पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 57 - तात्पर्य-वृत्ति - हिंदी: Difference between revisions
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<p>[कम्मेण विणा] कर्म के बिना; भावकर्म, द्रव्यकर्म, नोकर्म से विलक्षण शुद्ध ज्ञान-दर्शन लक्षण-मयी परमात्मा से विपरीत जो उदयागत द्रव्य-कर्म हैं; उनके बिना [उदयं जीवस्स ण विज्जदे] रागादि परिणाम-रूप औदयिक भाव जीव के नहीं होता है । मात्र औदयिक भाव ही नहीं होता है; ऐसा नहीं है; अपितु [उवसमो वा] औपशमिक भाव भी उसी द्रव्य-कर्म के उपशम बिना नहीं होता है । [खज्ञयं खओवसमियं] क्षायिक-भाव, क्षायोपशमिक-भाव उसी द्रव्य-कर्म के क्षय, क्षयोपशम के बिना नहीं होते हैं; [तम्हा भावं तु कम्मकदं] इसलिए भाव कर्म-कृत हैं; जिस कारण शुद्ध पारिणामिक भाव को छोडकर पूर्वोक्त औदयिक, औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक -- ये चार भाव द्रव्य-कर्म के बिना नहीं होते हैं, उससे ही ज्ञात होता है कि जीव के औदयिक आदि चार भाव अनुपचरित असद्भूत व्यवहार से द्रव्य-कर्म-कृत हैं ।</p> | <p><span class="SansWord">[कम्मेण विणा]</span> कर्म के बिना; भावकर्म, द्रव्यकर्म, नोकर्म से विलक्षण शुद्ध ज्ञान-दर्शन लक्षण-मयी परमात्मा से विपरीत जो उदयागत द्रव्य-कर्म हैं; उनके बिना <span class="SansWord">[उदयं जीवस्स ण विज्जदे]</span> रागादि परिणाम-रूप औदयिक भाव जीव के नहीं होता है । मात्र औदयिक भाव ही नहीं होता है; ऐसा नहीं है; अपितु <span class="SansWord">[उवसमो वा]</span> औपशमिक भाव भी उसी द्रव्य-कर्म के उपशम बिना नहीं होता है । <span class="SansWord">[खज्ञयं खओवसमियं]</span> क्षायिक-भाव, क्षायोपशमिक-भाव उसी द्रव्य-कर्म के क्षय, क्षयोपशम के बिना नहीं होते हैं; <span class="SansWord">[तम्हा भावं तु कम्मकदं]</span> इसलिए भाव कर्म-कृत हैं; जिस कारण शुद्ध पारिणामिक भाव को छोडकर पूर्वोक्त औदयिक, औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक -- ये चार भाव द्रव्य-कर्म के बिना नहीं होते हैं, उससे ही ज्ञात होता है कि जीव के औदयिक आदि चार भाव अनुपचरित असद्भूत व्यवहार से द्रव्य-कर्म-कृत हैं ।</p> | ||
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<p>इस सूत्र में सामान्य से केवल-ज्ञानादि क्षायिक नव-लब्धि रूप और विशेष से केवल-ज्ञान में अन्तर्भूत जो अनाकुलत्व लक्षण निश्चय-सुख, तत्प्रभृति जो अनन्त-गुण, उनका आधार-भूत जो वह क्षायिक-भाव है, वह ही सर्वप्रकार से उपादेय-भूत है -- ऐसा मन से श्रद्धान करना चाहिए, जानना चाहिए और मिथ्यात्व-रागादि विकल्प-जाल के त्याग-रूप से (उसका ही) निरन्तर ध्यान करना चाहिए -- ऐसा भावार्थ है ॥६४॥</p> | <p>इस सूत्र में सामान्य से केवल-ज्ञानादि क्षायिक नव-लब्धि रूप और विशेष से केवल-ज्ञान में अन्तर्भूत जो अनाकुलत्व लक्षण निश्चय-सुख, तत्प्रभृति जो अनन्त-गुण, उनका आधार-भूत जो वह क्षायिक-भाव है, वह ही सर्वप्रकार से उपादेय-भूत है -- ऐसा मन से श्रद्धान करना चाहिए, जानना चाहिए और मिथ्यात्व-रागादि विकल्प-जाल के त्याग-रूप से (उसका ही) निरन्तर ध्यान करना चाहिए -- ऐसा भावार्थ है ॥६४॥</p> |
Latest revision as of 13:16, 30 June 2023
[कम्मेण विणा] कर्म के बिना; भावकर्म, द्रव्यकर्म, नोकर्म से विलक्षण शुद्ध ज्ञान-दर्शन लक्षण-मयी परमात्मा से विपरीत जो उदयागत द्रव्य-कर्म हैं; उनके बिना [उदयं जीवस्स ण विज्जदे] रागादि परिणाम-रूप औदयिक भाव जीव के नहीं होता है । मात्र औदयिक भाव ही नहीं होता है; ऐसा नहीं है; अपितु [उवसमो वा] औपशमिक भाव भी उसी द्रव्य-कर्म के उपशम बिना नहीं होता है । [खज्ञयं खओवसमियं] क्षायिक-भाव, क्षायोपशमिक-भाव उसी द्रव्य-कर्म के क्षय, क्षयोपशम के बिना नहीं होते हैं; [तम्हा भावं तु कम्मकदं] इसलिए भाव कर्म-कृत हैं; जिस कारण शुद्ध पारिणामिक भाव को छोडकर पूर्वोक्त औदयिक, औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक -- ये चार भाव द्रव्य-कर्म के बिना नहीं होते हैं, उससे ही ज्ञात होता है कि जीव के औदयिक आदि चार भाव अनुपचरित असद्भूत व्यवहार से द्रव्य-कर्म-कृत हैं ।
इस सूत्र में सामान्य से केवल-ज्ञानादि क्षायिक नव-लब्धि रूप और विशेष से केवल-ज्ञान में अन्तर्भूत जो अनाकुलत्व लक्षण निश्चय-सुख, तत्प्रभृति जो अनन्त-गुण, उनका आधार-भूत जो वह क्षायिक-भाव है, वह ही सर्वप्रकार से उपादेय-भूत है -- ऐसा मन से श्रद्धान करना चाहिए, जानना चाहिए और मिथ्यात्व-रागादि विकल्प-जाल के त्याग-रूप से (उसका ही) निरन्तर ध्यान करना चाहिए -- ऐसा भावार्थ है ॥६४॥
इसप्रकार अनुपचरित असद्भूत व्यवहार से उन्हीं भावों का कर्म कर्ता है, इस व्याख्यान की मुख्यता से गाथा पूर्ण हुई ।
इस प्रकार पूर्व गाथा में निश्चय से रागादि भावों का कर्ता जीव को कहा गया था और यहाँ व्यवहार से कर्म को कर्ता कहा गया है इसप्रकार दो स्वतंत्र गाथायें पूर्ण हुईं ।