दिशा: Difference between revisions
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<span class="GRef"> भगवती आराधना / विजयोदया टीका/68/196/3 </span><span class="SanskritText">दिसा परलोकदिगुपदर्शपर: सूरिणा स्थापित: भवतां दिशं मोक्षवर्तन्याश्रयमुपदिशति य: सुरि: स दिशा इत्युच्यते।</span> =<span class="HindiText">दिशा अर्थात् आचार्य ने अपने स्थान पर स्थापित किया हुआ शिष्य जो परलोक का उपदेश करके मोक्षमार्ग में भव्यों को स्थिर करता है। संघाधिपति आचार्य ने यावज्जीव आचार्य पदावी का त्याग करके अपने पदपर स्थापा हुआ और आचार्य के समान जिसका गुणसमुदाय है ऐसा जो उनका शिष्य उनकी दिशा अर्थात् बालाचार्य हैं।<br /> | |||
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<span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/5/3/269/10 </span><span class="SanskritText">आदित्योदयाद्यपेक्षया आकाशप्रदेशपंक्तिषु इत इदमिति व्यवहारोपपत्ते:।</span> =<span class="HindiText">सूर्य के उदयादिक की अपेक्षा आकाश प्रदेश पंक्तियों में यहाँ से यह दिशा है इस प्रकार के व्यवहार की उत्पत्ति होती है।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> धवला 4/1,4,43/226/4 </span><span class="PrakritText"> सगट्ठाणादो कंडुज्जुवा दिसा णाम। ताओ छच्चेव, अण्णेसिमसंभवादो। ...सगट्ठाणादो कण्णायारेण टि्ठदखेत्तं विदिसा। </span>=<span class="HindiText">अपने स्थान से बाण की तरह सीधे क्षेत्र को दिशा कहते हैं। ये दिशाएँ छह ही होती हैं, क्योंकि अन्य दिशाओं का होना असंभव है...अपने स्थान से कर्णरेखा के आकार से स्थित क्षेत्र को विदिश कहते हैं। </span></li> | |||
<li class="HindiText" name="3" id="3"><strong> दिशा विदिशाओं के नाम व क्रम</strong> चार्ट</li> | <li class="HindiText" name="3" id="3"><strong> दिशा विदिशाओं के नाम व क्रम</strong> चार्ट</li> | ||
<li><span class="HindiText" name="4" id="4"><strong> शुभ कार्यों में पूर्व व उत्तर दिशा की | <li><span class="HindiText" name="4" id="4"><strong> शुभ कार्यों में पूर्व व उत्तर दिशा की प्रधानता का कारण</strong> </span><br><span class="GRef"> भगवती आराधना / विजयोदया टीका/560/771/3 </span><span class="SanskritText"> तिमिरापसारणपरस्य धर्मरश्मेरुदयदिगिति उदयार्थी तद्वदस्मत्कार्याभ्युदयो यथा स्यादिति लोक: प्राङ्मुखो भवति। ...उदङ्मुखता तु स्वयंप्रभादितीर्थकृतो विदेहस्थान् चेतसि कृत्वा तदभिमुखतया कार्यसिद्धिरिति। </span>=<span class="HindiText">अंधकार का नाश करने वाले सूर्य का पूर्व दिशा में उदय होता है अत: पूर्व दिशा प्रशस्त है। सूर्य के उदय के समान हमारे कार्य में भी दिन प्रतिदिन उन्नति होवे ऐसी इच्छा करने वाले लोग पूर्व दिशा की तरफ अपना मुख करके अपना इष्ट कार्य करते हैं।...विदेहक्षेत्र में स्वयंप्रभादि तीर्थंकर हो गये हैं, विदेह क्षेत्र उत्तर दिशा की तरफ है अत: उन तीर्थंकरों को हृदय में धारणकर उस दिशा की तरफ आचार्य अपना मुख कार्य सिद्धि के लिए करते हैं।</span></li> | ||
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Latest revision as of 19:40, 12 July 2023
- दिशा का लक्षण
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/68/196/3 दिसा परलोकदिगुपदर्शपर: सूरिणा स्थापित: भवतां दिशं मोक्षवर्तन्याश्रयमुपदिशति य: सुरि: स दिशा इत्युच्यते। =दिशा अर्थात् आचार्य ने अपने स्थान पर स्थापित किया हुआ शिष्य जो परलोक का उपदेश करके मोक्षमार्ग में भव्यों को स्थिर करता है। संघाधिपति आचार्य ने यावज्जीव आचार्य पदावी का त्याग करके अपने पदपर स्थापा हुआ और आचार्य के समान जिसका गुणसमुदाय है ऐसा जो उनका शिष्य उनकी दिशा अर्थात् बालाचार्य हैं।
- दिशा व विदिशा का लक्षण
सर्वार्थसिद्धि/5/3/269/10 आदित्योदयाद्यपेक्षया आकाशप्रदेशपंक्तिषु इत इदमिति व्यवहारोपपत्ते:। =सूर्य के उदयादिक की अपेक्षा आकाश प्रदेश पंक्तियों में यहाँ से यह दिशा है इस प्रकार के व्यवहार की उत्पत्ति होती है।
धवला 4/1,4,43/226/4 सगट्ठाणादो कंडुज्जुवा दिसा णाम। ताओ छच्चेव, अण्णेसिमसंभवादो। ...सगट्ठाणादो कण्णायारेण टि्ठदखेत्तं विदिसा। =अपने स्थान से बाण की तरह सीधे क्षेत्र को दिशा कहते हैं। ये दिशाएँ छह ही होती हैं, क्योंकि अन्य दिशाओं का होना असंभव है...अपने स्थान से कर्णरेखा के आकार से स्थित क्षेत्र को विदिश कहते हैं। - दिशा विदिशाओं के नाम व क्रम चार्ट
- शुभ कार्यों में पूर्व व उत्तर दिशा की प्रधानता का कारण
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/560/771/3 तिमिरापसारणपरस्य धर्मरश्मेरुदयदिगिति उदयार्थी तद्वदस्मत्कार्याभ्युदयो यथा स्यादिति लोक: प्राङ्मुखो भवति। ...उदङ्मुखता तु स्वयंप्रभादितीर्थकृतो विदेहस्थान् चेतसि कृत्वा तदभिमुखतया कार्यसिद्धिरिति। =अंधकार का नाश करने वाले सूर्य का पूर्व दिशा में उदय होता है अत: पूर्व दिशा प्रशस्त है। सूर्य के उदय के समान हमारे कार्य में भी दिन प्रतिदिन उन्नति होवे ऐसी इच्छा करने वाले लोग पूर्व दिशा की तरफ अपना मुख करके अपना इष्ट कार्य करते हैं।...विदेहक्षेत्र में स्वयंप्रभादि तीर्थंकर हो गये हैं, विदेह क्षेत्र उत्तर दिशा की तरफ है अत: उन तीर्थंकरों को हृदय में धारणकर उस दिशा की तरफ आचार्य अपना मुख कार्य सिद्धि के लिए करते हैं।