पद्मपुराण - पर्व 10: Difference between revisions
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<div class="G_HindiText"> <p> अथानंतर- गौतमस्वामी राजा श्रेणिक से कहते हैं कि हे श्रेणिक! इस तरह तुमने बाली का वृत्तांत जाना। अब इसके आगे तेरे लिए सुग्रीव और सुतारा का श्रेष्ठ चरित क्या हूँ सो सुन ।।1।। ज्योतिपुर नामा नगर में राजा अग्निशिख की रानी ह्री देवी के उदर से उत्पन्न एक सुतारा नाम की कन्या थी। शोभा से समस्त पृथिवी में प्रसिद्ध थी और ऐसी जान पड़ती थी मानो कमलरूपी आवास को छोड़कर लक्ष्मी ही आ गयी हो ।।2-3।। एक दिन राजा चक्रांक और अनुमति रानी से उत्पन्न साहसगति नामक दुष्ट विद्याधर अपनी इच्छा से इधर उधर भ्रमण कर रहा था सो उसने सुतारा देखी ।।4।। उसे देखकर वह कामरूपी शल्य से विद्ध होकर अत्यंत दुःखी हुआ। वह सुतारा को निरंतर अपने मन में धारण करता था और उन्मत्त जैसी उसकी चेष्टा थी ।।5।। इधर वह एक के बाद एक दूत भेजकर उसकी याचना करता था उधर सुग्रीव भी उस मनोहर कन्या की याचना करता था ।।6।। ‘अपनी कन्या दो में से किसे दूँ’ इस प्रकार द्वैधीभाव को प्राप्त हुआ राजा अग्निशिख निश्चय नहीं कर सका इसलिए उसकी आत्मा निरंतर व्याकुल रहती थी। आखिर महाज्ञानी मुनिराज से पूछा ।।7।। तब महाज्ञानी मुनिचंद्र ने कहा कि साहसगति चिरकाल तक जीवित नहीं रहेगा- अल्पायु है और सुग्रीव इसके विपरीत परम अभ्युदय का धारक तथा चिरायु है ।।8।। राजा अग्निशिख, साहसगति के पिता चक्रांक का पक्ष प्रबल होने से मुनिचंद्र के वचनों का निश्चय नहीं कर सका तब मुनिचंद्र ने दो दीपक, दो वृष और गजराजों को निमित्त बनाकर उसे अपनी बात का दृढ़ निश्चय करा दिया ।।9।। तदनंतर मुनिराज के अमृत तुल्य वचनों का निश्चय कर पिता अग्निशिख ने अपनी पुत्री सुतारा लाकर मंगलाचार पूर्वक सुग्रीव के लिए दे दी ।।10।। जिसका पुण्य का संचय प्रबल था ऐसा सुग्रीव उस कन्या को विवाह कर बड़ी संपदा के साथ श्रेष्ठ कामोपभोग को प्राप्त हुआ ।।11।। तदनंतर सुग्रीव और सुतारा के क्रम से दो पुत्र उत्पन्न हुए। दोनों ही अत्यंत सुंदर थे। उनमें से बड़े पुत्र का नाम अंग था और छोटा पुत्र अंगद के नाम से प्रसिद्ध था ।।12।। राजा चक्रांक का पुत्र साहसगति इतना निर्लज्ज था कि वह अब भी सुतारा की आशा नहीं छोड़ रहा था सो आचार्य कहते हैं कि इस काम से दूषित आशा को धिक्कार हो ।।13।। जो कामाग्नि से जल रहा था ऐसा, सारहीन मन का धारक साहसगति निरंतर यही विचार करता रहता था कि मैं सुख देने वाली उस कन्या को किस उपाय से प्राप्त कर सकूँगा ।।14।। जिसने अपनी शोभा से चंद्रमा को जीत लिया है और जिसका ओंठ स्फुरायमान लाल कांति से आच्छादित है ऐसे उसके मुख का कब चुंबन करूँगा? ।।15।। नंदनवन के मध्य में उसके साथ कब क्रीड़ा करूँगा और उसके स्थूल स्तनों के स्पर्शजन्य सुखोत्सव को कब प्राप्त होऊँगा ।।16।। | <span id="1" /><div class="G_HindiText"> <p> अथानंतर- गौतमस्वामी राजा श्रेणिक से कहते हैं कि हे श्रेणिक! इस तरह तुमने बाली का वृत्तांत जाना। अब इसके आगे तेरे लिए सुग्रीव और सुतारा का श्रेष्ठ चरित क्या हूँ सो सुन ।।1।।<span id="2" /><span id="3" /> ज्योतिपुर नामा नगर में राजा अग्निशिख की रानी ह्री देवी के उदर से उत्पन्न एक सुतारा नाम की कन्या थी। शोभा से समस्त पृथिवी में प्रसिद्ध थी और ऐसी जान पड़ती थी मानो कमलरूपी आवास को छोड़कर लक्ष्मी ही आ गयी हो ।।2-3।।<span id="4" /> एक दिन राजा चक्रांक और अनुमति रानी से उत्पन्न साहसगति नामक दुष्ट विद्याधर अपनी इच्छा से इधर उधर भ्रमण कर रहा था सो उसने सुतारा देखी ।।4।।<span id="5" /> उसे देखकर वह कामरूपी शल्य से विद्ध होकर अत्यंत दुःखी हुआ। वह सुतारा को निरंतर अपने मन में धारण करता था और उन्मत्त जैसी उसकी चेष्टा थी ।।5।।<span id="6" /> इधर वह एक के बाद एक दूत भेजकर उसकी याचना करता था उधर सुग्रीव भी उस मनोहर कन्या की याचना करता था ।।6।।<span id="7" /> ‘अपनी कन्या दो में से किसे दूँ’ इस प्रकार द्वैधीभाव को प्राप्त हुआ राजा अग्निशिख निश्चय नहीं कर सका इसलिए उसकी आत्मा निरंतर व्याकुल रहती थी। आखिर महाज्ञानी मुनिराज से पूछा ।।7।।<span id="8" /> तब महाज्ञानी मुनिचंद्र ने कहा कि साहसगति चिरकाल तक जीवित नहीं रहेगा- अल्पायु है और सुग्रीव इसके विपरीत परम अभ्युदय का धारक तथा चिरायु है ।।8।।<span id="9" /> राजा अग्निशिख, साहसगति के पिता चक्रांक का पक्ष प्रबल होने से मुनिचंद्र के वचनों का निश्चय नहीं कर सका तब मुनिचंद्र ने दो दीपक, दो वृष और गजराजों को निमित्त बनाकर उसे अपनी बात का दृढ़ निश्चय करा दिया ।।9।।<span id="10" /> तदनंतर मुनिराज के अमृत तुल्य वचनों का निश्चय कर पिता अग्निशिख ने अपनी पुत्री सुतारा लाकर मंगलाचार पूर्वक सुग्रीव के लिए दे दी ।।10।।<span id="11" /> जिसका पुण्य का संचय प्रबल था ऐसा सुग्रीव उस कन्या को विवाह कर बड़ी संपदा के साथ श्रेष्ठ कामोपभोग को प्राप्त हुआ ।।11।।<span id="12" /> तदनंतर सुग्रीव और सुतारा के क्रम से दो पुत्र उत्पन्न हुए। दोनों ही अत्यंत सुंदर थे। उनमें से बड़े पुत्र का नाम अंग था और छोटा पुत्र अंगद के नाम से प्रसिद्ध था ।।12।।<span id="13" /> राजा चक्रांक का पुत्र साहसगति इतना निर्लज्ज था कि वह अब भी सुतारा की आशा नहीं छोड़ रहा था सो आचार्य कहते हैं कि इस काम से दूषित आशा को धिक्कार हो ।।13।।<span id="14" /> जो कामाग्नि से जल रहा था ऐसा, सारहीन मन का धारक साहसगति निरंतर यही विचार करता रहता था कि मैं सुख देने वाली उस कन्या को किस उपाय से प्राप्त कर सकूँगा ।।14।।<span id="15" /> जिसने अपनी शोभा से चंद्रमा को जीत लिया है और जिसका ओंठ स्फुरायमान लाल कांति से आच्छादित है ऐसे उसके मुख का कब चुंबन करूँगा? ।।15।।<span id="16" /> नंदनवन के मध्य में उसके साथ कब क्रीड़ा करूँगा और उसके स्थूल स्तनों के स्पर्शजन्य सुखोत्सव को कब प्राप्त होऊँगा ।।16।।<span id="17" /> इस प्रकार उसके समागम के कारणों का ध्यान करते हुए उसने रूप बदलने वाली शेमुषी नामक विद्या का स्मरण किया ।।17।।<span id="18" /> जिस प्रकार प्रिय मित्र अपने दुःखी मित्र की निरंतर आराधना करता है उसी प्रकार साहसगति हिमवान् पर्वत पर जाकर उसकी दुर्गम गुहा का आश्रय ले उस विद्या की आराधना करने लगा ।।18।।<span id="19" /> </p> | ||
<p> अथानंतर इसी बीच में रावण दिग्विजय करने के लिए निकला सो पर्वत और वनों से विभूषित पृथिवी को देखता हुआ भ्रमण करने लगा ।।19।। विशाल आज्ञा को धारण करने वाले जितेंद्रिय रावण ने दूसरे दूसरे द्वीपों में स्थित विद्याधर राजाओं को जीतकर उन्हें फिर से अपने अपने देशों में नियुक्त किया ।।20।। जिन विद्याधर राजाओं को वह वश में कर चुका था उन सब पर उसका मन पुत्रों के समान स्निग्ध था अर्थात् जिस प्रकार पिता का मन पुत्रों पर स्नेहपूर्ण होता है उसी प्रकार दशानन का मन वशीकृत राजाओं पर स्नेहपूर्ण था। सो ठीक ही है क्योंकि महापुरुष नमस्कार मात्र से संतुष्ट हो जाते हैं ।।21।। राक्षसवंश और वानरवंश में जो भी उद्धत विद्याधर राजा थे उन सबको उसने वश में किया था ।।22।। बड़ी भारी सेना के साथ जब रावण आकाशमार्ग से जाता था तब उसकी वेग जन्य वायु को अन्य विद्याधर सहन करने में असमर्थ हो जाते थे ।।23।। | <p> अथानंतर इसी बीच में रावण दिग्विजय करने के लिए निकला सो पर्वत और वनों से विभूषित पृथिवी को देखता हुआ भ्रमण करने लगा ।।19।।<span id="20" /> विशाल आज्ञा को धारण करने वाले जितेंद्रिय रावण ने दूसरे दूसरे द्वीपों में स्थित विद्याधर राजाओं को जीतकर उन्हें फिर से अपने अपने देशों में नियुक्त किया ।।20।।<span id="21" /> जिन विद्याधर राजाओं को वह वश में कर चुका था उन सब पर उसका मन पुत्रों के समान स्निग्ध था अर्थात् जिस प्रकार पिता का मन पुत्रों पर स्नेहपूर्ण होता है उसी प्रकार दशानन का मन वशीकृत राजाओं पर स्नेहपूर्ण था। सो ठीक ही है क्योंकि महापुरुष नमस्कार मात्र से संतुष्ट हो जाते हैं ।।21।।<span id="22" /> राक्षसवंश और वानरवंश में जो भी उद्धत विद्याधर राजा थे उन सबको उसने वश में किया था ।।22।।<span id="23" /> बड़ी भारी सेना के साथ जब रावण आकाशमार्ग से जाता था तब उसकी वेग जन्य वायु को अन्य विद्याधर सहन करने में असमर्थ हो जाते थे ।।23।।<span id="24" /><span id="25" /> संध्याकार, सुवेल, हेमापूर्ण, सुयोधन, हंसद्वीप और परिह्लाद आदि जो राजा थे वे सब भेंट ले लेकर तथा हाथ जोड़ मस्तक से लगा लगाकर उसे नमस्कार करते थे और रावण भी अच्छे-अच्छे वचनों से उन्हें संतुष्ट कर उनकी संपदाओं को पूर्ववत् अवस्थित रखता था ।।24-25।।<span id="26" /> जो विद्याधर राजा अत्यंत दुर्गम स्थानों में रहते थे उन्होंने भी उत्तमोत्तम शिष्टाचार के साथ रावण के चरणों में नमस्कार किया था ।।26।।<span id="27" /> आचार्य कहते हैं कि सब बलों में कर्मो के द्वारा किया हुआ बल ही श्रेष्ठ बल है सो उसका उदय रहते हुए रावण किसे जीतने के लिए समर्थ नहीं हुआ था? अर्थात् वह सभी को जीतने में समर्थ था ।।27।।<span id="28" /></p> | ||
<p> अथानंतर- रावण रथनूपुर नगर के राजा इंद्र विद्याधर को जीतने के लिए प्रवृत्त हुआ सो उसने इस अवसर पर अपनी बहन चंद्रनखा और उसके पति खरदूषण का बड़े भारी स्नेह से स्मरण किया ।।28।। प्रस्थान कर पाताल लंका के समीप पहुँचा। जब बहन को इस बात का पता चला कि प्रीति से भरा हमारा भाई निकट ही आकर स्थित है तब वह उत्कंठा से भर गयी ।।29।। उस समय रात्रि का पिछला पहर था और खरदूषण सुख से सो रहा था सो चंद्रनखा ने बड़े प्रेम से उसे जगाया ।।30।। तदनंतर खरदूषण ने अलंकारोदयपुर (पाताल लंका) से निकलकर बड़ी भक्ति और बहुत भारी उत्सव से रावण की पूजा की ।।31।। | <p> अथानंतर- रावण रथनूपुर नगर के राजा इंद्र विद्याधर को जीतने के लिए प्रवृत्त हुआ सो उसने इस अवसर पर अपनी बहन चंद्रनखा और उसके पति खरदूषण का बड़े भारी स्नेह से स्मरण किया ।।28।।<span id="29" /> प्रस्थान कर पाताल लंका के समीप पहुँचा। जब बहन को इस बात का पता चला कि प्रीति से भरा हमारा भाई निकट ही आकर स्थित है तब वह उत्कंठा से भर गयी ।।29।।<span id="30" /> उस समय रात्रि का पिछला पहर था और खरदूषण सुख से सो रहा था सो चंद्रनखा ने बड़े प्रेम से उसे जगाया ।।30।।<span id="31" /> तदनंतर खरदूषण ने अलंकारोदयपुर (पाताल लंका) से निकलकर बड़ी भक्ति और बहुत भारी उत्सव से रावण की पूजा की ।।31।।<span id="32" /> रावण ने भी बदले में प्रीतिपूर्वक बहन की पूजा की सो ठीक ही है क्योंकि संसार में भाई का स्नेह से बढ़कर दूसरा स्नेह नहीं है ।।32।।<span id="33" /> खरदूषण ने रावण के लिए इच्छानुसार रूप बदलने वाले चौदह हजार विद्याधर दिखलाये ।।33।।<span id="34" /> जो अत्यंत कुशल था, शूरवीर था और जिसने अपने गुणों से समस्त सामंतों के मन को अपनी ओर खींच लिया था ऐसे खरदूषण को रावण ने अपने समान सेनापति बनाया ।।34।।<span id="35" /> जिस प्रकार असुरों के समूह से आवृत चामरेंद्र पाताल से निकलकर प्रस्थान करता है उसी प्रकार रावण ने सर्वप्रकार के शस्त्रों में कौशल प्राप्त करने वाले खरदूषण आदि विद्याधरों के साथ पाताललंका से निकलकर प्रस्थान किया ।।35।।<span id="36" /><span id="37" /> हिडंब, हैहिड, डिंब, विकट, त्रिजट, हय, माकोट, सुजट, टंक, किष्किंधाधिपति, त्रिपुर, मलय, हेमपाल, कोल और वसुंधर आदि राजा नाना प्रकार के वाहनों पर आरूढ़ होकर साथ जा रहे थे। ये सभी राजा नाना प्रकार के शस्त्रों से सुशोभित थे ।।36-37।।<span id="38" /> जिस प्रकार बिजली और इंद्रधनुष से युक्त मेघों के समूह से सावन का माह भर जाता है उसी प्रकार उन समस्त विद्याधर राजाओं से दशानन भर गया था ।।38।।<span id="39" /> इस प्रकार कैलास को कंपित करने वाले रावण के कुछ अधिक एक हजार अक्षौहिणी प्रमाण विद्याधरों की सेना इकट्ठी हो गयी थी ।।39।।<span id="40" /> प्रत्येक के हजार हजार देव जिनकी रक्षा करते थे और जो नाना गुणों के समूह को धारण करने वाले थे ऐसे रत्न उसके साथ चलते थे ।।40।।<span id="41" /> चंद्रमा की किरणों के समूह के समान जिनका आकार था ऐसे चमर उस पर ढोले जा रहे थे। उसके सिर पर सफेद छत्र लग रहा था और उसकी लंबी-लंबी भुजाएँ सुंदर रूपकों धारण करने वाली थीं ।।41।।<span id="42" /> वह पुष्पक विमान के अग्रभाग पर आरूढ़ था जिससे मेरुपर्वत पर स्थित सूर्य के समान कांति को धारण कर रहा था। वह अपनी यानरूपी संपत्ति के द्वारा सूर्य का मार्ग अर्थात् आकाश को आच्छादित कर रहा था ।।42।।<span id="43" /> प्रबल पराक्रम का धारी रावण मन में इंद्र के विनाश का संकल्प कर इच्छानुकूल प्रयाणकों से निरंतर आगे बढ़ता जाता था ।।43।।<span id="44" /><span id="45" /> उस समय वह आकाश को ठीक समुद्र के समान बना रहा था क्योंकि जिस प्रकार समुद्र में नाना प्रकार के रत्नों की कांति व्याप्त होती है उसी प्रकार आकाश में नाना प्रकार के रत्नों की कांति फैल रही थी। जिस प्रकार समुद्र तरंगों से युक्त होता है उसी प्रकार आकाश चामररूपी तरंगों से युक्त होता था। जिस प्रकार समुद्र में मीन अर्थात् मछलियों का समूह होता है उसी प्रकार आकाश में दंडरूपी मछलियों का समूह था। जिस प्रकार समुद्र सैकड़ों आवर्तों अर्थात् भ्रमरों से सहित होता है उसी प्रकार आकाश भी छत्ररूपी सैकड़ों भ्रमरों से युक्त था। जिस प्रकार समुद्र मगरमच्छों के समूह से भयंकर होता है उसी प्रकार आकाश भी घोड़े, हाथी और पैदल योद्धारूपी मगरमच्छों से भयंकर था तथा जिस प्रकार समुद्र में अनेक कल्लोल अर्थात् तरंग उठते रहते हैं उसी प्रकार आकाश में भी अनेक शस्त्ररूपी तरंग उठ रहे थे ।।44-45।।<span id="46" /> जिनके अग्रभाग पर मयूरपिच्छों का समूह विद्यमान था ऐसी चमकीली ऊँची ध्वजाओं से कहीं आकाश ऐसा जान पड़ता था मानो इंद्रनील मणियों से युक्त हीरों से ही व्याप्त हो ।।46।।<span id="47" /> जिन में नाना प्रकार के रत्नों का प्रकाश फैल रहा था और जो ऊँचे-ऊँचे शिखरों से सुशोभित थे ऐसे विमानों के समूह से आकाश कहीं चलते-फिरते स्वर्गलोक के समान जान पड़ता था ।।47।।<span id="48" /> गौतमस्वामी राजा श्रेणिक से कहते हैं कि मगधेश्वर! इस विषय में बहुत कहने से क्या? मुझे तो ऐसा लगता है कि रावण की सेना देखकर देव भी भयभीत हो रहे थे ।।48।।<span id="46" /><span id="47" /><span id="48" /><span id="49" /><span id="50" /><span id="51" /> जिन्हें विद्यारूपी महाप्रकाश प्राप्त था और शस्त्र तथा शास्त्र में जिन्होंने परिश्रम किया था ऐसे इंद्रजित्, मेघवाहन, कुंभकर्ण, विभीषण, खरदूषण, निकुंभ और कुंभ, ये तथा इनके सिवाय युद्ध में कुशल अन्य अनेक आत्मीयजन रावण के पीछे-पीछे चल रहे थे। ये सभी लोग बड़ी-बड़ी सेनाओं से सहित थे, इंद्र की लक्ष्मी को लजाते थे, अत्यंत प्रीति से युक्त थे और विशाल कीर्ति के धारक थे ।।46-51।।<span id="52" /></p> | ||
<p> तदनंतर जब रावण विंध्याचल के समीप पहुँचा तब सूर्य अस्त हो गया सो रावण के तेज से पराजित होने के कारण लज्जा से ही मानो प्रभाहीन हो गया था ।।52।। सूर्यास्त होते ही उसने विंध्याचल के शिखर पर सेना ठहरा दी। वहाँ विद्या के बल से सेना को नाना प्रकार के आश्रय प्राप्त हुए थे ।।53।। किरणों के द्वारा अंधकार के समूह को दूर करनेवाला चंद्रमा उदित हुआ सो मानो रावण से डरी हुई रात्रि ने उत्तम दीपक ही लाकर उपस्थित किया था ।।54।। तारागण ही जिसके सिर के पुष्प थे, चंद्रमा ही जिसका मुख था और जो निर्मल अंबर(आकाश) रूपी अंबर (वस्त्र) धारण कर रही थी ऐसी उत्तम नायिका के समान रात्रि रावण के समीप आयी ।।55।। विद्याधरों ने नाना प्रकार की कथाओं से, योग्य व्यापारों से तथा अनुकूल निद्रा से वह रात्रि व्यतीत की ।।56।। तदनंतर प्रातःकाल की तुरही और वंदीजनों के मांगलिक शब्दों से जागकर रावण ने शरीर संबंधी समस्त कार्य किये ।।57।। सूर्योदय हुआ सो मानो सूर्य समस्त जगह भ्रमण कर अन्य आश्रय न देख पुन: रावण की शरण में आया ।।58।। तदनंतर रावण ने नर्मदा नदी देखी। नर्मदा मधुर शब्द करने वाले नाना पक्षियों के समूह के साथ मानो अत्यधिक वार्तालाप ही कर रही थी ।।59।। फेन के समूह से ऐसी जान पड़ती थी मानो हँस ही रही हो। उसका जल शुद्ध स्फटिक के समान निर्मल था और वह हाथियों से सुशोभित थी ।।60।। | <p> तदनंतर जब रावण विंध्याचल के समीप पहुँचा तब सूर्य अस्त हो गया सो रावण के तेज से पराजित होने के कारण लज्जा से ही मानो प्रभाहीन हो गया था ।।52।।<span id="53" /> सूर्यास्त होते ही उसने विंध्याचल के शिखर पर सेना ठहरा दी। वहाँ विद्या के बल से सेना को नाना प्रकार के आश्रय प्राप्त हुए थे ।।53।।<span id="54" /> किरणों के द्वारा अंधकार के समूह को दूर करनेवाला चंद्रमा उदित हुआ सो मानो रावण से डरी हुई रात्रि ने उत्तम दीपक ही लाकर उपस्थित किया था ।।54।।<span id="55" /> तारागण ही जिसके सिर के पुष्प थे, चंद्रमा ही जिसका मुख था और जो निर्मल अंबर(आकाश) रूपी अंबर (वस्त्र) धारण कर रही थी ऐसी उत्तम नायिका के समान रात्रि रावण के समीप आयी ।।55।।<span id="56" /> विद्याधरों ने नाना प्रकार की कथाओं से, योग्य व्यापारों से तथा अनुकूल निद्रा से वह रात्रि व्यतीत की ।।56।।<span id="57" /> तदनंतर प्रातःकाल की तुरही और वंदीजनों के मांगलिक शब्दों से जागकर रावण ने शरीर संबंधी समस्त कार्य किये ।।57।।<span id="58" /> सूर्योदय हुआ सो मानो सूर्य समस्त जगह भ्रमण कर अन्य आश्रय न देख पुन: रावण की शरण में आया ।।58।।<span id="59" /> तदनंतर रावण ने नर्मदा नदी देखी। नर्मदा मधुर शब्द करने वाले नाना पक्षियों के समूह के साथ मानो अत्यधिक वार्तालाप ही कर रही थी ।।59।।<span id="60" /> फेन के समूह से ऐसी जान पड़ती थी मानो हँस ही रही हो। उसका जल शुद्ध स्फटिक के समान निर्मल था और वह हाथियों से सुशोभित थी ।।60।।<span id="61" /><span id="62" /> वह नर्मदा तरंगरूपी भ्रकुटी के विलास से युक्त थी, आवर्तरूपी नाभि से सहित थी, तैरती हुई मछलियाँ ही उसके नेत्र थे, दोनों विशाल तट ही स्थूल नितंब थे, नाना फूलों से वह व्याप्त थी और निर्मल जल ही उसका वस्त्र था। इस प्रकार किसी उत्तम नायिका के समान नर्मदा को देख रावण महा प्रीति को प्राप्त हुआ ।।61-62।।<span id="63" /> वह नर्मदा कहीं तो उग्र मगरमच्छों के समूह से व्याप्त होने के कारण गंभीर थी, कहीं वेग से बहती थी, कहीं मंद गति से बहती थी और कहीं कुंडल की तरह टेढ़ी-मेढ़ी चाल से बहती थी ।।63।।<span id="64" /> नाना चेष्टाओं से भरी हुई थी तथा भयंकर होने पर भी रमणीय थी। जिसका चित्त कौतुक से व्याप्त था ऐसे रावण ने बड़े आदर के साथ उस नर्मदा नदी में प्रवेश किया ।।64।।<span id="65" /></p> | ||
<p> अथानंतर जो अपने बल से पृथिवी पर प्रसिद्ध था ऐसा माहिष्मती का राजा सहस्ररश्मि भी उसी समय अन्य दिशा से नर्मदा में प्रविष्ट हुआ ।।65।। यह सहस्ररश्मि यथार्थ में परम सुंदर था क्योंकि उत्कृष्ट कांति को धारण करने वाली हजारों स्त्रियाँ उसके साथ थीं ।।66।। उसने उत्कृष्ट कलाकारों के द्वारा नाना प्रकार के जल यंत्र बनवाये थे सो उन सबका आश्रय कर आश्चर्य को उत्पन्न करनेवाला सहस्ररश्मि नर्मदा में उतरकर नाना प्रकार की क्रीड़ा कर रहा था ।।67।। उसके साथ यंत्र निर्माण को जानने वाले ऐसे अनेक मनुष्य थे जो समुद्र का भी जल रोकने में समर्थ थे फिर नदी की तो बात ही क्या थी। इस प्रकार अपनी इच्छानुसार वह नर्मदा में भ्रमण कर रहा था ।।68।। यंत्रों के प्रयोग से नर्मदा का जल क्षण-भर में रुक गया था इसलिए नाना प्रकार की क्रीड़ा में निपुण स्त्रियाँ उसके तट पर भ्रमण कर रही थीं ।।69।। उन स्त्रियों के अत्यंत पतले और उज्ज्वल वस्त्र जल का संबंध पाकर उनके नितंब स्थलों से एकदम श्लिष्ट हो गये थे इसलिए जब पति उनकी ओर आँख उठाकर देखता था तब वे लज्जा से गड जाती थीं ।।70।। शरीर का लेप धुल जाने के कारण जो नखक्षतों से चिह्नित स्तन दिखला रही थी ऐसी कोई एक स्त्री अपनी सौत के लिए ईर्ष्या उत्पन्न कर रही थी ।।71।। जिसके समस्त अंग दिख रहे थे ऐसी कोई उत्तम स्त्री लजाती हुई दोनों हाथों से बड़ी आकुलता के साथ पति की ओर पानी उछाल रही थी ।।72।। कोई अन्य स्त्री सौत के नितंब स्थल पर नखक्षत देखकर क्रीड़ाकमल की नाल से पति पर प्रहार कर रही थी ।।73।। कोई एक स्वभाव की क्रोधिनी स्त्री मौन लेकर निश्चल खड़ी रह गयी थी तब पति ने चरणों में प्रणाम कर उसे किसी तरह संतुष्ट किया ।।74।। राजा सहस्ररश्मि जब तक एक स्त्री को प्रसन्न करता था तब तक दूसरी स्त्री रोष को प्राप्त हो जाती थी। इस कारण वह समस्त स्त्रियों को बड़ी कठिनाई से संतुष्ट कर सका था ।।75।। | <p> अथानंतर जो अपने बल से पृथिवी पर प्रसिद्ध था ऐसा माहिष्मती का राजा सहस्ररश्मि भी उसी समय अन्य दिशा से नर्मदा में प्रविष्ट हुआ ।।65।।<span id="66" /> यह सहस्ररश्मि यथार्थ में परम सुंदर था क्योंकि उत्कृष्ट कांति को धारण करने वाली हजारों स्त्रियाँ उसके साथ थीं ।।66।।<span id="67" /> उसने उत्कृष्ट कलाकारों के द्वारा नाना प्रकार के जल यंत्र बनवाये थे सो उन सबका आश्रय कर आश्चर्य को उत्पन्न करनेवाला सहस्ररश्मि नर्मदा में उतरकर नाना प्रकार की क्रीड़ा कर रहा था ।।67।।<span id="68" /> उसके साथ यंत्र निर्माण को जानने वाले ऐसे अनेक मनुष्य थे जो समुद्र का भी जल रोकने में समर्थ थे फिर नदी की तो बात ही क्या थी। इस प्रकार अपनी इच्छानुसार वह नर्मदा में भ्रमण कर रहा था ।।68।।<span id="69" /> यंत्रों के प्रयोग से नर्मदा का जल क्षण-भर में रुक गया था इसलिए नाना प्रकार की क्रीड़ा में निपुण स्त्रियाँ उसके तट पर भ्रमण कर रही थीं ।।69।।<span id="70" /> उन स्त्रियों के अत्यंत पतले और उज्ज्वल वस्त्र जल का संबंध पाकर उनके नितंब स्थलों से एकदम श्लिष्ट हो गये थे इसलिए जब पति उनकी ओर आँख उठाकर देखता था तब वे लज्जा से गड जाती थीं ।।70।।<span id="71" /> शरीर का लेप धुल जाने के कारण जो नखक्षतों से चिह्नित स्तन दिखला रही थी ऐसी कोई एक स्त्री अपनी सौत के लिए ईर्ष्या उत्पन्न कर रही थी ।।71।।<span id="72" /> जिसके समस्त अंग दिख रहे थे ऐसी कोई उत्तम स्त्री लजाती हुई दोनों हाथों से बड़ी आकुलता के साथ पति की ओर पानी उछाल रही थी ।।72।।<span id="73" /> कोई अन्य स्त्री सौत के नितंब स्थल पर नखक्षत देखकर क्रीड़ाकमल की नाल से पति पर प्रहार कर रही थी ।।73।।<span id="74" /> कोई एक स्वभाव की क्रोधिनी स्त्री मौन लेकर निश्चल खड़ी रह गयी थी तब पति ने चरणों में प्रणाम कर उसे किसी तरह संतुष्ट किया ।।74।।<span id="75" /> राजा सहस्ररश्मि जब तक एक स्त्री को प्रसन्न करता था तब तक दूसरी स्त्री रोष को प्राप्त हो जाती थी। इस कारण वह समस्त स्त्रियों को बड़ी कठिनाई से संतुष्ट कर सका था ।।75।।<span id="76" /><span id="77" /><span id="78" /><span id="79" /> उत्तमोत्तम स्त्रियों से घिरा, मनोहर रूप का धारक वह राजा, किसी स्त्री की ओर देखकर, किसी का स्पर्श कर, किसी के प्रति कोप प्रकट कर, किसी के प्रति अनेक प्रकार की प्रसन्नता प्रकट कर, किसी को प्रणाम कर, किसी के ऊपर पानी उछालकर, किसी को कर्णा भरण से ताड़ित कर, किसी का धोखे से वस्त्र खींचकर, किसी को मेखला से बाँधकर, किसी के पास से दूर हटकर, किसी को भारी डाँट दिखाकर, किसी के साथ संपर्क कर, किसी के स्तनों में कंपन उत्पन्न कर, किसी के साथ हँसकर, किसी के आभूषण गिराकर, किसी को गुदगुदा कर, किसी के प्रति भौंह चलाकर, किसी से छिपकर, किसी के समक्ष प्रकट होकर तथा किसी के साथ अन्य प्रकार के विभ्रम दिखाकर नर्मदा नदी में बडे-आनंद से उस तरह क्रीड़ा कर रहा था जिस प्रकार कि देवियों के साथ इंद्र क्रीड़ा किया करता है ।।76-79।।<span id="80" /> उदार हृदय को धारण करने वाली उन स्त्रियों के जो आभूषण बालू के ऊपर गिर गये थे उन्होंने निर्माल्य की माला के समान फिर उन्हें उठाने की इच्छा नहीं की थी ।।80।।<span id="81" /> किसी स्त्री ने चंदन के लेप से पानी को सफेद कर दिया था तो किसीने केशर के द्रव से उसे सुवर्ण के समान पीला बना दिया था ।।81।।<span id="82" /> जिनकी पान की लालिमा धुल गयी थी ऐसे स्त्रियों के ओंठ तथा जिनका काजल छूट गया था ऐसे नेत्रों की कोई अद्भुत ही शोभा दृष्टि गोचर हो रही थी ।।82।।<span id="83" /> तदनंतर यंत्र के द्वारा छोड़े हुए जल के बीच में वह राजा, काम उत्पन्न करने वाली अनेक उत्कृष्ट स्त्रियों के साथ इच्छानुसार क्रीड़ा करने लगा ।।83।।<span id="84" /> उस समय तट के समीपवर्ती जल में विचरण करने वाले पक्षी मनोहर शब्द कर रहे थे सो ऐसा जान पड़ता था मानो जल के भीतर क्रीड़ा करने वाली स्त्रियों ने अपने आभूषणों का शब्द उनके पास धरोहर ही रख दिया हो ।।84।।<span id="85" /> उधर यह सब चल रहा था इधर रावण ने भी सुखपूर्वक स्थान कर घुले हुए उत्तम वस्त्र पहने और अपने मस्तक को बड़ी सावधानी से सफेद वस्त्र से युक्त किया ।।85।।<span id="86" /><span id="87" /><span id="88" /> जिसे नियुक्त मनुष्य सदा बड़ी सावधानी से साथ लिये रहते थे ऐसी स्वर्ण तथा रत्न निर्मित अर्हंत भगवान की प्रतिमा को रावण ने नदी के उस तीर पर स्थापित कराया जो कि नदी के बीच नया निकला था, मनोहर था, सफेद तथा देदीप्यमान था, बालू के द्वारा निर्मित ऊँचे चबूतरे से सुशोभित था, जहाँ वैदूर्यमणि की छड़ियों पर चंदोवा तानकर उस पर मोतियों की झालर लटकायी गयी थी और जो सब प्रकार के उपकरण इकट्ठे करने में व्यग्र परिजनों से भरा था ।।86-88।।<span id="89" /><span id="90" /> प्रतिमा स्थापित कर उसने भारी सुगंधि से भ्रमरों को आकर्षित करने वाले धूप, चंदन, पुष्प तथा मनोहर नैवेद्य के द्वारा बड़ी पूजा की और सामने बैठकर चिरकाल तक स्तुति के पवित्र अक्षरों से अपने मुख को सहित किया ।।89-90।।<span id="91" /> </p> | ||
<p>अथानंतर रावण पूजा में निमग्न था कि अचानक ही उसकी पूजा सब ओर से फेन तथा बबूलों से युक्त, मलिन एवं वेगशाली जल के पूर से नष्ट हो गयी ।।91।। | <p>अथानंतर रावण पूजा में निमग्न था कि अचानक ही उसकी पूजा सब ओर से फेन तथा बबूलों से युक्त, मलिन एवं वेगशाली जल के पूर से नष्ट हो गयी ।।91।।<span id="92" /> तब रावण ने शीघ्र ही प्रतिमा ऊपर उठाकर कुपित हो लोगों से कहा कि मालूम करो क्या बात है? ।।92।।<span id="93" /><span id="94" /><span id="95" /> तदनंतर लोगों ने वेग से जाकर और वापस लौटकर निवेदन किया कि हे नाथ! आभूषणों से परम अभ्युदय को प्रकट करनेवाला कोई मनुष्य सुंदर स्त्रियों के बीच बैठा है। तलवार को धारण करने वाले मनुष्य दूर खड़े रहकर उसे घेरे हुए हैं। नाना प्रकार के बड़े-बड़े यंत्र उसके पास विद्यमान हैं। निश्चय ही यह कार्य उन सब यंत्रों का किया है ।।93-95।।<span id="96" /> हमारा ध्यान है कि उसके पास जो पुरुष हैं वे तो व्यवस्था मात्र के लिए हैं यथार्थ में उसका जो बल है वही दूसरों के लिए दुःख से सहन करने योग्य है ।।96।।<span id="97" /> लोक-कथा से सुना जाता है कि स्वर्ग में अथवा सुमेरु पर्वत पर इंद्र नाम का कोई व्यक्ति रहता है पर हमने तो यह साक्षात् ही इंद्र देखा है ।।97।।<span id="98" /><span id="99" /> उसी समय रावण ने वीणा, बाँसुरी आदि से युक्त तथा जय-जय शब्द से निश्चित मृदंग का शब्द सुना। साथ ही हाथी, घोड़े और मनुष्यों का शब्द भी उसने सुना। सुनते ही उसकी भौंह चढ़ गयी। उसी समय उसने राजाओं को आज्ञा दी कि इस दुष्ट को शीघ्र ही पकड़ा जाये ।।98-99।।<span id="100" /> आज्ञा देकर रावण फिर नदी के किनारे रत्न तथा सुवर्ण निर्मित पुष्पों से जिन प्रतिमा की उत्तम पूजा करने लगा ।।100।।<span id="101" /> विद्याधर राजाओं ने रावण की आज्ञा शेषाक्षत के समान मस्तक पर धारण की और तैयार हो वे शीघ्र ही शत्रु के सम्मुख दौड़ पड़े ।।101।।<span id="102" /> तदनंतर शत्रुदल को आया देख सहस्ररश्मि क्षण-भर में क्षुभित हो गया और स्त्रियों को अभय देकर शीघ्र ही जलाशय से बाहर निकला ।।102।।<span id="103" /> तत्पश्चात् कल-कल सुनकर और जनसमूह से सब समाचार जानकर माहिष्मती के वीर शीघ्र ही तैयार हो बाहर निकल पड़े ।।103।।<span id="104" /><span id="105" /> जिस प्रकार वसंत आदि ऋतुएँ सम्मेदाचल के पास एक साथ आ पहुँचती हैं उसी प्रकार नाना तरह के शस्त्रों को धारण करने वाले बहुत भारी अनुराग से भरे सामंत सहस्ररश्मि के पास एक साथ आ पहुँचे। वे सामंत हाथियों, घोड़ों और रथों पर सवार थे तथा पैदल चलने वाले सैनिकों से युक्त थे ।।104-105।।<span id="106" /><span id="107" /></p> | ||
<p> परस्पर एक दूसरे की रक्षा करने में तत्पर तथा उत्साह से भरे सहस्ररश्मि के सामंतों ने जब विद्याधरों की सेना आती देखी तो वे जीवन का लोभ छोड़ मेघ व्यूह की रचना कर स्वामी की आज्ञा के बिना ही युद्ध करने के लिए उठ खड़े हुए ।।106-107।। | <p> परस्पर एक दूसरे की रक्षा करने में तत्पर तथा उत्साह से भरे सहस्ररश्मि के सामंतों ने जब विद्याधरों की सेना आती देखी तो वे जीवन का लोभ छोड़ मेघ व्यूह की रचना कर स्वामी की आज्ञा के बिना ही युद्ध करने के लिए उठ खड़े हुए ।।106-107।।<span id="108" /> इधर जब रावण की सेना युद्ध करने के लिए उद्यत हुई तब आकाश में सहसा देवताओं के निम्नांकित वचन विचरण करने लगे ।।108।।<span id="109" /> देवताओं ने कहा कि अहो! वीर लोग यह बड़ा अन्याय करना चाहते हैं कि भूमिगोचरियों के साथ विद्याधर युद्ध करने के लिए उद्यत हुए हैं ।।109।।<span id="110" /> ये बेचारे भूमिगोचरी थोड़े तथा सरल चित्त हैं और विद्याधर इनके विपरीत विद्या तथा माया को करने वाले एवं संख्या में बहुत हैं ।।110।।<span id="111" /> इस प्रकार आकाश में बार-बार कहे हुए इस आकुलतापूर्ण शब्द को सुनकर अच्छी प्रवृत्ति वाले विद्याधर लज्जा से युक्त होते हुए पृथिवी पर आ गये ।।111।।<span id="112" /> तदनंतर समान योद्धाओं के द्वारा प्रारंभ किये हुए युद्ध में रावण के पुरुष परस्पर तलवार, बाण, गदा और भाले आदि से प्रहार करने लगे ।।112।।<span id="113" /> रथों के सवार रथों के सवारों के साथ, घुड़सवार घुड़सवारों के साथ, हाथियों के सवार हाथियों के सवारों के साथ और पैदल सैनिक पैदल सैनिकों के साथ युद्ध करने लगे ।।113।।<span id="114" /> जिन्हें क्रम-क्रम से पराजय प्राप्त हो रहा था और जिनके शस्त्र-समूह की टक्कर से अग्नि उत्पन्न हो रही थी ऐसे योद्धाओं ने न्यायपूर्वक युद्ध करना शुरू किया ।।114।।<span id="115" /> जब सहस्ररश्मि ने अपनी सेना को शीघ्र ही नष्ट होने के निकट देखा तब उत्तम रथ पर सवार हो तत्काल आ पहुँचा ।।115।।<span id="116" /> उत्तम किरीट और कवच को धारण करनेवाला सहस्ररश्मि उत्कृष्ट तेज को धारण करता था इसलिए विद्याधरों की सेना देख वह जरा भी भयभीत नहीं हुआ ।।116।।<span id="117" /><span id="118" /> तदनंतर स्वामी से सहित होने के कारण जिनका तेज पुन: वापस आ गया था, जिनके ऊपर खुले हुए छत्र लग रहे थे और जिन्होंने घावों का कष्ट भुला दिया था ऐसे रण निपुण भूमिगोचरी राक्षसों की सेना में इस प्रकार घुस गये जिस प्रकार कि मदोन्मत्त हाथी गहरे समुद्र में घुस जाते हैं ।।117-118।।<span id="119" /> जिस प्रकार वायु मेघों को उड़ा देता है उसी प्रकार अत्यधिक क्रोध को धारण करनेवाला सहस्ररश्मि बाणों के समूह से शत्रुओं को उड़ाने लगा ।।119।।<span id="120" /><span id="121" /> यह देख द्वारपाल ने रावण से निवेदन किया कि हे देव! देखो जगत् को तृण के समान तुच्छ देखने वाले, रथ पर बैठे धनुषधारी इस किसी राजा ने बाणों के समूह से तुम्हारी सेना को एक योजन पीछे खदेड़ दिया है ।।120-121।।<span id="122" /><span id="123" /> तदनंतर सहस्ररश्मि को सम्मुख आता देख दशानन त्रिलोकमंडन नामक हाथी पर सवार हो चला। शत्रु जिसे भयभीत होकर देख रहे थे तथा जिसका तेज अत्यंत दु:सह था ऐसे रावण ने बाणों का समूह छोड़कर सहस्ररश्मि को रथरहित कर दिया ।।122-123।।<span id="124" /> तब सहस्ररश्मि उत्तम हाथी पर सवार हो क्रुद्ध होता हुआ वेग से पुन: रावण के सम्मुख आया ।।124।।<span id="125" /> इधर सहस्ररश्मि के द्वारा छोड़े हुए पैने बाण कवच को भेदकर रावण के अंगों को विदीर्ण करने लगे ।।125।।<span id="126" /> उधर रावण ने सहस्ररश्मि के प्रति जो बाण छोड़े थे उन्हें वह शरीर से खींचकर हँसता हुआ जोर से बोला ।।126।।<span id="127" /> कि अहो रावण! तुम तो बड़े धनुर्धारी मालूम होते हो। यह उपदेश तुम्हें किस कुशल गुरु से प्राप्त हुआ है? ।।127।।<span id="128" /> अरे छोकड़े! भले धनुर्वेद पढ़ और कयास कर, फिर मेरे साथ युद्ध करना। तू नीति से रहित जान पड़ता है ।।128।।<span id="129" /> तदनंतर उक्त कठोर वचनों से बहुत भारी क्रोध को प्राप्त हुए रावण ने एक भाला सहस्ररश्मि के ललाट पर मारा ।।129।।<span id="130" /><span id="131" /> जिससे रुधिर की धारा बहने लगी तथा आँखें घूमने लगीं। मूर्छित हो पुन: सावधान होकर जब तक वह बाण ग्रहण करता है तब तक रावण ने वेग से उछलकर उस धैर्यशाली को जीवित ही पकड़ लिया ।।130-131।।<span id="132" /> रावण उसे बाँधकर अपने डेरे पर ले गया। विद्याधर उसे बड़े आश्चर्य से देख रहे थे। वे सोच रहे थे कि यदि यह किसी तरह उछलकर छूटता है तो फिर इसे कौन पकड़ सकेगा? ।।132।।<span id="133" /></p> | ||
<p> तदनंतर संध्यारूपी प्राकार से वेष्टित होता हुआ सूर्य अस्त हो गया सो ऐसा जान पड़ता था मानो सहस्ररश्मि के इस वृत्तांत से उसने कुछ नीति को प्राप्त किया था अर्थात् शिक्षा ग्रहण की थी ।।133।। अच्छे और बुरे को समान करने वाले अंधकार से लोक आच्छादित हो गया सो ऐसा जान पड़ता था मानो रावण के द्वारा छोड़े हुए बहुत भारी क्रोध से ही आच्छादित हुआ हो ।।134।। तदनंतर अंधकार के हरने में निपुण चंद्रमा का बिंब उदित हुआ सो ऐसा जान पड़ता था मानो युद्ध से उत्पन्न हुआ रावण का अत्यंत निर्मल यश ही हो ।।131।। उस समय कोई तो घायल सैनिकों के घावों पर मरहमपट्टी लगा रहे थे, कोई योद्धाओं के पराक्रम का वर्णन कर रहे थे, कोई गुमे हुए सैनिकों की तलाश कर रहे थे और कोई जिन्हें घाव नहीं लगे थे सो रहे थे। इस प्रकार यथायोग्य कार्यों से रावण की सेना की रात्रि व्यतीत हुई। प्रभात हुआ तो प्रभात संबंधी तुरही के शब्द से रावण जागृत हुआ ।।136-137।। तदनंतर परम राग को धारण करता हुआ सूर्य काँपता काँपता उदित हुआ सो ऐसा जान पड़ता था मानो रावण का समाचार जानने के लिए उदित हुआ हो ।।138।।</ | <p> तदनंतर संध्यारूपी प्राकार से वेष्टित होता हुआ सूर्य अस्त हो गया सो ऐसा जान पड़ता था मानो सहस्ररश्मि के इस वृत्तांत से उसने कुछ नीति को प्राप्त किया था अर्थात् शिक्षा ग्रहण की थी ।।133।।<span id="134" /> अच्छे और बुरे को समान करने वाले अंधकार से लोक आच्छादित हो गया सो ऐसा जान पड़ता था मानो रावण के द्वारा छोड़े हुए बहुत भारी क्रोध से ही आच्छादित हुआ हो ।।134।।<span id="131" /> तदनंतर अंधकार के हरने में निपुण चंद्रमा का बिंब उदित हुआ सो ऐसा जान पड़ता था मानो युद्ध से उत्पन्न हुआ रावण का अत्यंत निर्मल यश ही हो ।।131।।<span id="136" /><span id="137" /> उस समय कोई तो घायल सैनिकों के घावों पर मरहमपट्टी लगा रहे थे, कोई योद्धाओं के पराक्रम का वर्णन कर रहे थे, कोई गुमे हुए सैनिकों की तलाश कर रहे थे और कोई जिन्हें घाव नहीं लगे थे सो रहे थे। इस प्रकार यथायोग्य कार्यों से रावण की सेना की रात्रि व्यतीत हुई। प्रभात हुआ तो प्रभात संबंधी तुरही के शब्द से रावण जागृत हुआ ।।136-137।।<span id="138" /> तदनंतर परम राग को धारण करता हुआ सूर्य काँपता काँपता उदित हुआ सो ऐसा जान पड़ता था मानो रावण का समाचार जानने के लिए उदित हुआ हो ।।138।।<span id="139" /><span id="140" /><span id="141" /></p> | ||
< | <p> अथानंतर सहस्ररश्मि के पिता शतबाहु, जो दिगंबर थे, जिन्हें जंघाचारण ऋद्धि प्राप्त थी, जो महाबाहु, महा तपस्वी, चंद्रमा के समान सुंदर, सूर्य के समान तेजस्वी, मेरु के समान स्थिर और समुद्र के समान गंभीर थे, पुत्र को बँधा सुनकर रावण के समीप आये। उस समय रावण अपने शरीर संबंधी कार्यों से निपटकर सभा के बीच में सुख से बैठा था और मुनिराज शतबाहु प्रशांत चित्त एवं लोगों से स्नेह करने वाले थे ।।139-141।।<span id="142" /> रावण, मुनिराज को दूर से ही देखकर खड़ा हो गया। उसने सामने जाकर तथा पृथ्वी पर मस्तक टेककर नमस्कार किया ।।142।।<span id="143" /> जब मुनिराज उत्कृष्ट प्रासुक आसन पर विराजमान हो गये तब रावण पृथ्वी पर दोनों हाथ जोड़कर बैठ गया। उस समय उसका सारा शरीर विनय से नम्रीभूत था ।।143।।<span id="144" /> रावण ने कहा कि हे भगवद्! आप कृतकृत्य हैं अत: मुझे पवित्र करने के सिवाय आपके यहाँ आने में दूसरा कारण नहीं है ।।144।।<span id="145" /> तब कुल, वीर्य और विभूति के द्वारा रावण की प्रशंसा कर वचनों से अमृत झलते हुए की तरह मुनिराज कहने लगे कि ।।145।।<span id="146" /> हे आयुष्मन्! तुम्हारे शुभ संकल्प से यही बात है फिर भी मैं एक बात कहता हूँ सो सुन ।।146।।<span id="147" /> यतश्च शत्रुओं का पराभव करने मात्र से क्षत्रियों के कृतकृत्यपना हो जाता है अत: तुम मेरे पुत्र सहस्ररश्मि को छोड़ दो ।।147।।<span id="148" /><span id="149" /> तदनंतर रावण ने मंत्रियों के साथ इशारों से सलाह कर नम्र हो मुनिराज से कहा कि हे नाथ! मेरा निम्न प्रकार निवेदन है। मैं इस समय राजलक्ष्मी से उन्मत्त एवं हमारे पूर्वजों का अपराध करने वाले विद्याधराधिपति इंद्र को वश करने के लिए प्रयाण कर रहा हूँ ।।148-149।।<span id="150" /><span id="151" /> सो इस प्रयाणकाल में मनोहर रेवा नदी के किनारे चक्ररत्न रखकर मैं बालू के निर्मल चबूतरे पर जिनेंद्र भगवान की पूजा करने के लिए बैठा था सो इस भोगी-विलासी सहस्ररश्मि के यंत्र रचित वेगशाली जल से उपकरणों के साथ साथ मेरी वह सब पूजा अचानक बह गयी ।।150-151।।<span id="152" /> जिनेंद्र भगवान की पूजा के नष्ट हो जाने से मुझे बहुत क्रोध उत्पन्न हुआ सो इस क्रोध के कारण ही मैंने यह कार्य किया है। प्रयोजन के बिना मैं किसी मनुष्य से द्वेष नहीं करता ।।152।।<span id="153" /> जब मैं पहुँचा तब इस मानी एवं प्रमादी ने यह भी नहीं कहा कि मुझे ज्ञान नहीं था अत: क्षमा कीजिए ।।153।।<span id="154" /> जो भूमिगोचरी मनुष्यों को जीतने के लिए समर्थ नहीं है वह विद्याओं के द्वारा नाना प्रकार की चेष्टाएँ करने वाले विद्याधरों को कैसे जीत सकेगा? ।।154।।<span id="155" /> यही सोचकर मैं पहले अहंकारी भूमिगोचरियों को वश कर रहा हूँ। उसके बाद श्रेणी के क्रम से विद्याधराधिपति इंद्र को वश करूँगा ।।155।।<span id="156" /> इसे मैं वश कर चुका हूँ अत: इसको छोड़ना न्यायोचित ही है फिर जिनके दर्शन केवल पुण्यवान् मनुष्यों की ही हो सकते हैं ऐसे आप आज्ञा प्रदान कर रहे हैं अत: कहना ही क्या है? ।।156।।<span id="157" /> तदनंतर रावण के पुत्र इंद्रजित् ने कहा कि आपने बिलकुल ठीक कहा है सो उचित ही है क्योंकि आप जैसे नीतिज्ञ राजा को छोड़कर दूसरा ऐसा कौन कह सकता है? ।।157।।<span id="158" /></p> | ||
<p>तदनंतर रावण का आदेश पाकर मारीच नामा मंत्री ने हाथ में नंगी तलवार लिये हुए अधिकारी मनुष्यों के द्वारा सहस्ररश्मि को सभा में बुलवाया ।।158।। सहस्ररश्मि पिता के चरणों में नमस्कार कर भूमि पर बैठ गया। रावण ने क्रोधरहित होकर बड़े सम्मान के साथ उससे कहा ।।159।। कि आज से तुम मेरे चौथे भाई हो। चूँकि तुम महाबलवान् हो अत: तुम्हारे साथ मैं इंद्र की विडंबना करने वाले राजा इंद्र को जीतूंगा ।।160।। मैं तुम्हारे लिए मंदोदरी की छोटी बहन स्वयं प्रभा दूँगा। हे सुंदर आकृति के धारक! तुमने जो किया है वह मुझे प्रमाण है ।।161। सहस्ररश्मि बोला कि मेरे इस क्षणभंगुर राज्य को धिक्कार है। जो प्रारंभ में रमणीय दिखते हैं और अंत में जो दुःखों से बहुल होते हैं उन विषयों को धिक्कार है ।।162।। उस स्वर्ग के लिए धिक्कार है जिससे कि च्युति अवश्यंभावी है। दुःख के पात्र स्वरूप इस शरीर को धिक्कार है और जो चिरकाल तक दुष्ट कर्मों से ठगा गया ऐसे मुझे भी धिक्कार है ।।163।। अब तो मैं वह काम करूँगा जिससे कि फिर संसार में नहीं पडूँ। अत्यंत दु:खदायी गतियों में घूमता-घूमता मैं बहुत खिन्न हो चुका हूँ ।।164।। इसके उत्तर में रावण ने कहा कि हे भद्र! दीक्षा तो वृद्ध मनुष्यों के लिए शोभा देती है अभी तो तुम नवयौवन से संपन्न हो ।।165।। सहस्ररश्मि ने रावण की बात काटते हुए बीच में ही कहा कि मृत्यु को ऐसा विवेक थोड़ा ही है कि वह वृद्ध जन को ही ग्रहण करे यौवन वाले को नहीं। अरे! यह शरीर शरद्ऋतु के बादल के समान अकस्मात् ही नष्ट हो जाता है ।।166।। हे रावण! यदि भोगों में कुछ सार होता तो उत्तम बुद्धि के धारक पिताजी ने ही उनका त्याग नहीं किया होता ।।167।। ऐसा कहकर उसने दृढ़ निश्चय के साथ पुत्र के लिए राज्य सौंपा और दशानन से क्षमा याचना कर पिता शतबाहु के समीप दीक्षा धारण कर ली ।।168।। | <p>तदनंतर रावण का आदेश पाकर मारीच नामा मंत्री ने हाथ में नंगी तलवार लिये हुए अधिकारी मनुष्यों के द्वारा सहस्ररश्मि को सभा में बुलवाया ।।158।।<span id="159" /> सहस्ररश्मि पिता के चरणों में नमस्कार कर भूमि पर बैठ गया। रावण ने क्रोधरहित होकर बड़े सम्मान के साथ उससे कहा ।।159।।<span id="160" /> कि आज से तुम मेरे चौथे भाई हो। चूँकि तुम महाबलवान् हो अत: तुम्हारे साथ मैं इंद्र की विडंबना करने वाले राजा इंद्र को जीतूंगा ।।160।।<span id="161" /> मैं तुम्हारे लिए मंदोदरी की छोटी बहन स्वयं प्रभा दूँगा। हे सुंदर आकृति के धारक! तुमने जो किया है वह मुझे प्रमाण है ।।161।<span id="162" /> सहस्ररश्मि बोला कि मेरे इस क्षणभंगुर राज्य को धिक्कार है। जो प्रारंभ में रमणीय दिखते हैं और अंत में जो दुःखों से बहुल होते हैं उन विषयों को धिक्कार है ।।162।।<span id="163" /> उस स्वर्ग के लिए धिक्कार है जिससे कि च्युति अवश्यंभावी है। दुःख के पात्र स्वरूप इस शरीर को धिक्कार है और जो चिरकाल तक दुष्ट कर्मों से ठगा गया ऐसे मुझे भी धिक्कार है ।।163।।<span id="164" /> अब तो मैं वह काम करूँगा जिससे कि फिर संसार में नहीं पडूँ। अत्यंत दु:खदायी गतियों में घूमता-घूमता मैं बहुत खिन्न हो चुका हूँ ।।164।।<span id="165" /> इसके उत्तर में रावण ने कहा कि हे भद्र! दीक्षा तो वृद्ध मनुष्यों के लिए शोभा देती है अभी तो तुम नवयौवन से संपन्न हो ।।165।।<span id="166" /> सहस्ररश्मि ने रावण की बात काटते हुए बीच में ही कहा कि मृत्यु को ऐसा विवेक थोड़ा ही है कि वह वृद्ध जन को ही ग्रहण करे यौवन वाले को नहीं। अरे! यह शरीर शरद्ऋतु के बादल के समान अकस्मात् ही नष्ट हो जाता है ।।166।।<span id="167" /> हे रावण! यदि भोगों में कुछ सार होता तो उत्तम बुद्धि के धारक पिताजी ने ही उनका त्याग नहीं किया होता ।।167।।<span id="168" /> ऐसा कहकर उसने दृढ़ निश्चय के साथ पुत्र के लिए राज्य सौंपा और दशानन से क्षमा याचना कर पिता शतबाहु के समीप दीक्षा धारण कर ली ।।168।।<span id="166" /><span id="167" /><span id="168" /><span id="169" /><span id="170" /> सहस्ररश्मि ने अपने मित्र अयोध्या के राजा अनरण्य से पहले कह रखा था कि जब मैं दिगंबर दीक्षा धारण करूँगा तब तुम्हारे लिए खबर दूँगा और अनरण्य ने भी सहस्ररश्मि से ऐसा ही कह रखा था सो इस कथन के अनुसार सहस्ररश्मि ने खबर देने के लिए अनरण्य के पास आदमी भेजे ।।166-170।।<span id="171" /> गये हुए पुरुषों ने जब अनरण्य से सहस्ररश्मि के वैराग्य की वार्ता कही तो उसे सुनकर उसके नेत्र आँसुओं से भर गये। उस महापुरुष के गुणों का स्मरण कर वह चिरकाल तक विलाप करता रहा ।।171।।<span id="172" /> जब विषाद कम हुआ तो महाबुद्धिमान् अनरण्य ने कहा कि उसके पास रावण क्या आया मानो शत्रु के वेष में भाई ही उसके पास आया ।।172।।<span id="173" /> वह रावण कि जिसने अत्यंत अनुकूल होकर विषयों से मोहित हो चिरकाल तक ऐश्वर्य रूपी पिंजडे के अंदर स्थित रहनेवाले इस मनुष्य रूपी पक्षी को मुक्त किया है ।।173।।<span id="174" /> माहिष्मती के राजा सहस्ररश्मि को धन्य है जो रावण के सम्यग्ज्ञानरूपी जहाज का आश्रय ले संसाररूपी सागर को तैरना चाहता है ।।174।।<span id="175" /> जो अंत में अत्यंत दुःख देने वाले राज्य नामक पाप को छोड़कर जिनेंद्र प्रणीत व्रत को प्राप्त हुआ है अब उसकी कृतकृत्यता का क्या पूछना ।।175।।<span id="176" /> इस प्रकार सहस्ररश्मि की प्रशंसा कर अनरण्य भी संसार से भयभीत हो पुत्र के लिए राज्यलक्ष्मी सौंप बड़े पुत्र के साथ मुनि हो गया ।।176।।<span id="177" /></p> | ||
<p> गौतम स्वामी राजा श्रेणिक से कहते हैं कि हे राजन्! जब उत्कृष्ट कर्म का निमित्त मिलता है तब शत्रु अथवा मित्र किसी के भी द्वारा इस जीव को कल्याणकारी बुद्धि प्राप्त हो जाती है पर जब तक निकृष्ट कर्म का उदय रहता है तब तक प्राप्त नहीं होती ।।177।। जो जिसके मन को अच्छे कार्य में लगा देता है यथार्थ में वही उसका बांधव है और जो जिसके मन को भोगोपभोग की वस्तुओं में लगाता है वही उसका वास्तविक शत्रु है ।।178।। इस प्रकार सहस्ररश्मि का ध्यान करता हुआ जो मनुष्य मुनियों के समान शीलरूपी संपदा से युक्त राजा अनरण्य का चरित्र सुनता है वह सूर्य के समान निर्मलता को प्राप्त होता है ।।179।।</p> | <p> गौतम स्वामी राजा श्रेणिक से कहते हैं कि हे राजन्! जब उत्कृष्ट कर्म का निमित्त मिलता है तब शत्रु अथवा मित्र किसी के भी द्वारा इस जीव को कल्याणकारी बुद्धि प्राप्त हो जाती है पर जब तक निकृष्ट कर्म का उदय रहता है तब तक प्राप्त नहीं होती ।।177।।<span id="178" /> जो जिसके मन को अच्छे कार्य में लगा देता है यथार्थ में वही उसका बांधव है और जो जिसके मन को भोगोपभोग की वस्तुओं में लगाता है वही उसका वास्तविक शत्रु है ।।178।।<span id="179" /> इस प्रकार सहस्ररश्मि का ध्यान करता हुआ जो मनुष्य मुनियों के समान शीलरूपी संपदा से युक्त राजा अनरण्य का चरित्र सुनता है वह सूर्य के समान निर्मलता को प्राप्त होता है ।।179।।<span id="10" /></p> | ||
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<p><u>इस प्रकार आर्ष नाम से प्रसिद्ध रविषेणाचार्य विरचित पद्म चरित में दशानन के प्रयाण के समय राजा सहस्त्ररश्मि और अनरण्य की दीक्षा का वर्णन करनेवाला दशवाँ पर्व पूर्ण हुआ ।।10।।</u></p> | <p><u>इस प्रकार आर्ष नाम से प्रसिद्ध रविषेणाचार्य विरचित पद्म चरित में दशानन के प्रयाण के समय राजा सहस्त्ररश्मि और अनरण्य की दीक्षा का वर्णन करनेवाला दशवाँ पर्व पूर्ण हुआ ।।10।।<span id="11" /></u></p> | ||
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Latest revision as of 21:50, 9 August 2023
अथानंतर- गौतमस्वामी राजा श्रेणिक से कहते हैं कि हे श्रेणिक! इस तरह तुमने बाली का वृत्तांत जाना। अब इसके आगे तेरे लिए सुग्रीव और सुतारा का श्रेष्ठ चरित क्या हूँ सो सुन ।।1।। ज्योतिपुर नामा नगर में राजा अग्निशिख की रानी ह्री देवी के उदर से उत्पन्न एक सुतारा नाम की कन्या थी। शोभा से समस्त पृथिवी में प्रसिद्ध थी और ऐसी जान पड़ती थी मानो कमलरूपी आवास को छोड़कर लक्ष्मी ही आ गयी हो ।।2-3।। एक दिन राजा चक्रांक और अनुमति रानी से उत्पन्न साहसगति नामक दुष्ट विद्याधर अपनी इच्छा से इधर उधर भ्रमण कर रहा था सो उसने सुतारा देखी ।।4।। उसे देखकर वह कामरूपी शल्य से विद्ध होकर अत्यंत दुःखी हुआ। वह सुतारा को निरंतर अपने मन में धारण करता था और उन्मत्त जैसी उसकी चेष्टा थी ।।5।। इधर वह एक के बाद एक दूत भेजकर उसकी याचना करता था उधर सुग्रीव भी उस मनोहर कन्या की याचना करता था ।।6।। ‘अपनी कन्या दो में से किसे दूँ’ इस प्रकार द्वैधीभाव को प्राप्त हुआ राजा अग्निशिख निश्चय नहीं कर सका इसलिए उसकी आत्मा निरंतर व्याकुल रहती थी। आखिर महाज्ञानी मुनिराज से पूछा ।।7।। तब महाज्ञानी मुनिचंद्र ने कहा कि साहसगति चिरकाल तक जीवित नहीं रहेगा- अल्पायु है और सुग्रीव इसके विपरीत परम अभ्युदय का धारक तथा चिरायु है ।।8।। राजा अग्निशिख, साहसगति के पिता चक्रांक का पक्ष प्रबल होने से मुनिचंद्र के वचनों का निश्चय नहीं कर सका तब मुनिचंद्र ने दो दीपक, दो वृष और गजराजों को निमित्त बनाकर उसे अपनी बात का दृढ़ निश्चय करा दिया ।।9।। तदनंतर मुनिराज के अमृत तुल्य वचनों का निश्चय कर पिता अग्निशिख ने अपनी पुत्री सुतारा लाकर मंगलाचार पूर्वक सुग्रीव के लिए दे दी ।।10।। जिसका पुण्य का संचय प्रबल था ऐसा सुग्रीव उस कन्या को विवाह कर बड़ी संपदा के साथ श्रेष्ठ कामोपभोग को प्राप्त हुआ ।।11।। तदनंतर सुग्रीव और सुतारा के क्रम से दो पुत्र उत्पन्न हुए। दोनों ही अत्यंत सुंदर थे। उनमें से बड़े पुत्र का नाम अंग था और छोटा पुत्र अंगद के नाम से प्रसिद्ध था ।।12।। राजा चक्रांक का पुत्र साहसगति इतना निर्लज्ज था कि वह अब भी सुतारा की आशा नहीं छोड़ रहा था सो आचार्य कहते हैं कि इस काम से दूषित आशा को धिक्कार हो ।।13।। जो कामाग्नि से जल रहा था ऐसा, सारहीन मन का धारक साहसगति निरंतर यही विचार करता रहता था कि मैं सुख देने वाली उस कन्या को किस उपाय से प्राप्त कर सकूँगा ।।14।। जिसने अपनी शोभा से चंद्रमा को जीत लिया है और जिसका ओंठ स्फुरायमान लाल कांति से आच्छादित है ऐसे उसके मुख का कब चुंबन करूँगा? ।।15।। नंदनवन के मध्य में उसके साथ कब क्रीड़ा करूँगा और उसके स्थूल स्तनों के स्पर्शजन्य सुखोत्सव को कब प्राप्त होऊँगा ।।16।। इस प्रकार उसके समागम के कारणों का ध्यान करते हुए उसने रूप बदलने वाली शेमुषी नामक विद्या का स्मरण किया ।।17।। जिस प्रकार प्रिय मित्र अपने दुःखी मित्र की निरंतर आराधना करता है उसी प्रकार साहसगति हिमवान् पर्वत पर जाकर उसकी दुर्गम गुहा का आश्रय ले उस विद्या की आराधना करने लगा ।।18।।
अथानंतर इसी बीच में रावण दिग्विजय करने के लिए निकला सो पर्वत और वनों से विभूषित पृथिवी को देखता हुआ भ्रमण करने लगा ।।19।। विशाल आज्ञा को धारण करने वाले जितेंद्रिय रावण ने दूसरे दूसरे द्वीपों में स्थित विद्याधर राजाओं को जीतकर उन्हें फिर से अपने अपने देशों में नियुक्त किया ।।20।। जिन विद्याधर राजाओं को वह वश में कर चुका था उन सब पर उसका मन पुत्रों के समान स्निग्ध था अर्थात् जिस प्रकार पिता का मन पुत्रों पर स्नेहपूर्ण होता है उसी प्रकार दशानन का मन वशीकृत राजाओं पर स्नेहपूर्ण था। सो ठीक ही है क्योंकि महापुरुष नमस्कार मात्र से संतुष्ट हो जाते हैं ।।21।। राक्षसवंश और वानरवंश में जो भी उद्धत विद्याधर राजा थे उन सबको उसने वश में किया था ।।22।। बड़ी भारी सेना के साथ जब रावण आकाशमार्ग से जाता था तब उसकी वेग जन्य वायु को अन्य विद्याधर सहन करने में असमर्थ हो जाते थे ।।23।। संध्याकार, सुवेल, हेमापूर्ण, सुयोधन, हंसद्वीप और परिह्लाद आदि जो राजा थे वे सब भेंट ले लेकर तथा हाथ जोड़ मस्तक से लगा लगाकर उसे नमस्कार करते थे और रावण भी अच्छे-अच्छे वचनों से उन्हें संतुष्ट कर उनकी संपदाओं को पूर्ववत् अवस्थित रखता था ।।24-25।। जो विद्याधर राजा अत्यंत दुर्गम स्थानों में रहते थे उन्होंने भी उत्तमोत्तम शिष्टाचार के साथ रावण के चरणों में नमस्कार किया था ।।26।। आचार्य कहते हैं कि सब बलों में कर्मो के द्वारा किया हुआ बल ही श्रेष्ठ बल है सो उसका उदय रहते हुए रावण किसे जीतने के लिए समर्थ नहीं हुआ था? अर्थात् वह सभी को जीतने में समर्थ था ।।27।।
अथानंतर- रावण रथनूपुर नगर के राजा इंद्र विद्याधर को जीतने के लिए प्रवृत्त हुआ सो उसने इस अवसर पर अपनी बहन चंद्रनखा और उसके पति खरदूषण का बड़े भारी स्नेह से स्मरण किया ।।28।। प्रस्थान कर पाताल लंका के समीप पहुँचा। जब बहन को इस बात का पता चला कि प्रीति से भरा हमारा भाई निकट ही आकर स्थित है तब वह उत्कंठा से भर गयी ।।29।। उस समय रात्रि का पिछला पहर था और खरदूषण सुख से सो रहा था सो चंद्रनखा ने बड़े प्रेम से उसे जगाया ।।30।। तदनंतर खरदूषण ने अलंकारोदयपुर (पाताल लंका) से निकलकर बड़ी भक्ति और बहुत भारी उत्सव से रावण की पूजा की ।।31।। रावण ने भी बदले में प्रीतिपूर्वक बहन की पूजा की सो ठीक ही है क्योंकि संसार में भाई का स्नेह से बढ़कर दूसरा स्नेह नहीं है ।।32।। खरदूषण ने रावण के लिए इच्छानुसार रूप बदलने वाले चौदह हजार विद्याधर दिखलाये ।।33।। जो अत्यंत कुशल था, शूरवीर था और जिसने अपने गुणों से समस्त सामंतों के मन को अपनी ओर खींच लिया था ऐसे खरदूषण को रावण ने अपने समान सेनापति बनाया ।।34।। जिस प्रकार असुरों के समूह से आवृत चामरेंद्र पाताल से निकलकर प्रस्थान करता है उसी प्रकार रावण ने सर्वप्रकार के शस्त्रों में कौशल प्राप्त करने वाले खरदूषण आदि विद्याधरों के साथ पाताललंका से निकलकर प्रस्थान किया ।।35।। हिडंब, हैहिड, डिंब, विकट, त्रिजट, हय, माकोट, सुजट, टंक, किष्किंधाधिपति, त्रिपुर, मलय, हेमपाल, कोल और वसुंधर आदि राजा नाना प्रकार के वाहनों पर आरूढ़ होकर साथ जा रहे थे। ये सभी राजा नाना प्रकार के शस्त्रों से सुशोभित थे ।।36-37।। जिस प्रकार बिजली और इंद्रधनुष से युक्त मेघों के समूह से सावन का माह भर जाता है उसी प्रकार उन समस्त विद्याधर राजाओं से दशानन भर गया था ।।38।। इस प्रकार कैलास को कंपित करने वाले रावण के कुछ अधिक एक हजार अक्षौहिणी प्रमाण विद्याधरों की सेना इकट्ठी हो गयी थी ।।39।। प्रत्येक के हजार हजार देव जिनकी रक्षा करते थे और जो नाना गुणों के समूह को धारण करने वाले थे ऐसे रत्न उसके साथ चलते थे ।।40।। चंद्रमा की किरणों के समूह के समान जिनका आकार था ऐसे चमर उस पर ढोले जा रहे थे। उसके सिर पर सफेद छत्र लग रहा था और उसकी लंबी-लंबी भुजाएँ सुंदर रूपकों धारण करने वाली थीं ।।41।। वह पुष्पक विमान के अग्रभाग पर आरूढ़ था जिससे मेरुपर्वत पर स्थित सूर्य के समान कांति को धारण कर रहा था। वह अपनी यानरूपी संपत्ति के द्वारा सूर्य का मार्ग अर्थात् आकाश को आच्छादित कर रहा था ।।42।। प्रबल पराक्रम का धारी रावण मन में इंद्र के विनाश का संकल्प कर इच्छानुकूल प्रयाणकों से निरंतर आगे बढ़ता जाता था ।।43।। उस समय वह आकाश को ठीक समुद्र के समान बना रहा था क्योंकि जिस प्रकार समुद्र में नाना प्रकार के रत्नों की कांति व्याप्त होती है उसी प्रकार आकाश में नाना प्रकार के रत्नों की कांति फैल रही थी। जिस प्रकार समुद्र तरंगों से युक्त होता है उसी प्रकार आकाश चामररूपी तरंगों से युक्त होता था। जिस प्रकार समुद्र में मीन अर्थात् मछलियों का समूह होता है उसी प्रकार आकाश में दंडरूपी मछलियों का समूह था। जिस प्रकार समुद्र सैकड़ों आवर्तों अर्थात् भ्रमरों से सहित होता है उसी प्रकार आकाश भी छत्ररूपी सैकड़ों भ्रमरों से युक्त था। जिस प्रकार समुद्र मगरमच्छों के समूह से भयंकर होता है उसी प्रकार आकाश भी घोड़े, हाथी और पैदल योद्धारूपी मगरमच्छों से भयंकर था तथा जिस प्रकार समुद्र में अनेक कल्लोल अर्थात् तरंग उठते रहते हैं उसी प्रकार आकाश में भी अनेक शस्त्ररूपी तरंग उठ रहे थे ।।44-45।। जिनके अग्रभाग पर मयूरपिच्छों का समूह विद्यमान था ऐसी चमकीली ऊँची ध्वजाओं से कहीं आकाश ऐसा जान पड़ता था मानो इंद्रनील मणियों से युक्त हीरों से ही व्याप्त हो ।।46।। जिन में नाना प्रकार के रत्नों का प्रकाश फैल रहा था और जो ऊँचे-ऊँचे शिखरों से सुशोभित थे ऐसे विमानों के समूह से आकाश कहीं चलते-फिरते स्वर्गलोक के समान जान पड़ता था ।।47।। गौतमस्वामी राजा श्रेणिक से कहते हैं कि मगधेश्वर! इस विषय में बहुत कहने से क्या? मुझे तो ऐसा लगता है कि रावण की सेना देखकर देव भी भयभीत हो रहे थे ।।48।। जिन्हें विद्यारूपी महाप्रकाश प्राप्त था और शस्त्र तथा शास्त्र में जिन्होंने परिश्रम किया था ऐसे इंद्रजित्, मेघवाहन, कुंभकर्ण, विभीषण, खरदूषण, निकुंभ और कुंभ, ये तथा इनके सिवाय युद्ध में कुशल अन्य अनेक आत्मीयजन रावण के पीछे-पीछे चल रहे थे। ये सभी लोग बड़ी-बड़ी सेनाओं से सहित थे, इंद्र की लक्ष्मी को लजाते थे, अत्यंत प्रीति से युक्त थे और विशाल कीर्ति के धारक थे ।।46-51।।
तदनंतर जब रावण विंध्याचल के समीप पहुँचा तब सूर्य अस्त हो गया सो रावण के तेज से पराजित होने के कारण लज्जा से ही मानो प्रभाहीन हो गया था ।।52।। सूर्यास्त होते ही उसने विंध्याचल के शिखर पर सेना ठहरा दी। वहाँ विद्या के बल से सेना को नाना प्रकार के आश्रय प्राप्त हुए थे ।।53।। किरणों के द्वारा अंधकार के समूह को दूर करनेवाला चंद्रमा उदित हुआ सो मानो रावण से डरी हुई रात्रि ने उत्तम दीपक ही लाकर उपस्थित किया था ।।54।। तारागण ही जिसके सिर के पुष्प थे, चंद्रमा ही जिसका मुख था और जो निर्मल अंबर(आकाश) रूपी अंबर (वस्त्र) धारण कर रही थी ऐसी उत्तम नायिका के समान रात्रि रावण के समीप आयी ।।55।। विद्याधरों ने नाना प्रकार की कथाओं से, योग्य व्यापारों से तथा अनुकूल निद्रा से वह रात्रि व्यतीत की ।।56।। तदनंतर प्रातःकाल की तुरही और वंदीजनों के मांगलिक शब्दों से जागकर रावण ने शरीर संबंधी समस्त कार्य किये ।।57।। सूर्योदय हुआ सो मानो सूर्य समस्त जगह भ्रमण कर अन्य आश्रय न देख पुन: रावण की शरण में आया ।।58।। तदनंतर रावण ने नर्मदा नदी देखी। नर्मदा मधुर शब्द करने वाले नाना पक्षियों के समूह के साथ मानो अत्यधिक वार्तालाप ही कर रही थी ।।59।। फेन के समूह से ऐसी जान पड़ती थी मानो हँस ही रही हो। उसका जल शुद्ध स्फटिक के समान निर्मल था और वह हाथियों से सुशोभित थी ।।60।। वह नर्मदा तरंगरूपी भ्रकुटी के विलास से युक्त थी, आवर्तरूपी नाभि से सहित थी, तैरती हुई मछलियाँ ही उसके नेत्र थे, दोनों विशाल तट ही स्थूल नितंब थे, नाना फूलों से वह व्याप्त थी और निर्मल जल ही उसका वस्त्र था। इस प्रकार किसी उत्तम नायिका के समान नर्मदा को देख रावण महा प्रीति को प्राप्त हुआ ।।61-62।। वह नर्मदा कहीं तो उग्र मगरमच्छों के समूह से व्याप्त होने के कारण गंभीर थी, कहीं वेग से बहती थी, कहीं मंद गति से बहती थी और कहीं कुंडल की तरह टेढ़ी-मेढ़ी चाल से बहती थी ।।63।। नाना चेष्टाओं से भरी हुई थी तथा भयंकर होने पर भी रमणीय थी। जिसका चित्त कौतुक से व्याप्त था ऐसे रावण ने बड़े आदर के साथ उस नर्मदा नदी में प्रवेश किया ।।64।।
अथानंतर जो अपने बल से पृथिवी पर प्रसिद्ध था ऐसा माहिष्मती का राजा सहस्ररश्मि भी उसी समय अन्य दिशा से नर्मदा में प्रविष्ट हुआ ।।65।। यह सहस्ररश्मि यथार्थ में परम सुंदर था क्योंकि उत्कृष्ट कांति को धारण करने वाली हजारों स्त्रियाँ उसके साथ थीं ।।66।। उसने उत्कृष्ट कलाकारों के द्वारा नाना प्रकार के जल यंत्र बनवाये थे सो उन सबका आश्रय कर आश्चर्य को उत्पन्न करनेवाला सहस्ररश्मि नर्मदा में उतरकर नाना प्रकार की क्रीड़ा कर रहा था ।।67।। उसके साथ यंत्र निर्माण को जानने वाले ऐसे अनेक मनुष्य थे जो समुद्र का भी जल रोकने में समर्थ थे फिर नदी की तो बात ही क्या थी। इस प्रकार अपनी इच्छानुसार वह नर्मदा में भ्रमण कर रहा था ।।68।। यंत्रों के प्रयोग से नर्मदा का जल क्षण-भर में रुक गया था इसलिए नाना प्रकार की क्रीड़ा में निपुण स्त्रियाँ उसके तट पर भ्रमण कर रही थीं ।।69।। उन स्त्रियों के अत्यंत पतले और उज्ज्वल वस्त्र जल का संबंध पाकर उनके नितंब स्थलों से एकदम श्लिष्ट हो गये थे इसलिए जब पति उनकी ओर आँख उठाकर देखता था तब वे लज्जा से गड जाती थीं ।।70।। शरीर का लेप धुल जाने के कारण जो नखक्षतों से चिह्नित स्तन दिखला रही थी ऐसी कोई एक स्त्री अपनी सौत के लिए ईर्ष्या उत्पन्न कर रही थी ।।71।। जिसके समस्त अंग दिख रहे थे ऐसी कोई उत्तम स्त्री लजाती हुई दोनों हाथों से बड़ी आकुलता के साथ पति की ओर पानी उछाल रही थी ।।72।। कोई अन्य स्त्री सौत के नितंब स्थल पर नखक्षत देखकर क्रीड़ाकमल की नाल से पति पर प्रहार कर रही थी ।।73।। कोई एक स्वभाव की क्रोधिनी स्त्री मौन लेकर निश्चल खड़ी रह गयी थी तब पति ने चरणों में प्रणाम कर उसे किसी तरह संतुष्ट किया ।।74।। राजा सहस्ररश्मि जब तक एक स्त्री को प्रसन्न करता था तब तक दूसरी स्त्री रोष को प्राप्त हो जाती थी। इस कारण वह समस्त स्त्रियों को बड़ी कठिनाई से संतुष्ट कर सका था ।।75।। उत्तमोत्तम स्त्रियों से घिरा, मनोहर रूप का धारक वह राजा, किसी स्त्री की ओर देखकर, किसी का स्पर्श कर, किसी के प्रति कोप प्रकट कर, किसी के प्रति अनेक प्रकार की प्रसन्नता प्रकट कर, किसी को प्रणाम कर, किसी के ऊपर पानी उछालकर, किसी को कर्णा भरण से ताड़ित कर, किसी का धोखे से वस्त्र खींचकर, किसी को मेखला से बाँधकर, किसी के पास से दूर हटकर, किसी को भारी डाँट दिखाकर, किसी के साथ संपर्क कर, किसी के स्तनों में कंपन उत्पन्न कर, किसी के साथ हँसकर, किसी के आभूषण गिराकर, किसी को गुदगुदा कर, किसी के प्रति भौंह चलाकर, किसी से छिपकर, किसी के समक्ष प्रकट होकर तथा किसी के साथ अन्य प्रकार के विभ्रम दिखाकर नर्मदा नदी में बडे-आनंद से उस तरह क्रीड़ा कर रहा था जिस प्रकार कि देवियों के साथ इंद्र क्रीड़ा किया करता है ।।76-79।। उदार हृदय को धारण करने वाली उन स्त्रियों के जो आभूषण बालू के ऊपर गिर गये थे उन्होंने निर्माल्य की माला के समान फिर उन्हें उठाने की इच्छा नहीं की थी ।।80।। किसी स्त्री ने चंदन के लेप से पानी को सफेद कर दिया था तो किसीने केशर के द्रव से उसे सुवर्ण के समान पीला बना दिया था ।।81।। जिनकी पान की लालिमा धुल गयी थी ऐसे स्त्रियों के ओंठ तथा जिनका काजल छूट गया था ऐसे नेत्रों की कोई अद्भुत ही शोभा दृष्टि गोचर हो रही थी ।।82।। तदनंतर यंत्र के द्वारा छोड़े हुए जल के बीच में वह राजा, काम उत्पन्न करने वाली अनेक उत्कृष्ट स्त्रियों के साथ इच्छानुसार क्रीड़ा करने लगा ।।83।। उस समय तट के समीपवर्ती जल में विचरण करने वाले पक्षी मनोहर शब्द कर रहे थे सो ऐसा जान पड़ता था मानो जल के भीतर क्रीड़ा करने वाली स्त्रियों ने अपने आभूषणों का शब्द उनके पास धरोहर ही रख दिया हो ।।84।। उधर यह सब चल रहा था इधर रावण ने भी सुखपूर्वक स्थान कर घुले हुए उत्तम वस्त्र पहने और अपने मस्तक को बड़ी सावधानी से सफेद वस्त्र से युक्त किया ।।85।। जिसे नियुक्त मनुष्य सदा बड़ी सावधानी से साथ लिये रहते थे ऐसी स्वर्ण तथा रत्न निर्मित अर्हंत भगवान की प्रतिमा को रावण ने नदी के उस तीर पर स्थापित कराया जो कि नदी के बीच नया निकला था, मनोहर था, सफेद तथा देदीप्यमान था, बालू के द्वारा निर्मित ऊँचे चबूतरे से सुशोभित था, जहाँ वैदूर्यमणि की छड़ियों पर चंदोवा तानकर उस पर मोतियों की झालर लटकायी गयी थी और जो सब प्रकार के उपकरण इकट्ठे करने में व्यग्र परिजनों से भरा था ।।86-88।। प्रतिमा स्थापित कर उसने भारी सुगंधि से भ्रमरों को आकर्षित करने वाले धूप, चंदन, पुष्प तथा मनोहर नैवेद्य के द्वारा बड़ी पूजा की और सामने बैठकर चिरकाल तक स्तुति के पवित्र अक्षरों से अपने मुख को सहित किया ।।89-90।।
अथानंतर रावण पूजा में निमग्न था कि अचानक ही उसकी पूजा सब ओर से फेन तथा बबूलों से युक्त, मलिन एवं वेगशाली जल के पूर से नष्ट हो गयी ।।91।। तब रावण ने शीघ्र ही प्रतिमा ऊपर उठाकर कुपित हो लोगों से कहा कि मालूम करो क्या बात है? ।।92।। तदनंतर लोगों ने वेग से जाकर और वापस लौटकर निवेदन किया कि हे नाथ! आभूषणों से परम अभ्युदय को प्रकट करनेवाला कोई मनुष्य सुंदर स्त्रियों के बीच बैठा है। तलवार को धारण करने वाले मनुष्य दूर खड़े रहकर उसे घेरे हुए हैं। नाना प्रकार के बड़े-बड़े यंत्र उसके पास विद्यमान हैं। निश्चय ही यह कार्य उन सब यंत्रों का किया है ।।93-95।। हमारा ध्यान है कि उसके पास जो पुरुष हैं वे तो व्यवस्था मात्र के लिए हैं यथार्थ में उसका जो बल है वही दूसरों के लिए दुःख से सहन करने योग्य है ।।96।। लोक-कथा से सुना जाता है कि स्वर्ग में अथवा सुमेरु पर्वत पर इंद्र नाम का कोई व्यक्ति रहता है पर हमने तो यह साक्षात् ही इंद्र देखा है ।।97।। उसी समय रावण ने वीणा, बाँसुरी आदि से युक्त तथा जय-जय शब्द से निश्चित मृदंग का शब्द सुना। साथ ही हाथी, घोड़े और मनुष्यों का शब्द भी उसने सुना। सुनते ही उसकी भौंह चढ़ गयी। उसी समय उसने राजाओं को आज्ञा दी कि इस दुष्ट को शीघ्र ही पकड़ा जाये ।।98-99।। आज्ञा देकर रावण फिर नदी के किनारे रत्न तथा सुवर्ण निर्मित पुष्पों से जिन प्रतिमा की उत्तम पूजा करने लगा ।।100।। विद्याधर राजाओं ने रावण की आज्ञा शेषाक्षत के समान मस्तक पर धारण की और तैयार हो वे शीघ्र ही शत्रु के सम्मुख दौड़ पड़े ।।101।। तदनंतर शत्रुदल को आया देख सहस्ररश्मि क्षण-भर में क्षुभित हो गया और स्त्रियों को अभय देकर शीघ्र ही जलाशय से बाहर निकला ।।102।। तत्पश्चात् कल-कल सुनकर और जनसमूह से सब समाचार जानकर माहिष्मती के वीर शीघ्र ही तैयार हो बाहर निकल पड़े ।।103।। जिस प्रकार वसंत आदि ऋतुएँ सम्मेदाचल के पास एक साथ आ पहुँचती हैं उसी प्रकार नाना तरह के शस्त्रों को धारण करने वाले बहुत भारी अनुराग से भरे सामंत सहस्ररश्मि के पास एक साथ आ पहुँचे। वे सामंत हाथियों, घोड़ों और रथों पर सवार थे तथा पैदल चलने वाले सैनिकों से युक्त थे ।।104-105।।
परस्पर एक दूसरे की रक्षा करने में तत्पर तथा उत्साह से भरे सहस्ररश्मि के सामंतों ने जब विद्याधरों की सेना आती देखी तो वे जीवन का लोभ छोड़ मेघ व्यूह की रचना कर स्वामी की आज्ञा के बिना ही युद्ध करने के लिए उठ खड़े हुए ।।106-107।। इधर जब रावण की सेना युद्ध करने के लिए उद्यत हुई तब आकाश में सहसा देवताओं के निम्नांकित वचन विचरण करने लगे ।।108।। देवताओं ने कहा कि अहो! वीर लोग यह बड़ा अन्याय करना चाहते हैं कि भूमिगोचरियों के साथ विद्याधर युद्ध करने के लिए उद्यत हुए हैं ।।109।। ये बेचारे भूमिगोचरी थोड़े तथा सरल चित्त हैं और विद्याधर इनके विपरीत विद्या तथा माया को करने वाले एवं संख्या में बहुत हैं ।।110।। इस प्रकार आकाश में बार-बार कहे हुए इस आकुलतापूर्ण शब्द को सुनकर अच्छी प्रवृत्ति वाले विद्याधर लज्जा से युक्त होते हुए पृथिवी पर आ गये ।।111।। तदनंतर समान योद्धाओं के द्वारा प्रारंभ किये हुए युद्ध में रावण के पुरुष परस्पर तलवार, बाण, गदा और भाले आदि से प्रहार करने लगे ।।112।। रथों के सवार रथों के सवारों के साथ, घुड़सवार घुड़सवारों के साथ, हाथियों के सवार हाथियों के सवारों के साथ और पैदल सैनिक पैदल सैनिकों के साथ युद्ध करने लगे ।।113।। जिन्हें क्रम-क्रम से पराजय प्राप्त हो रहा था और जिनके शस्त्र-समूह की टक्कर से अग्नि उत्पन्न हो रही थी ऐसे योद्धाओं ने न्यायपूर्वक युद्ध करना शुरू किया ।।114।। जब सहस्ररश्मि ने अपनी सेना को शीघ्र ही नष्ट होने के निकट देखा तब उत्तम रथ पर सवार हो तत्काल आ पहुँचा ।।115।। उत्तम किरीट और कवच को धारण करनेवाला सहस्ररश्मि उत्कृष्ट तेज को धारण करता था इसलिए विद्याधरों की सेना देख वह जरा भी भयभीत नहीं हुआ ।।116।। तदनंतर स्वामी से सहित होने के कारण जिनका तेज पुन: वापस आ गया था, जिनके ऊपर खुले हुए छत्र लग रहे थे और जिन्होंने घावों का कष्ट भुला दिया था ऐसे रण निपुण भूमिगोचरी राक्षसों की सेना में इस प्रकार घुस गये जिस प्रकार कि मदोन्मत्त हाथी गहरे समुद्र में घुस जाते हैं ।।117-118।। जिस प्रकार वायु मेघों को उड़ा देता है उसी प्रकार अत्यधिक क्रोध को धारण करनेवाला सहस्ररश्मि बाणों के समूह से शत्रुओं को उड़ाने लगा ।।119।। यह देख द्वारपाल ने रावण से निवेदन किया कि हे देव! देखो जगत् को तृण के समान तुच्छ देखने वाले, रथ पर बैठे धनुषधारी इस किसी राजा ने बाणों के समूह से तुम्हारी सेना को एक योजन पीछे खदेड़ दिया है ।।120-121।। तदनंतर सहस्ररश्मि को सम्मुख आता देख दशानन त्रिलोकमंडन नामक हाथी पर सवार हो चला। शत्रु जिसे भयभीत होकर देख रहे थे तथा जिसका तेज अत्यंत दु:सह था ऐसे रावण ने बाणों का समूह छोड़कर सहस्ररश्मि को रथरहित कर दिया ।।122-123।। तब सहस्ररश्मि उत्तम हाथी पर सवार हो क्रुद्ध होता हुआ वेग से पुन: रावण के सम्मुख आया ।।124।। इधर सहस्ररश्मि के द्वारा छोड़े हुए पैने बाण कवच को भेदकर रावण के अंगों को विदीर्ण करने लगे ।।125।। उधर रावण ने सहस्ररश्मि के प्रति जो बाण छोड़े थे उन्हें वह शरीर से खींचकर हँसता हुआ जोर से बोला ।।126।। कि अहो रावण! तुम तो बड़े धनुर्धारी मालूम होते हो। यह उपदेश तुम्हें किस कुशल गुरु से प्राप्त हुआ है? ।।127।। अरे छोकड़े! भले धनुर्वेद पढ़ और कयास कर, फिर मेरे साथ युद्ध करना। तू नीति से रहित जान पड़ता है ।।128।। तदनंतर उक्त कठोर वचनों से बहुत भारी क्रोध को प्राप्त हुए रावण ने एक भाला सहस्ररश्मि के ललाट पर मारा ।।129।। जिससे रुधिर की धारा बहने लगी तथा आँखें घूमने लगीं। मूर्छित हो पुन: सावधान होकर जब तक वह बाण ग्रहण करता है तब तक रावण ने वेग से उछलकर उस धैर्यशाली को जीवित ही पकड़ लिया ।।130-131।। रावण उसे बाँधकर अपने डेरे पर ले गया। विद्याधर उसे बड़े आश्चर्य से देख रहे थे। वे सोच रहे थे कि यदि यह किसी तरह उछलकर छूटता है तो फिर इसे कौन पकड़ सकेगा? ।।132।।
तदनंतर संध्यारूपी प्राकार से वेष्टित होता हुआ सूर्य अस्त हो गया सो ऐसा जान पड़ता था मानो सहस्ररश्मि के इस वृत्तांत से उसने कुछ नीति को प्राप्त किया था अर्थात् शिक्षा ग्रहण की थी ।।133।। अच्छे और बुरे को समान करने वाले अंधकार से लोक आच्छादित हो गया सो ऐसा जान पड़ता था मानो रावण के द्वारा छोड़े हुए बहुत भारी क्रोध से ही आच्छादित हुआ हो ।।134।। तदनंतर अंधकार के हरने में निपुण चंद्रमा का बिंब उदित हुआ सो ऐसा जान पड़ता था मानो युद्ध से उत्पन्न हुआ रावण का अत्यंत निर्मल यश ही हो ।।131।। उस समय कोई तो घायल सैनिकों के घावों पर मरहमपट्टी लगा रहे थे, कोई योद्धाओं के पराक्रम का वर्णन कर रहे थे, कोई गुमे हुए सैनिकों की तलाश कर रहे थे और कोई जिन्हें घाव नहीं लगे थे सो रहे थे। इस प्रकार यथायोग्य कार्यों से रावण की सेना की रात्रि व्यतीत हुई। प्रभात हुआ तो प्रभात संबंधी तुरही के शब्द से रावण जागृत हुआ ।।136-137।। तदनंतर परम राग को धारण करता हुआ सूर्य काँपता काँपता उदित हुआ सो ऐसा जान पड़ता था मानो रावण का समाचार जानने के लिए उदित हुआ हो ।।138।।
अथानंतर सहस्ररश्मि के पिता शतबाहु, जो दिगंबर थे, जिन्हें जंघाचारण ऋद्धि प्राप्त थी, जो महाबाहु, महा तपस्वी, चंद्रमा के समान सुंदर, सूर्य के समान तेजस्वी, मेरु के समान स्थिर और समुद्र के समान गंभीर थे, पुत्र को बँधा सुनकर रावण के समीप आये। उस समय रावण अपने शरीर संबंधी कार्यों से निपटकर सभा के बीच में सुख से बैठा था और मुनिराज शतबाहु प्रशांत चित्त एवं लोगों से स्नेह करने वाले थे ।।139-141।। रावण, मुनिराज को दूर से ही देखकर खड़ा हो गया। उसने सामने जाकर तथा पृथ्वी पर मस्तक टेककर नमस्कार किया ।।142।। जब मुनिराज उत्कृष्ट प्रासुक आसन पर विराजमान हो गये तब रावण पृथ्वी पर दोनों हाथ जोड़कर बैठ गया। उस समय उसका सारा शरीर विनय से नम्रीभूत था ।।143।। रावण ने कहा कि हे भगवद्! आप कृतकृत्य हैं अत: मुझे पवित्र करने के सिवाय आपके यहाँ आने में दूसरा कारण नहीं है ।।144।। तब कुल, वीर्य और विभूति के द्वारा रावण की प्रशंसा कर वचनों से अमृत झलते हुए की तरह मुनिराज कहने लगे कि ।।145।। हे आयुष्मन्! तुम्हारे शुभ संकल्प से यही बात है फिर भी मैं एक बात कहता हूँ सो सुन ।।146।। यतश्च शत्रुओं का पराभव करने मात्र से क्षत्रियों के कृतकृत्यपना हो जाता है अत: तुम मेरे पुत्र सहस्ररश्मि को छोड़ दो ।।147।। तदनंतर रावण ने मंत्रियों के साथ इशारों से सलाह कर नम्र हो मुनिराज से कहा कि हे नाथ! मेरा निम्न प्रकार निवेदन है। मैं इस समय राजलक्ष्मी से उन्मत्त एवं हमारे पूर्वजों का अपराध करने वाले विद्याधराधिपति इंद्र को वश करने के लिए प्रयाण कर रहा हूँ ।।148-149।। सो इस प्रयाणकाल में मनोहर रेवा नदी के किनारे चक्ररत्न रखकर मैं बालू के निर्मल चबूतरे पर जिनेंद्र भगवान की पूजा करने के लिए बैठा था सो इस भोगी-विलासी सहस्ररश्मि के यंत्र रचित वेगशाली जल से उपकरणों के साथ साथ मेरी वह सब पूजा अचानक बह गयी ।।150-151।। जिनेंद्र भगवान की पूजा के नष्ट हो जाने से मुझे बहुत क्रोध उत्पन्न हुआ सो इस क्रोध के कारण ही मैंने यह कार्य किया है। प्रयोजन के बिना मैं किसी मनुष्य से द्वेष नहीं करता ।।152।। जब मैं पहुँचा तब इस मानी एवं प्रमादी ने यह भी नहीं कहा कि मुझे ज्ञान नहीं था अत: क्षमा कीजिए ।।153।। जो भूमिगोचरी मनुष्यों को जीतने के लिए समर्थ नहीं है वह विद्याओं के द्वारा नाना प्रकार की चेष्टाएँ करने वाले विद्याधरों को कैसे जीत सकेगा? ।।154।। यही सोचकर मैं पहले अहंकारी भूमिगोचरियों को वश कर रहा हूँ। उसके बाद श्रेणी के क्रम से विद्याधराधिपति इंद्र को वश करूँगा ।।155।। इसे मैं वश कर चुका हूँ अत: इसको छोड़ना न्यायोचित ही है फिर जिनके दर्शन केवल पुण्यवान् मनुष्यों की ही हो सकते हैं ऐसे आप आज्ञा प्रदान कर रहे हैं अत: कहना ही क्या है? ।।156।। तदनंतर रावण के पुत्र इंद्रजित् ने कहा कि आपने बिलकुल ठीक कहा है सो उचित ही है क्योंकि आप जैसे नीतिज्ञ राजा को छोड़कर दूसरा ऐसा कौन कह सकता है? ।।157।।
तदनंतर रावण का आदेश पाकर मारीच नामा मंत्री ने हाथ में नंगी तलवार लिये हुए अधिकारी मनुष्यों के द्वारा सहस्ररश्मि को सभा में बुलवाया ।।158।। सहस्ररश्मि पिता के चरणों में नमस्कार कर भूमि पर बैठ गया। रावण ने क्रोधरहित होकर बड़े सम्मान के साथ उससे कहा ।।159।। कि आज से तुम मेरे चौथे भाई हो। चूँकि तुम महाबलवान् हो अत: तुम्हारे साथ मैं इंद्र की विडंबना करने वाले राजा इंद्र को जीतूंगा ।।160।। मैं तुम्हारे लिए मंदोदरी की छोटी बहन स्वयं प्रभा दूँगा। हे सुंदर आकृति के धारक! तुमने जो किया है वह मुझे प्रमाण है ।।161। सहस्ररश्मि बोला कि मेरे इस क्षणभंगुर राज्य को धिक्कार है। जो प्रारंभ में रमणीय दिखते हैं और अंत में जो दुःखों से बहुल होते हैं उन विषयों को धिक्कार है ।।162।। उस स्वर्ग के लिए धिक्कार है जिससे कि च्युति अवश्यंभावी है। दुःख के पात्र स्वरूप इस शरीर को धिक्कार है और जो चिरकाल तक दुष्ट कर्मों से ठगा गया ऐसे मुझे भी धिक्कार है ।।163।। अब तो मैं वह काम करूँगा जिससे कि फिर संसार में नहीं पडूँ। अत्यंत दु:खदायी गतियों में घूमता-घूमता मैं बहुत खिन्न हो चुका हूँ ।।164।। इसके उत्तर में रावण ने कहा कि हे भद्र! दीक्षा तो वृद्ध मनुष्यों के लिए शोभा देती है अभी तो तुम नवयौवन से संपन्न हो ।।165।। सहस्ररश्मि ने रावण की बात काटते हुए बीच में ही कहा कि मृत्यु को ऐसा विवेक थोड़ा ही है कि वह वृद्ध जन को ही ग्रहण करे यौवन वाले को नहीं। अरे! यह शरीर शरद्ऋतु के बादल के समान अकस्मात् ही नष्ट हो जाता है ।।166।। हे रावण! यदि भोगों में कुछ सार होता तो उत्तम बुद्धि के धारक पिताजी ने ही उनका त्याग नहीं किया होता ।।167।। ऐसा कहकर उसने दृढ़ निश्चय के साथ पुत्र के लिए राज्य सौंपा और दशानन से क्षमा याचना कर पिता शतबाहु के समीप दीक्षा धारण कर ली ।।168।। सहस्ररश्मि ने अपने मित्र अयोध्या के राजा अनरण्य से पहले कह रखा था कि जब मैं दिगंबर दीक्षा धारण करूँगा तब तुम्हारे लिए खबर दूँगा और अनरण्य ने भी सहस्ररश्मि से ऐसा ही कह रखा था सो इस कथन के अनुसार सहस्ररश्मि ने खबर देने के लिए अनरण्य के पास आदमी भेजे ।।166-170।। गये हुए पुरुषों ने जब अनरण्य से सहस्ररश्मि के वैराग्य की वार्ता कही तो उसे सुनकर उसके नेत्र आँसुओं से भर गये। उस महापुरुष के गुणों का स्मरण कर वह चिरकाल तक विलाप करता रहा ।।171।। जब विषाद कम हुआ तो महाबुद्धिमान् अनरण्य ने कहा कि उसके पास रावण क्या आया मानो शत्रु के वेष में भाई ही उसके पास आया ।।172।। वह रावण कि जिसने अत्यंत अनुकूल होकर विषयों से मोहित हो चिरकाल तक ऐश्वर्य रूपी पिंजडे के अंदर स्थित रहनेवाले इस मनुष्य रूपी पक्षी को मुक्त किया है ।।173।। माहिष्मती के राजा सहस्ररश्मि को धन्य है जो रावण के सम्यग्ज्ञानरूपी जहाज का आश्रय ले संसाररूपी सागर को तैरना चाहता है ।।174।। जो अंत में अत्यंत दुःख देने वाले राज्य नामक पाप को छोड़कर जिनेंद्र प्रणीत व्रत को प्राप्त हुआ है अब उसकी कृतकृत्यता का क्या पूछना ।।175।। इस प्रकार सहस्ररश्मि की प्रशंसा कर अनरण्य भी संसार से भयभीत हो पुत्र के लिए राज्यलक्ष्मी सौंप बड़े पुत्र के साथ मुनि हो गया ।।176।।
गौतम स्वामी राजा श्रेणिक से कहते हैं कि हे राजन्! जब उत्कृष्ट कर्म का निमित्त मिलता है तब शत्रु अथवा मित्र किसी के भी द्वारा इस जीव को कल्याणकारी बुद्धि प्राप्त हो जाती है पर जब तक निकृष्ट कर्म का उदय रहता है तब तक प्राप्त नहीं होती ।।177।। जो जिसके मन को अच्छे कार्य में लगा देता है यथार्थ में वही उसका बांधव है और जो जिसके मन को भोगोपभोग की वस्तुओं में लगाता है वही उसका वास्तविक शत्रु है ।।178।। इस प्रकार सहस्ररश्मि का ध्यान करता हुआ जो मनुष्य मुनियों के समान शीलरूपी संपदा से युक्त राजा अनरण्य का चरित्र सुनता है वह सूर्य के समान निर्मलता को प्राप्त होता है ।।179।।
इस प्रकार आर्ष नाम से प्रसिद्ध रविषेणाचार्य विरचित पद्म चरित में दशानन के प्रयाण के समय राजा सहस्त्ररश्मि और अनरण्य की दीक्षा का वर्णन करनेवाला दशवाँ पर्व पूर्ण हुआ ।।10।।