पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 117 - तात्पर्य-वृत्ति: Difference between revisions
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Latest revision as of 13:26, 30 June 2023
खीणे पुव्वणिबद्धे गदिणामे आउसे च ते वि खलु । (117)
पापुण्णंति य अण्णं गदिमाउस्सं सलेस्सवसा ॥127॥
अर्थ:
पूर्व-बद्ध गति नाम-कर्म और आयु-कर्म क्षीण होने पर वे ही जीव अपनी लेश्या के वश से वास्तव में अन्य गति और अन्य आयु को प्राप्त होते हैं ।
तात्पर्य-वृत्ति हिंदी :
क्रम से फल देकर क्षीण होने पर । किनके क्षीण होने पर ? पूर्वनिबद्ध, पूर्वोपार्जित गति नाम-कर्म और आयु के क्षीण होने पर वास्तव में वे ही जीवरूप कर्ता प्राप्त करते हैं। वे किसे प्राप्त करते हैं ? भवान्तर में (दूसरे भव में) मनुष्यगति की अपेक्षा अन्य नवीन देवगति आदि गति नाम और आयु को प्राप्त करते हैं । वे कैसे होते हुए इन्हें प्राप्त करते हैं ? अपनी लेश्या वश, अपने परिणामों के अधीन हो इन्हें प्राप्त करते हैं ।
वह इसप्रकार -- 'चण्ड (तीव्र क्रोधादि सहित), वैर नहीं छोडने-वाला, कलह / युद्ध-प्रिय, धर्म-दया से रहित, दुष्ट, दूसरों के वश नहीं होनेवाला-ये कृष्ण लेश्यावाले के लक्षण हैं ।' इत्यादि रूप से कृष्ण आदि छह लेश्याओं के लक्षण `गोम्मटसार शास्त्र' आदि में विस्तार से कहे गए हैं; उन्हें यहाँ नहीं कह रहे हैं । यहाँ उन्हें क्यों नहीं कह रहे हैं ? अध्यात्म-ग्रंथ होने से उन्हें यहाँ नहीं कह रहे हैं;
तथापि संक्षेप से यहाँ कहते हैं कषाय के उदय से अनुरंजित योग प्रवृत्ति लेश्या है और वह गति नाम-कर्म का बीज, कारण है; उस कारण उसका विनाश करना चाहिए । उसका विनाश कैसे करें ? यदि ऐसा प्रश्न हो तो कहते हैं -- क्रोध, मान, माया, लोभ रूप चार कषाय के उदय से भिन्न और अनन्त ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य रूप अनन्त चतुष्टय से अभिन्न परमात्मा में जब भावना की जाती है; तब कषायोदय का विनाश होता है । उस भावना / तद्रूप परिणमन के लिए ही शुभाशुभ मन-वचन-काय के व्यापार का परिहार होने पर तीनों योगों का अभाव है और कषायोदय से रंजित योग प्रवृत्ति रूप लेश्या का विनाश है। उसका अभाव होने पर गति नामकर्म, आयुकर्म का अभाव होता है; उन दोनों का अभाव होने पर अक्षय अनन्त सुख आदि गुण का, मोक्ष का लाभ होता है, ऐसा सूत्र का अभिप्राय है ॥१२७॥