उत्तरमीमांसा: Difference between revisions
From जैनकोष
(Imported from text file) |
mNo edit summary |
||
(2 intermediate revisions by 2 users not shown) | |||
Line 1: | Line 1: | ||
<p>देखें [[ दर्शन ]]।</p> | <li class="HindiText" name="7" id="7"><strong> जैन दर्शन व वैदिक दर्शनों का समन्वय</strong><br> भले ही सांप्रदायिकता के कारण सर्वदर्शन एक-दूसरे के तत्त्वों का खंडन करते हों। परंतु साम्यवादी जैन दर्शन सबका खंडन करके उनका समन्वय करता है। या यह कहिए कि उन सर्व दर्शनमयी ही जैन दर्शन है, अथवा वे सर्वदर्शन जैनदर्शन के ही अंग हैं। अंतर केवल इतना ही है कि जिस अद्वैत शुद्धतत्त्व का परिचय देने के लिए वेद कर्ताओं को पाँच या सात दर्शनों की स्थापना करनी पड़ी, उसी का परिचय देने के लिए जैन दर्शन नयों का आश्रय लेता है। तहाँ वैशेषिक व नैयायिक दर्शनों के स्थान पर असद्भूत व सद्भूत व्यवहार नय है। सांख्य व योगदर्शन के स्थान पर शुद्ध व अशुद्ध द्रव्यार्थिकनय हैं। अद्वैत दर्शन के स्थान पर शुद्ध संग्रहनय है। इनके मध्य के अनेक विकल्पों के लिए भी अनेकों नय व उपनय हैं, जिनसे तत्त्व का सुंदर व स्पष्ट परिचय मिलता है। प्ररूपणा करने के ढंग में अंतर होते हुए भी, दोनों एक ही लक्ष्य को प्राप्त करते हैं। अद्वैत दर्शन की जिस निर्विकल्प दशा का ऊपर वर्णन कर आये हैं वही जैनदर्शन की कैवल्य अवस्था है। पूर्व मीमांसा के स्थान पर यहाँ दान व पूजा विधानादि, मध्य मीमांसा के स्थान पर यहाँ जिनेंद्र भक्ति रूप व्यवहार धर्म तथा '''उत्तर मीमांसा''' के स्थान पर धर्म व शुक्लध्यान हैं। तहाँ भी धर्मध्यान तो उसकी पहली व दूसरी अवस्था है और शुक्लध्यान उसकी तीसरी व चौथी अवस्था है।</li> | ||
<p class="HindiText">-अधिक जानकारी के लिए देखें [[ दर्शन ]]।</p> | |||
Line 9: | Line 12: | ||
</noinclude> | </noinclude> | ||
[[Category: उ]] | [[Category: उ]] | ||
[[Category: द्रव्यानुयोग]] |
Latest revision as of 10:57, 14 July 2023
भले ही सांप्रदायिकता के कारण सर्वदर्शन एक-दूसरे के तत्त्वों का खंडन करते हों। परंतु साम्यवादी जैन दर्शन सबका खंडन करके उनका समन्वय करता है। या यह कहिए कि उन सर्व दर्शनमयी ही जैन दर्शन है, अथवा वे सर्वदर्शन जैनदर्शन के ही अंग हैं। अंतर केवल इतना ही है कि जिस अद्वैत शुद्धतत्त्व का परिचय देने के लिए वेद कर्ताओं को पाँच या सात दर्शनों की स्थापना करनी पड़ी, उसी का परिचय देने के लिए जैन दर्शन नयों का आश्रय लेता है। तहाँ वैशेषिक व नैयायिक दर्शनों के स्थान पर असद्भूत व सद्भूत व्यवहार नय है। सांख्य व योगदर्शन के स्थान पर शुद्ध व अशुद्ध द्रव्यार्थिकनय हैं। अद्वैत दर्शन के स्थान पर शुद्ध संग्रहनय है। इनके मध्य के अनेक विकल्पों के लिए भी अनेकों नय व उपनय हैं, जिनसे तत्त्व का सुंदर व स्पष्ट परिचय मिलता है। प्ररूपणा करने के ढंग में अंतर होते हुए भी, दोनों एक ही लक्ष्य को प्राप्त करते हैं। अद्वैत दर्शन की जिस निर्विकल्प दशा का ऊपर वर्णन कर आये हैं वही जैनदर्शन की कैवल्य अवस्था है। पूर्व मीमांसा के स्थान पर यहाँ दान व पूजा विधानादि, मध्य मीमांसा के स्थान पर यहाँ जिनेंद्र भक्ति रूप व्यवहार धर्म तथा उत्तर मीमांसा के स्थान पर धर्म व शुक्लध्यान हैं। तहाँ भी धर्मध्यान तो उसकी पहली व दूसरी अवस्था है और शुक्लध्यान उसकी तीसरी व चौथी अवस्था है।
-अधिक जानकारी के लिए देखें दर्शन ।