उपलब्धि: Difference between revisions
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<span class="HindiText">= जिसके द्वारा वस्तुतत्त्व उपलब्ध किया जाता हो या ग्रहण किया जाता हो, वह उपलब्धि है। पदार्थ से उत्पन्न होने वाली तदाकार परिणत बुद्धि उपलब्धि है।</span> | <span class="HindiText">= जिसके द्वारा वस्तुतत्त्व उपलब्ध किया जाता हो या ग्रहण किया जाता हो, वह उपलब्धि है। पदार्थ से उत्पन्न होने वाली तदाकार परिणत बुद्धि उपलब्धि है।</span> | ||
<span class="GRef">पंचास्तिकाय संग्रह / तत्त्वप्रदीपिका / गाथा 39</span><span class="SanskritText"> चेतयते अनुभवंति उपलभंते विंदंतीत्येकार्थश्चेतनानुभूत्युपलब्धिवेदनानामेकार्थतत्त्वात्।</span> | |||
<span class="HindiText">= चेतता है, अनुभव करता है, उपलब्ध करता है, और वेदता है, ये एकार्थ हैं; क्योंकि चेतना, अनुभूति, उपलब्धि और वेदना एकार्थक हैं।</span> | <span class="HindiText">= चेतता है, अनुभव करता है, उपलब्ध करता है, और वेदता है, ये एकार्थ हैं; क्योंकि चेतना, अनुभूति, उपलब्धि और वेदना एकार्थक हैं।</span> | ||
<span class="GRef">पंचास्तिकाय संग्रह / तात्पर्यवृत्ति / गाथा 43/86/1</span> <span class="SanskritText">मतिज्ञानावरणीयक्षयोपशमजनितार्थग्रहणशक्तिरुपलब्धिः।</span> | |||
<span class="HindiText">= मतिज्ञानावरणीय के क्षयोपशम से उत्पन्न अर्थ ग्रहण करने की शक्ति को उपलब्धि कहते हैं।</span></li> | <span class="HindiText">= मतिज्ञानावरणीय के क्षयोपशम से उत्पन्न अर्थ ग्रहण करने की शक्ति को उपलब्धि कहते हैं।</span></li> | ||
<li><span class="HindiText" id="2"><strong>अनुराग के अर्थ में</strong> <br /></span> | <li><span class="HindiText" id="2"><strong>अनुराग के अर्थ में</strong> <br /></span> | ||
<span class=" | <span class="GRef"> पंचाध्यायी/उत्तरार्ध 435 </span> <span class="SanskritText">अथानुरागशब्दस्य विधिर्वाच्यो यदार्थतः। प्राप्तिः स्यादुपलब्धिर्वा शब्दाश्चैकार्थवाचकाः ।435।</span> | ||
<span class="HindiText">= जिस समय अनुराग शब्द का अर्थ की अपेक्षा से विधिरूप अर्थ वक्तव्य होता है, उस समय अनुराग शब्द का अर्थ प्राप्ति व उपलब्धि होता है; क्योंकि अनुराग, प्राप्ति और उपलब्धि ये तीनों शब्द एकार्थवाचक हैं।</span></li> | <span class="HindiText">= जिस समय अनुराग शब्द का अर्थ की अपेक्षा से विधिरूप अर्थ वक्तव्य होता है, उस समय अनुराग शब्द का अर्थ प्राप्ति व उपलब्धि होता है; क्योंकि अनुराग, प्राप्ति और उपलब्धि ये तीनों शब्द एकार्थवाचक हैं।</span></li> | ||
li><span class="HindiText" id="3"><strong>सम्यक्त्व या ज्ञानचेतना के अर्थ में </strong> <br /></span> | <li><span class="HindiText" id="3"><strong>सम्यक्त्व या ज्ञानचेतना के अर्थ में </strong> <br /></span> | ||
<span class="GRef">पंचाध्यायी / उत्तरार्ध श्लोक 200-208</span><span class="SanskritText"> ननूपलब्धिशब्देन ज्ञानं प्रत्यक्षमर्थतः। तत् किं ज्ञानावृतैः स्वीयकर्मणोऽन्यत्र तत्क्षतिः ।200। मत्याद्यावरणस्योच्चैः कर्मणोऽनुदयाद्यथा। दृङ्मोहस्योदयाभावादात्मशुद्धोपलब्धिः स्यात् ।203। किंचोपलब्धिशब्दोऽपि स्यादनेकार्थवाचकः। शुद्धोपलब्धिरित्युक्ता स्यादशुद्धत्वहानये ।204। बुद्धिमानत्र संवेद्यो यः स्वयं स्यात्स वेदकः। स्मृतिव्यतिरिक्तं ज्ञानमुपलब्धिरियं यतः ।208।</span> | |||
<span class="HindiText">= प्रश्न-वास्तव में ज्ञान चेतना को लक्षणभूत आत्मोपलब्धि में `उपलब्धि' शब्द से `प्रत्यक्षज्ञान' ऐसा अर्थ निकलता है। इसलिए ज्ञानावरणीय को आत्मोपलब्धि का घातक मानना चाहिए, मिथ्यात्व कर्म को नहीं। किंतु ऊपर के पद (199) में मिथ्यात्व के उदय को उस आत्मोपलब्धि का घातक माना है। तो क्या ज्ञानघातक ज्ञानावरण के सिवाय किसी और कर्म से भी उस आत्मोपलब्धि का घात होता है ।200। उत्तर-1. जैसे वास्तविक आत्मा को शुद्धोपलब्धिस्वयोग्यमतिज्ञानावरण कर्म के अभाव से होती है, वैसे ही दर्शनमोहनीय कर्म के उदय के अभाव से भी होती है ।203। 2. दूसरा उत्तर यह है कि उपलब्धि शब्द भी अनेकार्थ वाचक है, इसलिए यहाँ पर प्रकरणवश अशुद्धता के अभाव को प्रगट करने के लिए `शुद्ध' उपलब्धि ऐसा कहा है ।204। क्योंकि शुद्धोपलब्धि में जो चेतनावान जीव ज्ञेय होता है वही स्वयं ज्ञानी माना जाता है, अर्थात् निश्चय से ज्ञान और ज्ञेय में कोई अंतर नहीं होता। इसलिए यह शुद्धोपलब्धि अतींद्रिय ज्ञानरूप पड़ती है। भावार्थ-`उपलब्धि' शब्द का अर्थ जिस प्रकार नेत्रादि इंद्रियों द्वारा बाह्य पदार्थों का प्रत्यक्ष ग्रहण करने में आता है, उसी प्रकार अतींद्रिय ज्ञान द्वारा अंतरंग पदार्थ अर्थात् अंतरात्मा का प्रत्यक्ष अनुभव करना भी उसी शब्द का वाच्य है। अंतर केवल इतना है कि इसके साथ `शुद्ध' विशेषण लगा दिया गया है।</span> | <span class="HindiText">= प्रश्न-वास्तव में ज्ञान चेतना को लक्षणभूत आत्मोपलब्धि में `उपलब्धि' शब्द से `प्रत्यक्षज्ञान' ऐसा अर्थ निकलता है। इसलिए ज्ञानावरणीय को आत्मोपलब्धि का घातक मानना चाहिए, मिथ्यात्व कर्म को नहीं। किंतु ऊपर के पद (199) में मिथ्यात्व के उदय को उस आत्मोपलब्धि का घातक माना है। तो क्या ज्ञानघातक ज्ञानावरण के सिवाय किसी और कर्म से भी उस आत्मोपलब्धि का घात होता है ।200। उत्तर-1. जैसे वास्तविक आत्मा को शुद्धोपलब्धिस्वयोग्यमतिज्ञानावरण कर्म के अभाव से होती है, वैसे ही दर्शनमोहनीय कर्म के उदय के अभाव से भी होती है ।203। 2. दूसरा उत्तर यह है कि उपलब्धि शब्द भी अनेकार्थ वाचक है, इसलिए यहाँ पर प्रकरणवश अशुद्धता के अभाव को प्रगट करने के लिए `शुद्ध' उपलब्धि ऐसा कहा है ।204। क्योंकि शुद्धोपलब्धि में जो चेतनावान जीव ज्ञेय होता है वही स्वयं ज्ञानी माना जाता है, अर्थात् निश्चय से ज्ञान और ज्ञेय में कोई अंतर नहीं होता। इसलिए यह शुद्धोपलब्धि अतींद्रिय ज्ञानरूप पड़ती है। भावार्थ-`उपलब्धि' शब्द का अर्थ जिस प्रकार नेत्रादि इंद्रियों द्वारा बाह्य पदार्थों का प्रत्यक्ष ग्रहण करने में आता है, उसी प्रकार अतींद्रिय ज्ञान द्वारा अंतरंग पदार्थ अर्थात् अंतरात्मा का प्रत्यक्ष अनुभव करना भी उसी शब्द का वाच्य है। अंतर केवल इतना है कि इसके साथ `शुद्ध' विशेषण लगा दिया गया है।</span><br> | ||
<p>• उपलब्धि व अनुपलब्धि रूप हेतु - देखें [[ हेतु ]]।</span></li> | |||
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Latest revision as of 09:22, 29 June 2023
- ज्ञान के अर्थ में
सिद्धि विनिश्चय/विवरण 1/2/8/14 उपलभ्यते अनया वस्तुतत्त्वमिति उपलब्धिः, अर्थादापन्ना तदाकारा च बुद्धिः। = जिसके द्वारा वस्तुतत्त्व उपलब्ध किया जाता हो या ग्रहण किया जाता हो, वह उपलब्धि है। पदार्थ से उत्पन्न होने वाली तदाकार परिणत बुद्धि उपलब्धि है। पंचास्तिकाय संग्रह / तत्त्वप्रदीपिका / गाथा 39 चेतयते अनुभवंति उपलभंते विंदंतीत्येकार्थश्चेतनानुभूत्युपलब्धिवेदनानामेकार्थतत्त्वात्। = चेतता है, अनुभव करता है, उपलब्ध करता है, और वेदता है, ये एकार्थ हैं; क्योंकि चेतना, अनुभूति, उपलब्धि और वेदना एकार्थक हैं। पंचास्तिकाय संग्रह / तात्पर्यवृत्ति / गाथा 43/86/1 मतिज्ञानावरणीयक्षयोपशमजनितार्थग्रहणशक्तिरुपलब्धिः। = मतिज्ञानावरणीय के क्षयोपशम से उत्पन्न अर्थ ग्रहण करने की शक्ति को उपलब्धि कहते हैं। - अनुराग के अर्थ में
पंचाध्यायी/उत्तरार्ध 435 अथानुरागशब्दस्य विधिर्वाच्यो यदार्थतः। प्राप्तिः स्यादुपलब्धिर्वा शब्दाश्चैकार्थवाचकाः ।435। = जिस समय अनुराग शब्द का अर्थ की अपेक्षा से विधिरूप अर्थ वक्तव्य होता है, उस समय अनुराग शब्द का अर्थ प्राप्ति व उपलब्धि होता है; क्योंकि अनुराग, प्राप्ति और उपलब्धि ये तीनों शब्द एकार्थवाचक हैं। - सम्यक्त्व या ज्ञानचेतना के अर्थ में
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध श्लोक 200-208 ननूपलब्धिशब्देन ज्ञानं प्रत्यक्षमर्थतः। तत् किं ज्ञानावृतैः स्वीयकर्मणोऽन्यत्र तत्क्षतिः ।200। मत्याद्यावरणस्योच्चैः कर्मणोऽनुदयाद्यथा। दृङ्मोहस्योदयाभावादात्मशुद्धोपलब्धिः स्यात् ।203। किंचोपलब्धिशब्दोऽपि स्यादनेकार्थवाचकः। शुद्धोपलब्धिरित्युक्ता स्यादशुद्धत्वहानये ।204। बुद्धिमानत्र संवेद्यो यः स्वयं स्यात्स वेदकः। स्मृतिव्यतिरिक्तं ज्ञानमुपलब्धिरियं यतः ।208। = प्रश्न-वास्तव में ज्ञान चेतना को लक्षणभूत आत्मोपलब्धि में `उपलब्धि' शब्द से `प्रत्यक्षज्ञान' ऐसा अर्थ निकलता है। इसलिए ज्ञानावरणीय को आत्मोपलब्धि का घातक मानना चाहिए, मिथ्यात्व कर्म को नहीं। किंतु ऊपर के पद (199) में मिथ्यात्व के उदय को उस आत्मोपलब्धि का घातक माना है। तो क्या ज्ञानघातक ज्ञानावरण के सिवाय किसी और कर्म से भी उस आत्मोपलब्धि का घात होता है ।200। उत्तर-1. जैसे वास्तविक आत्मा को शुद्धोपलब्धिस्वयोग्यमतिज्ञानावरण कर्म के अभाव से होती है, वैसे ही दर्शनमोहनीय कर्म के उदय के अभाव से भी होती है ।203। 2. दूसरा उत्तर यह है कि उपलब्धि शब्द भी अनेकार्थ वाचक है, इसलिए यहाँ पर प्रकरणवश अशुद्धता के अभाव को प्रगट करने के लिए `शुद्ध' उपलब्धि ऐसा कहा है ।204। क्योंकि शुद्धोपलब्धि में जो चेतनावान जीव ज्ञेय होता है वही स्वयं ज्ञानी माना जाता है, अर्थात् निश्चय से ज्ञान और ज्ञेय में कोई अंतर नहीं होता। इसलिए यह शुद्धोपलब्धि अतींद्रिय ज्ञानरूप पड़ती है। भावार्थ-`उपलब्धि' शब्द का अर्थ जिस प्रकार नेत्रादि इंद्रियों द्वारा बाह्य पदार्थों का प्रत्यक्ष ग्रहण करने में आता है, उसी प्रकार अतींद्रिय ज्ञान द्वारा अंतरंग पदार्थ अर्थात् अंतरात्मा का प्रत्यक्ष अनुभव करना भी उसी शब्द का वाच्य है। अंतर केवल इतना है कि इसके साथ `शुद्ध' विशेषण लगा दिया गया है।
• उपलब्धि व अनुपलब्धि रूप हेतु - देखें हेतु ।