उपशम सम्यक्त्व: Difference between revisions
From जैनकोष
(Imported from text file) |
J2jinendra (talk | contribs) No edit summary |
||
(4 intermediate revisions by 3 users not shown) | |||
Line 1: | Line 1: | ||
<span class="GRef">पंचसंग्रह / प्राकृत/1/165-166</span><p class=" PrakritText ">देवे अणण्णभावो विसयविरागो य तच्चसद्दहणं। दिट्ठीसु असम्मोहो सम्मत्तमणूणयं जाणे।165। दंसणमोहस्सुदए उवसंते सच्चभावसद्दहणं। उवसमसम्मत्तमिणं पसण्णकलुसं जहा तोयं।166।</p> | |||
<p class="HindiText">='''उपशम सम्यक्त्व''' के होने पर जीव के सत्यार्थ देव में अनन्य भक्तिभाव, विषयों से विराग, तत्त्वों का श्रद्धान और विविध मिथ्यादृष्टियों (मतों) में असम्मोह प्रगट होता है। इसे क्षायिक सम्यक्त्व से कुछ भी कम नहीं जानना चाहिए।165। जिस प्रकार पंकादि जनित कालुष्य के प्रशांत होने पर जल निर्मल हो जाता है, उसी प्रकार दर्शन मोह के उदय के उपशांत होने पर जो सत्यार्थ श्रद्धान उत्पन्न होता है, उसे उपशम सम्यग्दर्शन कहते हैं।166।</p> | |||
<p class="HindiText">अधिक जानकारी के लिये देखें [[ सम्यग्दर्शन#IV.2 | सम्यग्दर्शन - IV.2]]</p> | |||
<noinclude> | <noinclude> | ||
[[ उपशम सत्त्व काल | [[ उपशम सत्त्व काल | पूर्व पृष्ठ ]] | ||
[[ | [[ उपशमक | अगला पृष्ठ ]] | ||
</noinclude> | </noinclude> | ||
[[Category: उ]] | [[Category: उ]] | ||
[[Category: करणानुयोग]] |
Latest revision as of 10:02, 29 June 2023
पंचसंग्रह / प्राकृत/1/165-166
देवे अणण्णभावो विसयविरागो य तच्चसद्दहणं। दिट्ठीसु असम्मोहो सम्मत्तमणूणयं जाणे।165। दंसणमोहस्सुदए उवसंते सच्चभावसद्दहणं। उवसमसम्मत्तमिणं पसण्णकलुसं जहा तोयं।166।
=उपशम सम्यक्त्व के होने पर जीव के सत्यार्थ देव में अनन्य भक्तिभाव, विषयों से विराग, तत्त्वों का श्रद्धान और विविध मिथ्यादृष्टियों (मतों) में असम्मोह प्रगट होता है। इसे क्षायिक सम्यक्त्व से कुछ भी कम नहीं जानना चाहिए।165। जिस प्रकार पंकादि जनित कालुष्य के प्रशांत होने पर जल निर्मल हो जाता है, उसी प्रकार दर्शन मोह के उदय के उपशांत होने पर जो सत्यार्थ श्रद्धान उत्पन्न होता है, उसे उपशम सम्यग्दर्शन कहते हैं।166।
अधिक जानकारी के लिये देखें सम्यग्दर्शन - IV.2