पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 167 - तात्पर्य-वृत्ति: Difference between revisions
From जैनकोष
(Imported from text file) |
(Imported from text file) |
||
Line 9: | Line 9: | ||
[[ ग्रन्थ:पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 168 - तात्पर्य-वृत्ति | अगला पृष्ठ ]] | [[ ग्रन्थ:पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 168 - तात्पर्य-वृत्ति | अगला पृष्ठ ]] | ||
[[ ग्रन्थ:पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र गाथा 167 - समय-व्याख्या | इसी गाथा की समय-व्याख्या टीका]] | [[ ग्रन्थ:पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 167 - समय-व्याख्या | इसी गाथा की समय-व्याख्या टीका]] | ||
[[ ग्रन्थ:पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - तात्पर्य-वृत्ति अनुक्रमणिका | तात्पर्य-वृत्ति अनुक्रमणिका ]] | [[ ग्रन्थ:पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - तात्पर्य-वृत्ति अनुक्रमणिका | तात्पर्य-वृत्ति अनुक्रमणिका ]] |
Latest revision as of 13:26, 30 June 2023
तम्हा णिव्वुदिकामो णिस्संगो णिम्ममो य भविय पुणॊ । (167)
सिद्धेसु कुणदि भत्तिं णिव्वाणं तेण पप्पेदि ॥177॥
अर्थ:
इसलिए निर्वाण का इच्छुक जीव नि:संग और निर्मम होकर सिद्धों में भक्ति करता है, उससे वह निर्वाण को प्राप्त होता है ।
तात्पर्य-वृत्ति हिंदी :
[तम्हा] इसलिए, [अण्णाणादो णाणी] इत्यादि चार गाथाओं द्वारा चित्तगत रागादि विकल्प-जाल आस्रव के कारण कहे हैं; उस कारण [णिव्वुदिकामो] निर्वृत्ति / मोक्ष का अभिलाषी पुरुष निस्संगो नि:संग आत्म-तत्त्व से विपरीत बाह्य-आभ्यन्तर परिग्रह से रहित होने के कारण नि:संग [णिम्ममो] और रागादि उपाधि से रहित चैतन्य-मय प्रकाश लक्षण आत्म-तत्त्व से विपरीत मोहोदय से उत्पन्न ममकार-अहंकार आदि रूप विकल्प-जाल से रहित होने के कारण निर्मोह, निर्मम भवीय होकर पुणो फिर सिद्धेसु सिद्ध गुणों के समान अपने अनन्त ज्ञान आदि गुणों में करो । उनमें क्या करो ? [भत्तिं] उनमें पारमार्थिक स्व-सम्वित्ति रूप सिद्ध भक्ति करो । उससे क्या होता है ? [तेण] उस सिद्ध-भक्ति रूप परिणाम से [णिव्वाणं] शुद्धात्मोपलब्धि रूप निर्वाण [पप्पोदि] प्राप्त होता है, ऐसा भावार्थ है ॥१७७॥
इसप्रकार सूक्ष्म परसमय-व्याख्यान की मुख्यता से नवमें स्थल में पाँच गाथायें पूर्ण हुईं ।