||
<noinclude> | <noinclude> | ||
Line 8: | Line 11: | ||
</noinclude> | </noinclude> | ||
[[Category: व]] | [[Category: व]] | ||
[[Category: द्रव्यानुयोग]] |
Latest revision as of 14:30, 30 January 2023
- रामानुज वेदांत या विशिष्टाद्वैत
- सामान्य परिचय
(भारतीय दर्शन) यामुन मुनि के शिष्य रामानुजने ई. 1050 में श्री भाष्य व वेदांतसार की रचना द्वारा विशिष्टाद्वैत का प्रचार किया है। क्योंकि यहाँ चित् व अचित् को ईश्वर के विशेष रूप से स्वीकार किया गया है। इसलिए इसे विशिष्टाद्वैत कहते हैं। इसके विचार बहुत प्रकार से निंबार्क वेदांत से मिलते हैं। (देखें वेदांत - 5)।
- तत्त्व विचार
भारतीय दर्शन- मम बुद्धि से भिन्न ज्ञान का आश्रयभूत, अणु प्रमाण, निरवयव, नित्य, अव्यक्त, अचिंत्य, निर्विकार, आनंदरूप जीवात्मा चित् है। यह ईश्वर की बुद्धि के अनुसार काम करता है।
- संसारी जीव बद्ध हैं इनमें भी प्रारब्ध कर्म का आश्रय लेकर मोक्ष की प्रतीक्षा करने वाले दृप्त और शीघ्र मोक्ष की इच्छा करने वाले आर्त हैं। अनुष्ठान विशेष द्वारा बैकुंठ को प्राप्त होकर वहाँ भगवान् की सेवा करते हुए रहने वाला जीव मुक्त है। यह सर्व लोकों में अपनी इच्छा से विचरण करता है। कभी भी संसार में न आने वाला तथा सदा ईश्वरेच्छा के आधीन रहने वाला नित्य जीव है। भगवान् के अवतार के समान इसके भी अवतार स्वेच्छा से होते हैं।
- अचित् जड़ तत्त्व व विचारवान् होता है। रजतम गुण से रहित तथा आनंदजनक शुद्धसत्त्व है। बैकुंठ धाम तथा भगवान् के शरीरों के निर्माण का कारण है। जड़ है या अजड़ यह नहीं कहा जा सकता। त्रिगुण मिश्रित तथ बद्ध पुरुषों के ज्ञान व आनंद का आवरक मिश्रसत्त्व है। प्रकृति, महत्, अहंकार, मन, इंद्रिय, विषय, व भूत इस ही के परिणाम हैं। यही अविद्या या माया है। त्रिगुण शून्य तथा सृष्टि प्रलय का कारण काल सत्त्वशून्य है।
- चित् अचित् तत्त्वों का आधार, ज्ञानानंद स्वरूप, सृष्टि व प्रलयकर्ता, भक्त प्रतिपालक व दुष्टों का निग्रह करने वाला ईश्वर है। नित्य आनंद स्वरूप व अपरिणामी ‘पर’है। भक्तों की रक्षा व दुष्टों का निग्रह करने वाला व्यूह है। संकर्षण से संहार, प्रद्युम्न से धर्मोपदेश व वर्गों की सृष्टि तथा अनिरुद्ध से रक्षा, तत्त्वज्ञान व सृष्टि होती है । भगवान् का साक्षात् अवतार मुख्य है और शक्त्यावेश अवतार गौण। जीवों के अंतःकरण की वृत्तियों का नियामक अंतर्यामी है और भगवान् की उपास्य मूर्ति अर्चावतार है।
- ज्ञान व इंद्रिय विचार
(भारतीय दर्शन)- ज्ञान स्वयं गुण नहीं द्रव्य है। सुख, दुःख, इच्छा, प्रयत्न ये ज्ञान के ही स्वरूप हैं। यह नित्य आनंद स्वरूप व अजड़ है। आत्मा संकोच विस्तार रूप नहीं है पर ज्ञान है। आत्मा स्व प्रकाशक और ज्ञान पर प्रकाशक है। अचित् के संसर्ग से अविद्या, कर्म व वासना व रुचि से वेष्टित रहता है। बद्ध जीवों का ज्ञान अव्यापक, नित्य जीवों का सदा व्यापक और मुक्त जीवों का सादि अनंत व्यापक होता है।
- इंद्रिय अणु प्रमाण है। अन्य लोकों में भ्रमण करते समय इंद्रिय जीव के साथ रहती है। मोक्ष होने पर छूट जाती है।
- सृष्टि व मोक्ष विचार
(भारतीय दर्शन)- भगवान् के संकल्प विकल्प से मिश्रसत्त्व की साम्यावस्था में वैषम्य आने पर जब वह कर्मोन्मुख होती है तो उससे महत् अहंकार, मन ज्ञानेंद्रिय व कर्मेंद्रिय उत्पन्न होती है। मुक्त जीवों की छोड़ी हुई इंद्रियाँ जो प्रलय पर्यंत संसार में पड़ी रहती हैं, उन जीवों के द्वारा ग्रहण कर ली जाती हैं जिन्हें इंद्रियाँ नहीं होती।
- भगवान् के नाभि कमल से ब्रह्मा, उनसे क्रमशः देवर्षि, ब्रह्मर्षि, 9 प्रजापति, 10 दिक्पाल, 14 इंद्र, 14 मनु, 8 वसु, 11 रुद्र, 12 आदित्य, देवयोनि, मनुष्यगण, तिर्यग्गण और स्थावर उत्पन्न हुए (विशेष देखें वेदांत - 6)।
- लक्ष्मीनारायण की उपासना के प्रभाव से स्थूल शरीर के साथ-साथ सुकृत दुष्कृत के भोग का भी नाश होता है। तब यह जीव सुषुम्ना नाड़ी में प्रवेश कर ब्रह्म-रंध्र से निकलता है। सूर्य की किरणों के सहारे अग्नि लोक में जाता है। मार्ग में–दिन, शुक्ल पक्ष, उत्तरायण व संवत्सर के अभिमानी देवता इसका सत्कार करते हैं। फिर ये सूर्यमंडल को भेदकर पहले सूर्यलोक में पहुँचते हैं। वहाँ से आगे क्रम पूर्वक चंद्रविद्युत् वरुण, इंद्र व प्रजापतियों द्वारा मार्ग दिखाया जाने पर अतिवाहक गणों के साथ चंद्रादि लोकों से होता हुआ वैकुंठ की सीमा में ‘विरजा’ नाम के तीर्थ में प्रवेश करता है। यहाँ सूक्ष्म शरीर को छोड़कर दिव्य शरीर धारण करता है, जिसका स्वरूप चतुर्भुज है। तब इंद्र आदि की आज्ञा से वैकुंठ में प्रवेश करता है। तहाँ ‘एरमद’ नामक अमृत सरोवर व ‘सोमसवन’ नामक अश्वत्थ को देखकर 500 दिव्य अप्सराओं से सत्कारित होता हुआ महामंडप के निकट अपने आचार्य के पलँग के पास जाता है। वहाँ साक्षात् भगवान् को प्रणाम करता है। तथा उसकी सेवा में जुट जाता है। यही उसकी मुक्ति है।
- प्रमाण विचार
भारतीय दर्शन- यथार्थ ज्ञान स्वतः प्रमाण है। इंद्रियज्ञान प्रत्यक्ष है। योगज प्रत्यक्ष स्वयंसिद्ध और भगवत्प्रसाद से प्राप्त दिव्य है।
- व्याप्तिज्ञान अनुमान है। पाँच अवयवों का पक्ष नहीं। 5, 3, वा 2 जितने भी अवयवों से काम चले प्रयोग किये जा सकते हैं। उपमान अर्थापत्ति आदि सब अनुमान में गर्भित है।
- सामान्य परिचय