पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 63 - तात्पर्य-वृत्ति: Difference between revisions
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Latest revision as of 13:26, 30 June 2023
ओगाढगाढणिचिदो पोग्गलकायेंहिं सव्वदो लोगो । (63)
सुहुमेहिं बादरेहिं य णंताणंतेहिं विविहेहिं ॥70॥
अर्थ:
लोक सर्व प्रदेशों में विविध प्रकार के अनन्तानंत सूक्ष्म-बादरपुद्गलकायों द्वारा अवगाहित होकर गाढ़ भरा हुआ है।
तात्पर्य-वृत्ति हिंदी :
[ओगाढगाढणिचिदो] अवगाढ गाढ भरा हुआ है । जैसे अंजन (काजल) की डिब्बी अंजन के चूर्ण से पूर्ण भरी हुई है, इसी न्याय से पृथ्वी-कायिक आदि पाँच प्रकार के सूक्ष्म स्थावरों से निरन्तर अवगाढ़ रूप से भरा हुआ है । वह कौन भरा है ? [लोगो] लोक भरा है । [पोग्गलकायेंहिं] और उसी प्रकार पुद्गल-कायों से भी भरा हुआ है । वह कैसा भरा हुआ है ? [सव्वदो] सभी प्रदेशों में भरा हुआ है । किस प्रकार के पुद्गल-कायों से भरा हुआ है ? [सुहुमेहिं वादरेहिं य] दृष्टि के अगोचर सूक्ष्म और दृष्टि के विषय बादर कायों से भरा है । कितनी संख्या सहित काय से भरा है ? [अणंताणंतेहिं] अनंतानंत कायों से भरा किन विशेषतावालों से भरा है ? [विविहेहिं] अनेक प्रकार के अन्तर-भेद से बहु-भेद-वाले कायों से भरा है ।
यहाँ, जहाँ आत्मा विद्यमान है, वहाँ कर्म-वर्गणा योग्य पुद्गल बिना लाए पहले से ही रह रहे हैं; बंध के समय बाद में भी आ जायेंगे; यद्यपि वे वहाँ आत्मा में क्षीर-नीर न्याय से अवगाहित होकर गाढ़ (ठसाठस) भरे हुए हैं; तथापि वे हेय हैं; उनसे भिन्न जो शुद्ध-बुद्ध एक स्वभाव परमात्मा है, वह ही उपादेय है ऐसा भावार्थ है ॥७०॥