पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 136 - तात्पर्य-वृत्ति - हिंदी: Difference between revisions
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<p>[कोधो व] उत्तम क्षमा परिणति-रूप शुद्धात्म-तत्त्व की संवित्ति से प्रतिपक्ष-भूत होने-वाले क्रोधादि [या जदा माणो] अथवा जिस समय निरहंकार शुद्धात्मा की उपलब्धि से प्रतिकूल मान, माया अथवा नि:प्रपंच आत्मा की उपलब्धि से विपरीत माया, [लोहो व] अथवा शुद्धात्मा की भावना से उत्पन्न तृप्ति का प्रतिबंधक लोभ [चित्तमासेज्ज] चित्त का आश्रय-कर [जीवस्स कुणदि खोहं] अक्षुभित शुद्धात्मा की अनुभूति से विपरीत जीव को क्षोभ, चित्त की विकलता करता है, [कलुसोत्ति य तं बुधा वेंति] तो वह क्रोधादि जनित चित्त की विकलता, कलुषता है ऐसा ज्ञानी कहते हैं ।</p> | <p><span class="SansWord">[कोधो व]</span> उत्तम क्षमा परिणति-रूप शुद्धात्म-तत्त्व की संवित्ति से प्रतिपक्ष-भूत होने-वाले क्रोधादि <span class="SansWord">[या जदा माणो]</span> अथवा जिस समय निरहंकार शुद्धात्मा की उपलब्धि से प्रतिकूल मान, माया अथवा नि:प्रपंच आत्मा की उपलब्धि से विपरीत माया, <span class="SansWord">[लोहो व]</span> अथवा शुद्धात्मा की भावना से उत्पन्न तृप्ति का प्रतिबंधक लोभ <span class="SansWord">[चित्तमासेज्ज]</span> चित्त का आश्रय-कर <span class="SansWord">[जीवस्स कुणदि खोहं]</span> अक्षुभित शुद्धात्मा की अनुभूति से विपरीत जीव को क्षोभ, चित्त की विकलता करता है, <span class="SansWord">[कलुसोत्ति य तं बुधा वेंति]</span> तो वह क्रोधादि जनित चित्त की विकलता, कलुषता है ऐसा ज्ञानी कहते हैं ।</p> | ||
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<p>वह इसप्रकार -- उस कलुषता से विपरीत अकलुषता कहलाती है और वह पुण्यास्रव की कारण-भूत अकलुषता अनन्तानुबंधी कषाय का मंद उदय होने पर कदाचित् अज्ञानी को होती है तथा निर्विकार स्व-संवित्ति का अभाव होने पर दुर्ध्यान को नष्ट करने के लिए कदाचित् ज्ञानी की भी होती है, ऐसा अभिप्राय है ॥१४६॥</p> | <p>वह इसप्रकार -- उस कलुषता से विपरीत अकलुषता कहलाती है और वह पुण्यास्रव की कारण-भूत अकलुषता अनन्तानुबंधी कषाय का मंद उदय होने पर कदाचित् अज्ञानी को होती है तथा निर्विकार स्व-संवित्ति का अभाव होने पर दुर्ध्यान को नष्ट करने के लिए कदाचित् ज्ञानी की भी होती है, ऐसा अभिप्राय है ॥१४६॥</p> | ||
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Latest revision as of 13:16, 30 June 2023
[कोधो व] उत्तम क्षमा परिणति-रूप शुद्धात्म-तत्त्व की संवित्ति से प्रतिपक्ष-भूत होने-वाले क्रोधादि [या जदा माणो] अथवा जिस समय निरहंकार शुद्धात्मा की उपलब्धि से प्रतिकूल मान, माया अथवा नि:प्रपंच आत्मा की उपलब्धि से विपरीत माया, [लोहो व] अथवा शुद्धात्मा की भावना से उत्पन्न तृप्ति का प्रतिबंधक लोभ [चित्तमासेज्ज] चित्त का आश्रय-कर [जीवस्स कुणदि खोहं] अक्षुभित शुद्धात्मा की अनुभूति से विपरीत जीव को क्षोभ, चित्त की विकलता करता है, [कलुसोत्ति य तं बुधा वेंति] तो वह क्रोधादि जनित चित्त की विकलता, कलुषता है ऐसा ज्ञानी कहते हैं ।
वह इसप्रकार -- उस कलुषता से विपरीत अकलुषता कहलाती है और वह पुण्यास्रव की कारण-भूत अकलुषता अनन्तानुबंधी कषाय का मंद उदय होने पर कदाचित् अज्ञानी को होती है तथा निर्विकार स्व-संवित्ति का अभाव होने पर दुर्ध्यान को नष्ट करने के लिए कदाचित् ज्ञानी की भी होती है, ऐसा अभिप्राय है ॥१४६॥