हरिवंश पुराण - सर्ग 15: Difference between revisions
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<div class="G_HindiText"> <p>अथानंतर खिले हुए कमल वन का स्पर्श करने वाली सुगंधित वायु ने स्पर्श कर जिसका समस्त श्रम दूर कर दिया था ऐसे उस मिथुन ने उस समय परस्पर का आलिंगन अत्यंत ढीला कर दिया ॥1॥ जिस पर तरंगों के समान कोमल सिकुड़ने उठ रही थीं तथा जिस पर फूलों का समूह मसला गया था ऐसी शय्या पर सोकर उठा सुमुख, प्रिया वनमाला के साथ उस तरह सुशोभित हो रहा था जिस तरह कि बालू के स्थल पर हंसनी के साथ मदोन्मत्त युवा हंस सुशोभित होता है ॥2॥ जिस प्रकार रात्रि के समय बिछुड़ने वाले चकवा-चकवी का हृदय क्षण-भर के लिए भी वियोगरूपी विष को सहन नहीं करता है उसी प्रकार मनोहर चेष्टा के धारक उन प्रिय वधू-वर का हृदय क्षण भर के लिए भी वियोगरूपी विष को सहन नहीं करना चाहता था ॥3॥ इसलिए राजा सुमुख ने वधू-वनमाला को उसके पति के घर नहीं भेजा अपने ही घर रोक लिया सो ठीक ही है क्योंकि दुर्लभ वस्तु को पाकर उसका रस प्राप्त करने वाले उसे छोड़ते नहीं हैं | <span id="1" /><div class="G_HindiText"> <p>अथानंतर खिले हुए कमल वन का स्पर्श करने वाली सुगंधित वायु ने स्पर्श कर जिसका समस्त श्रम दूर कर दिया था ऐसे उस मिथुन ने उस समय परस्पर का आलिंगन अत्यंत ढीला कर दिया ॥1॥<span id="2" /> जिस पर तरंगों के समान कोमल सिकुड़ने उठ रही थीं तथा जिस पर फूलों का समूह मसला गया था ऐसी शय्या पर सोकर उठा सुमुख, प्रिया वनमाला के साथ उस तरह सुशोभित हो रहा था जिस तरह कि बालू के स्थल पर हंसनी के साथ मदोन्मत्त युवा हंस सुशोभित होता है ॥2॥<span id="3" /> जिस प्रकार रात्रि के समय बिछुड़ने वाले चकवा-चकवी का हृदय क्षण-भर के लिए भी वियोगरूपी विष को सहन नहीं करता है उसी प्रकार मनोहर चेष्टा के धारक उन प्रिय वधू-वर का हृदय क्षण भर के लिए भी वियोगरूपी विष को सहन नहीं करना चाहता था ॥3॥<span id="4" /> इसलिए राजा सुमुख ने वधू-वनमाला को उसके पति के घर नहीं भेजा अपने ही घर रोक लिया सो ठीक ही है क्योंकि दुर्लभ वस्तु को पाकर उसका रस प्राप्त करने वाले उसे छोड़ते नहीं हैं ॥ 4 ॥<span id="5" /> सुंदरी वनमाला, अपने उत्तम गुणों से राजा सुमुख की समस्त मुख्य स्त्रियों में मुख्यता को पाकर परम गौरव को प्राप्त हुई थी सो ठीक ही है क्योंकि भर्ता के अनुकूल रहने पर कौन-सी वस्तु सुलभ नहीं ? ॥5॥<span id="6" /> </p> | ||
<p>तदनंतर किसी समय अचिंतित निधि के समान उत्कृष्ट तप के भांडारवरधर्म नाम के पूज्य मुनि राजा सुमुख के घर आये सो ठीक ही है क्योंकि अत्यधिक पुण्य का उदय होने पर ही अतिथि घर आते हैं ॥6॥ उन मुनि की बुद्धि उत्कृष्ट दर्शन विशुद्धि से विशुद्ध थी, अधिक ज्ञान से वे अनेक पदार्थों को जानते थे, व्रत गुप्ति और समिति की अतिशय शुद्धिरूपी चारित्र से उनका शरीर पवित्र था, वे अनशन तथा स्वाध्याय आदि तप की निर्मल लक्ष्मी से युक्त थे और धवल अर्थात् सफेद (पक्ष में उज्ज्वल) समस्त विकारों से रहित एवं गौरव को उत्पन्न करने वृद्धावस्था के समान कर्मों की विपुल निर्जरा से सुशोभित थे ॥7-8॥ जिन्होंने दोष कषाय और परिषह को जीत लिया था एवं इंद्रियों की वृत्ति को अच्छी तरह रोककर परास्त कर दिया था ऐसे अपने घर आये हुए उत्तम मुनिराज को देखकर राजा सुमुख सहसा उठकर खड़ा हो गया ॥9॥ आनंद के भार से जिसका हृदय विवश था ऐसे उज्ज्वल परिणामों के धारक राजा सुमुख ने स्त्री के साथ आगे जाकर पहले तो उन पवित्र मुनिराज को प्रदक्षिणा दी फिर विनय सहित पड़गाहकर उन्हें रत्नमय पवित्र फर्श पर विराजमान किया ॥10॥ तदनंतर प्रिय स्त्री के द्वारा हाथ में धारण की हुई सुवर्णमय झारी को प्रासुक जलधारा से राजा ने मुनिराज के चरण धोये ॥11॥ फिर सुगंधित चंदन, शुभ अक्षत, नैवेद्य, दीप, धूप आदि अष्टद्रव्य से पूजा कर मन, वचन, काय से उन्हें नमस्कार किया । तदनंतर हर्षपूर्वक दान दिया | <p>तदनंतर किसी समय अचिंतित निधि के समान उत्कृष्ट तप के भांडारवरधर्म नाम के पूज्य मुनि राजा सुमुख के घर आये सो ठीक ही है क्योंकि अत्यधिक पुण्य का उदय होने पर ही अतिथि घर आते हैं ॥6॥<span id="7" /><span id="8" /> उन मुनि की बुद्धि उत्कृष्ट दर्शन विशुद्धि से विशुद्ध थी, अधिक ज्ञान से वे अनेक पदार्थों को जानते थे, व्रत गुप्ति और समिति की अतिशय शुद्धिरूपी चारित्र से उनका शरीर पवित्र था, वे अनशन तथा स्वाध्याय आदि तप की निर्मल लक्ष्मी से युक्त थे और धवल अर्थात् सफेद (पक्ष में उज्ज्वल) समस्त विकारों से रहित एवं गौरव को उत्पन्न करने वृद्धावस्था के समान कर्मों की विपुल निर्जरा से सुशोभित थे ॥7-8॥<span id="9" /> जिन्होंने दोष कषाय और परिषह को जीत लिया था एवं इंद्रियों की वृत्ति को अच्छी तरह रोककर परास्त कर दिया था ऐसे अपने घर आये हुए उत्तम मुनिराज को देखकर राजा सुमुख सहसा उठकर खड़ा हो गया ॥9॥<span id="10" /> आनंद के भार से जिसका हृदय विवश था ऐसे उज्ज्वल परिणामों के धारक राजा सुमुख ने स्त्री के साथ आगे जाकर पहले तो उन पवित्र मुनिराज को प्रदक्षिणा दी फिर विनय सहित पड़गाहकर उन्हें रत्नमय पवित्र फर्श पर विराजमान किया ॥10॥<span id="11" /> तदनंतर प्रिय स्त्री के द्वारा हाथ में धारण की हुई सुवर्णमय झारी को प्रासुक जलधारा से राजा ने मुनिराज के चरण धोये ॥11॥<span id="12" /> फिर सुगंधित चंदन, शुभ अक्षत, नैवेद्य, दीप, धूप आदि अष्टद्रव्य से पूजा कर मन, वचन, काय से उन्हें नमस्कार किया । तदनंतर हर्षपूर्वक दान दिया ॥12॥<span id="13" /> उस समय राजा सुमुख और वनमाला के परिणाम एक समान थे इसलिए दोनों ने ही परभव में एक साथ भोग-रूपी फल को देने वाला पापापहारी उत्तम पुण्यबंध किया ॥ 13 ॥<span id="14" /> जिन्होंने अनेक दिन का उपवासरूपी व्रत धारण किया था, जो दाताओं के लिए सुख प्राप्ति का कारण जुटाने वाले थे और जो तत्त्व के विचार करने में अतिशय निपुण थे ऐसे मुनिराज अपने कृश शरीर की स्थिरता के लिए पारणा कर वन को चले गये ॥14॥<span id="15" /><span id="16" /></p> | ||
<p>तदनंतर जो पुण्य का फल भोग रहा था और परस्त्री के अपहरण से उत्पन्न पाप के प्रति जो निरंतर पश्चात्ताप करता रहता था ऐसे राजा सुमुख का काल जब अहितों को नष्ट कर निरंतर सुख से बीत रहा था तब वह किसी समय गुणों की माला स्वरूप वनमाला स्त्री के साथ सुगंधित गर्भगृह में सोया था । उस गर्भगृह का मध्य भाग मणिसमूह की कांति से व्याप्त था तथा आदर को प्रदान करने वाला था ॥15-16॥ | <p>तदनंतर जो पुण्य का फल भोग रहा था और परस्त्री के अपहरण से उत्पन्न पाप के प्रति जो निरंतर पश्चात्ताप करता रहता था ऐसे राजा सुमुख का काल जब अहितों को नष्ट कर निरंतर सुख से बीत रहा था तब वह किसी समय गुणों की माला स्वरूप वनमाला स्त्री के साथ सुगंधित गर्भगृह में सोया था । उस गर्भगृह का मध्य भाग मणिसमूह की कांति से व्याप्त था तथा आदर को प्रदान करने वाला था ॥15-16॥<span id="17" /> उसी समय जिनके मन एक दूसरे के अधीन थे ऐसे उन दोनों की श्रेष्ठ आयु समाप्त होने को आयी इसलिए उनके ऊपर वर्षाकाल की बिजली आ गिरी ॥17॥<span id="18" /> बिजली गिरने से जिनके प्राण एक ही साथ छूटे थे, तथा जो उत्तम दान के फल को प्राप्त थे ऐसे दोनों दंपती सुख से मरण कर विजयार्ध पर्वत पर विद्याधर-विद्याधरी हुए ॥18॥<span id="19" /> वह विजयार्ध पर्वत, अपनी पूर्व-पश्चिम दोनों कोटियों से समुद्र का स्पर्श करता है, उसने अपनी सफेदी से चंद्रमा और क्षीर समुद्र को जीत लिया है, वह चाँदी के समान देदीप्यमान मूर्ति का धारक है और पृथिवी रूपी स्त्री के बड़े भारी हार के समान लंबा है ॥19॥<span id="20" /> वह विजयार्ध पर्वत पृथिवी से दस योजन ऊपर चलकर अपनी दो श्रेणियों के द्वारा विद्याधर राजाओं की उन नगरियों को धारण करता है जो संसार में नूतन भोगभूमियों के समान जान पड़ती हैं ॥20॥<span id="21" /> यह पर्वत भरत क्षेत्र के समस्त पर्वतों के स्वामित्व को धारण करता है, इस पर एक सौ दस सुंदर नगरियां स्थित हैं, यह पचीस योजन चौड़ा तथा सुख को उत्पन्न करने वाला है ॥ 21 ॥<span id="22" /> इसी पर्वत की उत्तर श्रेणी पर एक हरिपुर नाम का नगर है जो सब प्रकार के सुख देने में समर्थ है, नाना प्रकार के वृक्षों के वन से उत्तरकुरु की पृथिवी का अनुकरण करता है और शोभा में इंद्रपुरी के समान जान पड़ता है ॥ 22 ॥<span id="23" /> इस नगर का रक्षक पवनगिरि विद्याधर था । वही राजा सुमुख के जीव का पिता था तथा इसकी अनेक कलाओं और गुणों में निपुण मृगावती नाम को स्त्री थी वही सुमुख के जीव की माता थी ॥ 23 ॥<span id="24" /> यहाँ सुमुख का जीव, आर्य इस सार्थक नाम को धारण करता था । धीरे-धीरे वह आर्यजनों को आनंद उत्पन्न करने वाले अमृतमय वचन बोलने लगा तथा उसे अपनी पूर्व भव की स्त्री का स्मरण हो आया ॥24॥<span id="25" /></p> | ||
<p>इसी विजयार्ध पर्वत की उत्तर श्रेणी में एक मेघपुर नाम का उत्तम नगर है जो अपरिमित वैभव से युक्त है तथा मणिमयी उत्तम महलों की पंक्ति को धारण करता है | <p>इसी विजयार्ध पर्वत की उत्तर श्रेणी में एक मेघपुर नाम का उत्तम नगर है जो अपरिमित वैभव से युक्त है तथा मणिमयी उत्तम महलों की पंक्ति को धारण करता है ॥ 25 ॥<span id="26" /> उस मेघपुर नगर का राजा पवनवेग था । पवनवेग शत्रुरूपी मदोन्मत्त हाथियों को नष्ट करने के लिए सिंह के समान था । इसकी स्त्री मनोहरी थी । मनोहरी रतिकाल में पति के मन को हरण करती थी इसलिए वह पवन वेग को रति के समान प्यारी थी ॥26॥<span id="27" /> राजा सुमुख की जो वनमाला नाम की हितकारिणी उत्तम स्त्री थी वह इन्हीं दोनों के मनोरमा नाम की उत्तम पुत्री हुई । मनोरमा अपने पूर्वभव को जानती थी और संसार में चंद्रकला के समान मन को आनंदित करती थी ॥27॥<span id="28" /> उन दोनों ने जैसी पहले भावना की थी उसी के अनुसार विवाह के योग्य पवित्र कुल प्राप्त किया और उन दोनों का विधाता सदा समस्त कार्यों में स्वयं ऐसा ही प्रयत्न करता था कि जिससे उन दोनों शिशुओं का शीघ्र ही समागम हो जाये ॥28॥<span id="29" /> उन दोनों बालक-बालिकाओं का अपने-अपने घर सुखपूर्वक पालन होता था, वे अपनी हथेलियों से कभी अपनी आँखें बंद कर लेते थे, कभी मंद हास्य करते थे, कभी वचन बोलने में तत्पर होते थे, और कभी किलकारियाँ भरते हुए अपने कुटुंबीजनों के हर्ष को बढ़ाते थे ॥ 29 ॥<span id="30" /> और अपनी-अपनी कांति से जो सूर्य तथा अग्नि की उपमा धारण कर रहे थे ऐसे उन दोनों बालिका-बालिकाओं का युगल भोगभूमियाँ बालकों की विजय युक्त उत्तम भावना को प्राप्त हो रहा था अर्थात् वे भोग-भूमियाँ बालकों के समान सुशोभित हो रहे थे ॥30 ॥<span id="31" /> चंद्रमा के समान शरीर को धारण करने वाला वह युगल प्रतिदिन कलाओं के साथ जिस प्रकार धीरे-धीरे शरीर की वृद्धि को प्राप्त होता जाता था उसी प्रकार उनके कुटुंबीजनों का आनंदरूपी सागर भी वृद्धि को प्राप्त होता जाता था ॥31 ॥<span id="32" /> संसार को जानने वाला वह युगल, जिस प्रकार समस्त विद्याधरों की सिद्ध की हुई विद्याओं से सुशोभित हो रहा था उसी प्रकार अनेक गुण के साथ प्राप्त हुई सुंदर यौवन की शोभा से लोगों के मन को हरण कर रहा था ॥ 32 ॥<span id="33" /> </p> | ||
<p>तदनंतर जनसमूह के द्वारा नमस्कृत उस विद्याधर युवा को, उसके कुटुंबीजनों ने वैभवपूर्ण विवाह की विधि से लक्ष्मी की तुलना करने वाली विद्याधर-कन्या मनोरमा के साथ युक्त किया ॥33॥ विवाह के बाद कुमार आर्य, काम जनित हाव-भावों से सहित कामदेवरूपी नर्तकाचार्य के द्वारा शिक्षित एवं सुरतरूपी नाटक की रंगभूमि में लायी हुई इस मनोरमा के साथ सुख का उपभोग करने लगा ॥34॥ कभी वह देव दंपतियों से सुंदर कंदराओं से युक्त मंदरगिरि पर इस परम वल्लभा के साथ क्रीड़ा करता था तो कभी सुगंधित देवदारु और चंदन के ऊंचे-ऊंचे वृक्षों से सुशोभित नंदन वन में इसके साथ चिरकाल तक क्रीड़ा करता रहता था ॥35॥ कभी वह कुलाचलों के पद्म आदि सरोवरों और गंगा आदि महानदियों के तटों पर तथा कभी भोगभूमि के वृक्षों के नीचे खेदरहित सुंदरी वल्लभा के साथ राग-सहित रति-क्रीड़ा को प्राप्त होता था | <p>तदनंतर जनसमूह के द्वारा नमस्कृत उस विद्याधर युवा को, उसके कुटुंबीजनों ने वैभवपूर्ण विवाह की विधि से लक्ष्मी की तुलना करने वाली विद्याधर-कन्या मनोरमा के साथ युक्त किया ॥33॥<span id="34" /> विवाह के बाद कुमार आर्य, काम जनित हाव-भावों से सहित कामदेवरूपी नर्तकाचार्य के द्वारा शिक्षित एवं सुरतरूपी नाटक की रंगभूमि में लायी हुई इस मनोरमा के साथ सुख का उपभोग करने लगा ॥34॥<span id="35" /> कभी वह देव दंपतियों से सुंदर कंदराओं से युक्त मंदरगिरि पर इस परम वल्लभा के साथ क्रीड़ा करता था तो कभी सुगंधित देवदारु और चंदन के ऊंचे-ऊंचे वृक्षों से सुशोभित नंदन वन में इसके साथ चिरकाल तक क्रीड़ा करता रहता था ॥35॥<span id="36" /> कभी वह कुलाचलों के पद्म आदि सरोवरों और गंगा आदि महानदियों के तटों पर तथा कभी भोगभूमि के वृक्षों के नीचे खेदरहित सुंदरी वल्लभा के साथ राग-सहित रति-क्रीड़ा को प्राप्त होता था ॥36॥<span id="37" /> इस प्रकार विजयार्ध पर्वत पर रहने वाला वह युगल, दिव्य स्त्रियों के पदनूपुरों की झनकार से युक्त अपने नगर में उस सुख का उपभोग करता था जो पृथिवी पर दूसरे मनुष्यों के लिए इच्छा करने पर भी दुर्लभ था और उसे बिना ही प्रयत्न के प्राप्त था ॥37॥<span id="38" /></p> | ||
<p>अथानंतर― राजा सुमुख के द्वारा ठगा हुआ वीरक सेठ, प्रियतमा― वनमाला के विरह में शोक के कारण कहीं भी हृदय की शांति को प्राप्त नहीं होता था । यहाँ तक कि जिस पर विपत्ति का एक अंश भी नहीं था ऐसे कोमल-पल्लवों से रची हुई शीतल शय्या पर भी उसे सुख प्राप्त नहीं होता था ॥38॥ वह विरह-ज्वाला शांत करने के लिए रात्रि के समय खुली चांदनी में सरोवर के तट पर जा बैठता था पर वहाँ पर भी चंद्रमा बर्फ के कणों के साथ-साथ अपनी किरणों से उसके हृदय की दाह को शांत नहीं कर पाता था । वह विरही चक्रवाक पक्षी के समान सदा विरह की दाह में झुलसता ही रहता था ॥39॥ तदनंतर उस वीरक ने चिरकाल बाद विरह की व्यथा को रोककर रतिरूप रहस्य से युक्त गृहस्थाश्रम को छोड़ दिया और जितेंद्रिय हो जिनेंद्र भगवान् के द्वारा प्रदर्शित आश्रम की शरण ली अर्थात् दैगंबरी दीक्षा धारण कर ली, सो ठीक ही है क्योंकि शरण की इच्छा करने वाले मनुष्यों के लिए वह ही सर्वोत्तम शरण है | <p>अथानंतर― राजा सुमुख के द्वारा ठगा हुआ वीरक सेठ, प्रियतमा― वनमाला के विरह में शोक के कारण कहीं भी हृदय की शांति को प्राप्त नहीं होता था । यहाँ तक कि जिस पर विपत्ति का एक अंश भी नहीं था ऐसे कोमल-पल्लवों से रची हुई शीतल शय्या पर भी उसे सुख प्राप्त नहीं होता था ॥38॥<span id="39" /> वह विरह-ज्वाला शांत करने के लिए रात्रि के समय खुली चांदनी में सरोवर के तट पर जा बैठता था पर वहाँ पर भी चंद्रमा बर्फ के कणों के साथ-साथ अपनी किरणों से उसके हृदय की दाह को शांत नहीं कर पाता था । वह विरही चक्रवाक पक्षी के समान सदा विरह की दाह में झुलसता ही रहता था ॥39॥<span id="40" /> तदनंतर उस वीरक ने चिरकाल बाद विरह की व्यथा को रोककर रतिरूप रहस्य से युक्त गृहस्थाश्रम को छोड़ दिया और जितेंद्रिय हो जिनेंद्र भगवान् के द्वारा प्रदर्शित आश्रम की शरण ली अर्थात् दैगंबरी दीक्षा धारण कर ली, सो ठीक ही है क्योंकि शरण की इच्छा करने वाले मनुष्यों के लिए वह ही सर्वोत्तम शरण है ॥ 40॥<span id="41" /> दीक्षा लेकर उसने शरीर को सुखा देने वाला एवं विषय के लोभी कामदेव को पीस देने वाला कठिन तप किया जिसके फलस्वरूप वह सुखरूपी सागर को पुष्ट करने वाले एवं देवों के संतोषदायक प्रथम स्वर्ग को प्राप्त हुआ ॥41॥<span id="42" /> वहाँ देवांगनाओं के समूह को आदि लेकर अनेक प्रकार का परिग्रह जिसे प्राप्त था, सब प्रकार के आभूषणों से जिसका शरीर सुशोभित था और जो देवों के सुखरूपी अमृत के सागर में निमग्न था ऐसा वह देव अनेक भावों और रसों को प्राप्त होता हुआ वहाँ सुख से रहने लगा ॥42॥<span id="43" /></p> | ||
<p> कदाचित् वह देव स्वर्ग में उत्तमोत्तम स्त्रियों के बीच बैठा था कि उसने अचानक ही अपनी पूर्वभव की स्त्री वनमाला को अवधिज्ञान का विषय बनाया अर्थात् अवधिज्ञान के द्वारा उसका विचार किया सो ठीक ही है क्योंकि परिचित― अनुभूत स्नेह बड़ी कठिनाई से छूटता है | <p> कदाचित् वह देव स्वर्ग में उत्तमोत्तम स्त्रियों के बीच बैठा था कि उसने अचानक ही अपनी पूर्वभव की स्त्री वनमाला को अवधिज्ञान का विषय बनाया अर्थात् अवधिज्ञान के द्वारा उसका विचार किया सो ठीक ही है क्योंकि परिचित― अनुभूत स्नेह बड़ी कठिनाई से छूटता है ॥ 43॥<span id="44" /> विचार करते ही उसे सुमुख राजा के द्वारा किया हुआ पराभव स्मृत हो गया । तदनंतर एक बार निमीलित कर उसने अवधिज्ञानरूपी नेत्र को पुनः खोला तो विद्याधर और विद्याधरी का वह युगल सामने दिखने लगा ॥44॥<span id="45" /> वह विचार करने लगा कि देखो जिस दुष्ट सुमुख ने पूर्वभव में प्रभुता वश तिरस्कार कर हमारी स्त्री का हरण किया था वह इस भव में भी उसी स्त्री के साथ परम रति को प्राप्त हुआ दिखाई दे रहा है ॥45॥<span id="46" /> यदि विषम अपकार करने वाले शत्रु का दूना अपकार नहीं किया तो समर्थ होने पर भी निरुद्यम चित्त के धारक प्रभु को निरर्थक प्रभुता से क्या लाभ है? ॥46॥<span id="47" /> ऐसा विचारकर क्रोध से जिसका चित्त कलुषित हो रहा था, तथा बदला लेने का जिसने दृढ़ निश्चय कर लिया था ऐसा वह सूर्य के समान देदीप्यमान देव पूर्व वैर को बुद्धि में रख शीघ्र ही स्वर्ग से पृथिवी पर उतरा ॥47॥<span id="48" /> उस समय राजा सुमुख का जीव आर्य नाम का विद्याधर, अपनी विद्याधरी के साथ हरिवर्ष क्षेत्र में इच्छानुसार क्रीड़ा करता हुआ इंद्र के समान सुशोभित हो रहा था सो उस देव ने उसे प्राप्त किया ॥48॥<span id="49" /> नव यौवन से जिसका शरीर भरा हुआ था ऐसे उस विद्याधर दंपती को देखकर देव ने अपनी स्वाभाविक अखंड माया से उसे खंडित विद्य कर दिया अर्थात् उसकी विद्याएँ हर लीं ॥49॥<span id="50" /> और क्रुद्ध होकर उससे कहा कि अरे! पर-स्त्री को हरने वाले प्रमुख सुमुख ! क्या तुझे इस समय अपने वीरक वैरी का स्मरण है और परजन्म से शीलव्रत को खंडित करने वाली दुष्ट वनमाला ! तुझे भी वीरक की याद है ? ॥50॥<span id="51" /> मैं तप कर देव हुआ हूँ और तुम दोनों मुनिदान के फल से विद्याधर हुए हो । तुम दोनों ने पूर्वभव में मुझे दुःख दिया था इसलिए मैं भी तुम्हारी विद्याएँ नष्ट कर तुम्हें दुःख देता हूँ ॥51॥<span id="52" /> इस प्रकार कहकर वह देव, जिस प्रकार पक्षियों को गरुड़ उठा ले जाता है उसी प्रकार आश्चर्य से चकित चित्त एवं भय से कंपित शरीर को धारण करने वाले दोनों-विद्याधर और विद्याधरी को उठाकर दक्षिण भरत क्षेत्र की ओर आकाश में उड़ गया ॥52॥<span id="53" /> उस समय चंपापुरी का राजा चंद्रकीर्ति मर चुका था इसलिए वह राजा से रहित थी । वह देव आर्य विद्याधर को यहाँ ले आया और उसे चंपापुरी का अनेक राजाओं के द्वारा नमस्कृत राजा बनाकर स्वर्ग चला गया ॥53॥<span id="54" /> देव द्वारा जिनकी विद्याएँ खंडित कर दी गयी थीं ऐसे वे दोनों विद्याधर दंपती, पंख कटे पक्षियों के समान आकाश में चलने को असमर्थ हो गये इसलिए उसकी इच्छा छोड़ पृथिवी में ही संतोष को प्राप्त हुए ॥54॥<span id="55" /> यह वृत्तांत नब्बे धनुष ऊँचे शरीर और एक लाख पूर्व की स्थिति को धारण करने वाले दसवें शीतलनाथ भगवान् के तीर्थ में हुआ था । उस समय उनका तीर्थ कुछ अधिक सौ सागर कम एक करोड़ सागर प्रमाण चल रहा था ॥55॥<span id="56" /> राजा आर्य ने अपने भुजदंड से समस्त राजाओं को वश कर नम्रीभूत एवं आज्ञाकारी बनाया और अखंडित प्रेम वाली मनोरमा के साथ चिरकाल तक विषय-सुख का उपभोग किया फिर भी तृप्त नहीं हुआ ॥56॥<span id="57" /> तदनंतर उन दोनों के हरि नाम का पुत्र हुआ जो इंद्र के समान प्रसिद्ध राजा हुआ । राजा आर्य और रानी मनोरमा ने चिरकाल तक पुत्र की विशाल लक्ष्मी का अनुभव किया तत्पश्चात् दोनों अपने-अपने कर्मों के अनुसार पर हुए ॥57॥<span id="58" /> यही राजा हरि, परम यशस्वी हरिवंश की उत्पत्ति का प्रथम कारण था । जगत् में इसी के नाम से हरिवंश इस नाम को प्रसिद्धि हुई ॥58॥<span id="59" /> राजा हरि के महागिरि नाम का पुत्र हुआ । महागिरि के उत्तम नीति का पालक हिमगिरि पुत्र हुआ । हिमगिरि के वसुगिरि और वसुगिरि के गिरि नाम का पुत्र हुआ । ये सभी यथायोग्य स्वर्ग और मोक्ष को प्राप्त हुए ॥59॥<span id="60" /> तदनंतर हरिवंश के तिलक स्वरूप इंद्र के समान सैकड़ों राजा हुए जो क्रम से विशाल राज्य और तप का भार धारण कर कुछ तो मोक्ष गये और कुछ स्वर्ग गये ॥60॥<span id="61" /><span id="62" /> इस प्रकार क्रम से बहुत―से राजाओं के होने पर उसी हरिवंश में मगध देश का स्वामी राजा सुमित्र हुआ । वह कुशल-मंगल का स्थान तथा कुशाग्रपुर नगर का अधिपति था । उसका पराक्रम शास्त्रों के विशिष्ट ज्ञान से विभूषित था । वह अपनी जिनभक्त प्रिया पद्मावती के साथ सुख का उपभोग करता हुआ चिरकाल तक पृथिवी का शासन करता रहा ॥61-62॥<span id="15" /></p> | ||
<p><strong>इस प्रकार अरिष्टनेमि पुराण के संग्रह से युक्त, जिनसेनाचार्यरचित हरिवंश पुराण में हरिवंश की उत्पत्ति का वर्णन करने वाला पंद्रहवाँ सर्ग समाप्त हुआ ॥15॥</strong></p> | <p><strong>इस प्रकार अरिष्टनेमि पुराण के संग्रह से युक्त, जिनसेनाचार्यरचित हरिवंश पुराण में हरिवंश की उत्पत्ति का वर्णन करने वाला पंद्रहवाँ सर्ग समाप्त हुआ ॥15॥</strong></p> | ||
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Latest revision as of 10:58, 18 September 2023
अथानंतर खिले हुए कमल वन का स्पर्श करने वाली सुगंधित वायु ने स्पर्श कर जिसका समस्त श्रम दूर कर दिया था ऐसे उस मिथुन ने उस समय परस्पर का आलिंगन अत्यंत ढीला कर दिया ॥1॥ जिस पर तरंगों के समान कोमल सिकुड़ने उठ रही थीं तथा जिस पर फूलों का समूह मसला गया था ऐसी शय्या पर सोकर उठा सुमुख, प्रिया वनमाला के साथ उस तरह सुशोभित हो रहा था जिस तरह कि बालू के स्थल पर हंसनी के साथ मदोन्मत्त युवा हंस सुशोभित होता है ॥2॥ जिस प्रकार रात्रि के समय बिछुड़ने वाले चकवा-चकवी का हृदय क्षण-भर के लिए भी वियोगरूपी विष को सहन नहीं करता है उसी प्रकार मनोहर चेष्टा के धारक उन प्रिय वधू-वर का हृदय क्षण भर के लिए भी वियोगरूपी विष को सहन नहीं करना चाहता था ॥3॥ इसलिए राजा सुमुख ने वधू-वनमाला को उसके पति के घर नहीं भेजा अपने ही घर रोक लिया सो ठीक ही है क्योंकि दुर्लभ वस्तु को पाकर उसका रस प्राप्त करने वाले उसे छोड़ते नहीं हैं ॥ 4 ॥ सुंदरी वनमाला, अपने उत्तम गुणों से राजा सुमुख की समस्त मुख्य स्त्रियों में मुख्यता को पाकर परम गौरव को प्राप्त हुई थी सो ठीक ही है क्योंकि भर्ता के अनुकूल रहने पर कौन-सी वस्तु सुलभ नहीं ? ॥5॥
तदनंतर किसी समय अचिंतित निधि के समान उत्कृष्ट तप के भांडारवरधर्म नाम के पूज्य मुनि राजा सुमुख के घर आये सो ठीक ही है क्योंकि अत्यधिक पुण्य का उदय होने पर ही अतिथि घर आते हैं ॥6॥ उन मुनि की बुद्धि उत्कृष्ट दर्शन विशुद्धि से विशुद्ध थी, अधिक ज्ञान से वे अनेक पदार्थों को जानते थे, व्रत गुप्ति और समिति की अतिशय शुद्धिरूपी चारित्र से उनका शरीर पवित्र था, वे अनशन तथा स्वाध्याय आदि तप की निर्मल लक्ष्मी से युक्त थे और धवल अर्थात् सफेद (पक्ष में उज्ज्वल) समस्त विकारों से रहित एवं गौरव को उत्पन्न करने वृद्धावस्था के समान कर्मों की विपुल निर्जरा से सुशोभित थे ॥7-8॥ जिन्होंने दोष कषाय और परिषह को जीत लिया था एवं इंद्रियों की वृत्ति को अच्छी तरह रोककर परास्त कर दिया था ऐसे अपने घर आये हुए उत्तम मुनिराज को देखकर राजा सुमुख सहसा उठकर खड़ा हो गया ॥9॥ आनंद के भार से जिसका हृदय विवश था ऐसे उज्ज्वल परिणामों के धारक राजा सुमुख ने स्त्री के साथ आगे जाकर पहले तो उन पवित्र मुनिराज को प्रदक्षिणा दी फिर विनय सहित पड़गाहकर उन्हें रत्नमय पवित्र फर्श पर विराजमान किया ॥10॥ तदनंतर प्रिय स्त्री के द्वारा हाथ में धारण की हुई सुवर्णमय झारी को प्रासुक जलधारा से राजा ने मुनिराज के चरण धोये ॥11॥ फिर सुगंधित चंदन, शुभ अक्षत, नैवेद्य, दीप, धूप आदि अष्टद्रव्य से पूजा कर मन, वचन, काय से उन्हें नमस्कार किया । तदनंतर हर्षपूर्वक दान दिया ॥12॥ उस समय राजा सुमुख और वनमाला के परिणाम एक समान थे इसलिए दोनों ने ही परभव में एक साथ भोग-रूपी फल को देने वाला पापापहारी उत्तम पुण्यबंध किया ॥ 13 ॥ जिन्होंने अनेक दिन का उपवासरूपी व्रत धारण किया था, जो दाताओं के लिए सुख प्राप्ति का कारण जुटाने वाले थे और जो तत्त्व के विचार करने में अतिशय निपुण थे ऐसे मुनिराज अपने कृश शरीर की स्थिरता के लिए पारणा कर वन को चले गये ॥14॥
तदनंतर जो पुण्य का फल भोग रहा था और परस्त्री के अपहरण से उत्पन्न पाप के प्रति जो निरंतर पश्चात्ताप करता रहता था ऐसे राजा सुमुख का काल जब अहितों को नष्ट कर निरंतर सुख से बीत रहा था तब वह किसी समय गुणों की माला स्वरूप वनमाला स्त्री के साथ सुगंधित गर्भगृह में सोया था । उस गर्भगृह का मध्य भाग मणिसमूह की कांति से व्याप्त था तथा आदर को प्रदान करने वाला था ॥15-16॥ उसी समय जिनके मन एक दूसरे के अधीन थे ऐसे उन दोनों की श्रेष्ठ आयु समाप्त होने को आयी इसलिए उनके ऊपर वर्षाकाल की बिजली आ गिरी ॥17॥ बिजली गिरने से जिनके प्राण एक ही साथ छूटे थे, तथा जो उत्तम दान के फल को प्राप्त थे ऐसे दोनों दंपती सुख से मरण कर विजयार्ध पर्वत पर विद्याधर-विद्याधरी हुए ॥18॥ वह विजयार्ध पर्वत, अपनी पूर्व-पश्चिम दोनों कोटियों से समुद्र का स्पर्श करता है, उसने अपनी सफेदी से चंद्रमा और क्षीर समुद्र को जीत लिया है, वह चाँदी के समान देदीप्यमान मूर्ति का धारक है और पृथिवी रूपी स्त्री के बड़े भारी हार के समान लंबा है ॥19॥ वह विजयार्ध पर्वत पृथिवी से दस योजन ऊपर चलकर अपनी दो श्रेणियों के द्वारा विद्याधर राजाओं की उन नगरियों को धारण करता है जो संसार में नूतन भोगभूमियों के समान जान पड़ती हैं ॥20॥ यह पर्वत भरत क्षेत्र के समस्त पर्वतों के स्वामित्व को धारण करता है, इस पर एक सौ दस सुंदर नगरियां स्थित हैं, यह पचीस योजन चौड़ा तथा सुख को उत्पन्न करने वाला है ॥ 21 ॥ इसी पर्वत की उत्तर श्रेणी पर एक हरिपुर नाम का नगर है जो सब प्रकार के सुख देने में समर्थ है, नाना प्रकार के वृक्षों के वन से उत्तरकुरु की पृथिवी का अनुकरण करता है और शोभा में इंद्रपुरी के समान जान पड़ता है ॥ 22 ॥ इस नगर का रक्षक पवनगिरि विद्याधर था । वही राजा सुमुख के जीव का पिता था तथा इसकी अनेक कलाओं और गुणों में निपुण मृगावती नाम को स्त्री थी वही सुमुख के जीव की माता थी ॥ 23 ॥ यहाँ सुमुख का जीव, आर्य इस सार्थक नाम को धारण करता था । धीरे-धीरे वह आर्यजनों को आनंद उत्पन्न करने वाले अमृतमय वचन बोलने लगा तथा उसे अपनी पूर्व भव की स्त्री का स्मरण हो आया ॥24॥
इसी विजयार्ध पर्वत की उत्तर श्रेणी में एक मेघपुर नाम का उत्तम नगर है जो अपरिमित वैभव से युक्त है तथा मणिमयी उत्तम महलों की पंक्ति को धारण करता है ॥ 25 ॥ उस मेघपुर नगर का राजा पवनवेग था । पवनवेग शत्रुरूपी मदोन्मत्त हाथियों को नष्ट करने के लिए सिंह के समान था । इसकी स्त्री मनोहरी थी । मनोहरी रतिकाल में पति के मन को हरण करती थी इसलिए वह पवन वेग को रति के समान प्यारी थी ॥26॥ राजा सुमुख की जो वनमाला नाम की हितकारिणी उत्तम स्त्री थी वह इन्हीं दोनों के मनोरमा नाम की उत्तम पुत्री हुई । मनोरमा अपने पूर्वभव को जानती थी और संसार में चंद्रकला के समान मन को आनंदित करती थी ॥27॥ उन दोनों ने जैसी पहले भावना की थी उसी के अनुसार विवाह के योग्य पवित्र कुल प्राप्त किया और उन दोनों का विधाता सदा समस्त कार्यों में स्वयं ऐसा ही प्रयत्न करता था कि जिससे उन दोनों शिशुओं का शीघ्र ही समागम हो जाये ॥28॥ उन दोनों बालक-बालिकाओं का अपने-अपने घर सुखपूर्वक पालन होता था, वे अपनी हथेलियों से कभी अपनी आँखें बंद कर लेते थे, कभी मंद हास्य करते थे, कभी वचन बोलने में तत्पर होते थे, और कभी किलकारियाँ भरते हुए अपने कुटुंबीजनों के हर्ष को बढ़ाते थे ॥ 29 ॥ और अपनी-अपनी कांति से जो सूर्य तथा अग्नि की उपमा धारण कर रहे थे ऐसे उन दोनों बालिका-बालिकाओं का युगल भोगभूमियाँ बालकों की विजय युक्त उत्तम भावना को प्राप्त हो रहा था अर्थात् वे भोग-भूमियाँ बालकों के समान सुशोभित हो रहे थे ॥30 ॥ चंद्रमा के समान शरीर को धारण करने वाला वह युगल प्रतिदिन कलाओं के साथ जिस प्रकार धीरे-धीरे शरीर की वृद्धि को प्राप्त होता जाता था उसी प्रकार उनके कुटुंबीजनों का आनंदरूपी सागर भी वृद्धि को प्राप्त होता जाता था ॥31 ॥ संसार को जानने वाला वह युगल, जिस प्रकार समस्त विद्याधरों की सिद्ध की हुई विद्याओं से सुशोभित हो रहा था उसी प्रकार अनेक गुण के साथ प्राप्त हुई सुंदर यौवन की शोभा से लोगों के मन को हरण कर रहा था ॥ 32 ॥
तदनंतर जनसमूह के द्वारा नमस्कृत उस विद्याधर युवा को, उसके कुटुंबीजनों ने वैभवपूर्ण विवाह की विधि से लक्ष्मी की तुलना करने वाली विद्याधर-कन्या मनोरमा के साथ युक्त किया ॥33॥ विवाह के बाद कुमार आर्य, काम जनित हाव-भावों से सहित कामदेवरूपी नर्तकाचार्य के द्वारा शिक्षित एवं सुरतरूपी नाटक की रंगभूमि में लायी हुई इस मनोरमा के साथ सुख का उपभोग करने लगा ॥34॥ कभी वह देव दंपतियों से सुंदर कंदराओं से युक्त मंदरगिरि पर इस परम वल्लभा के साथ क्रीड़ा करता था तो कभी सुगंधित देवदारु और चंदन के ऊंचे-ऊंचे वृक्षों से सुशोभित नंदन वन में इसके साथ चिरकाल तक क्रीड़ा करता रहता था ॥35॥ कभी वह कुलाचलों के पद्म आदि सरोवरों और गंगा आदि महानदियों के तटों पर तथा कभी भोगभूमि के वृक्षों के नीचे खेदरहित सुंदरी वल्लभा के साथ राग-सहित रति-क्रीड़ा को प्राप्त होता था ॥36॥ इस प्रकार विजयार्ध पर्वत पर रहने वाला वह युगल, दिव्य स्त्रियों के पदनूपुरों की झनकार से युक्त अपने नगर में उस सुख का उपभोग करता था जो पृथिवी पर दूसरे मनुष्यों के लिए इच्छा करने पर भी दुर्लभ था और उसे बिना ही प्रयत्न के प्राप्त था ॥37॥
अथानंतर― राजा सुमुख के द्वारा ठगा हुआ वीरक सेठ, प्रियतमा― वनमाला के विरह में शोक के कारण कहीं भी हृदय की शांति को प्राप्त नहीं होता था । यहाँ तक कि जिस पर विपत्ति का एक अंश भी नहीं था ऐसे कोमल-पल्लवों से रची हुई शीतल शय्या पर भी उसे सुख प्राप्त नहीं होता था ॥38॥ वह विरह-ज्वाला शांत करने के लिए रात्रि के समय खुली चांदनी में सरोवर के तट पर जा बैठता था पर वहाँ पर भी चंद्रमा बर्फ के कणों के साथ-साथ अपनी किरणों से उसके हृदय की दाह को शांत नहीं कर पाता था । वह विरही चक्रवाक पक्षी के समान सदा विरह की दाह में झुलसता ही रहता था ॥39॥ तदनंतर उस वीरक ने चिरकाल बाद विरह की व्यथा को रोककर रतिरूप रहस्य से युक्त गृहस्थाश्रम को छोड़ दिया और जितेंद्रिय हो जिनेंद्र भगवान् के द्वारा प्रदर्शित आश्रम की शरण ली अर्थात् दैगंबरी दीक्षा धारण कर ली, सो ठीक ही है क्योंकि शरण की इच्छा करने वाले मनुष्यों के लिए वह ही सर्वोत्तम शरण है ॥ 40॥ दीक्षा लेकर उसने शरीर को सुखा देने वाला एवं विषय के लोभी कामदेव को पीस देने वाला कठिन तप किया जिसके फलस्वरूप वह सुखरूपी सागर को पुष्ट करने वाले एवं देवों के संतोषदायक प्रथम स्वर्ग को प्राप्त हुआ ॥41॥ वहाँ देवांगनाओं के समूह को आदि लेकर अनेक प्रकार का परिग्रह जिसे प्राप्त था, सब प्रकार के आभूषणों से जिसका शरीर सुशोभित था और जो देवों के सुखरूपी अमृत के सागर में निमग्न था ऐसा वह देव अनेक भावों और रसों को प्राप्त होता हुआ वहाँ सुख से रहने लगा ॥42॥
कदाचित् वह देव स्वर्ग में उत्तमोत्तम स्त्रियों के बीच बैठा था कि उसने अचानक ही अपनी पूर्वभव की स्त्री वनमाला को अवधिज्ञान का विषय बनाया अर्थात् अवधिज्ञान के द्वारा उसका विचार किया सो ठीक ही है क्योंकि परिचित― अनुभूत स्नेह बड़ी कठिनाई से छूटता है ॥ 43॥ विचार करते ही उसे सुमुख राजा के द्वारा किया हुआ पराभव स्मृत हो गया । तदनंतर एक बार निमीलित कर उसने अवधिज्ञानरूपी नेत्र को पुनः खोला तो विद्याधर और विद्याधरी का वह युगल सामने दिखने लगा ॥44॥ वह विचार करने लगा कि देखो जिस दुष्ट सुमुख ने पूर्वभव में प्रभुता वश तिरस्कार कर हमारी स्त्री का हरण किया था वह इस भव में भी उसी स्त्री के साथ परम रति को प्राप्त हुआ दिखाई दे रहा है ॥45॥ यदि विषम अपकार करने वाले शत्रु का दूना अपकार नहीं किया तो समर्थ होने पर भी निरुद्यम चित्त के धारक प्रभु को निरर्थक प्रभुता से क्या लाभ है? ॥46॥ ऐसा विचारकर क्रोध से जिसका चित्त कलुषित हो रहा था, तथा बदला लेने का जिसने दृढ़ निश्चय कर लिया था ऐसा वह सूर्य के समान देदीप्यमान देव पूर्व वैर को बुद्धि में रख शीघ्र ही स्वर्ग से पृथिवी पर उतरा ॥47॥ उस समय राजा सुमुख का जीव आर्य नाम का विद्याधर, अपनी विद्याधरी के साथ हरिवर्ष क्षेत्र में इच्छानुसार क्रीड़ा करता हुआ इंद्र के समान सुशोभित हो रहा था सो उस देव ने उसे प्राप्त किया ॥48॥ नव यौवन से जिसका शरीर भरा हुआ था ऐसे उस विद्याधर दंपती को देखकर देव ने अपनी स्वाभाविक अखंड माया से उसे खंडित विद्य कर दिया अर्थात् उसकी विद्याएँ हर लीं ॥49॥ और क्रुद्ध होकर उससे कहा कि अरे! पर-स्त्री को हरने वाले प्रमुख सुमुख ! क्या तुझे इस समय अपने वीरक वैरी का स्मरण है और परजन्म से शीलव्रत को खंडित करने वाली दुष्ट वनमाला ! तुझे भी वीरक की याद है ? ॥50॥ मैं तप कर देव हुआ हूँ और तुम दोनों मुनिदान के फल से विद्याधर हुए हो । तुम दोनों ने पूर्वभव में मुझे दुःख दिया था इसलिए मैं भी तुम्हारी विद्याएँ नष्ट कर तुम्हें दुःख देता हूँ ॥51॥ इस प्रकार कहकर वह देव, जिस प्रकार पक्षियों को गरुड़ उठा ले जाता है उसी प्रकार आश्चर्य से चकित चित्त एवं भय से कंपित शरीर को धारण करने वाले दोनों-विद्याधर और विद्याधरी को उठाकर दक्षिण भरत क्षेत्र की ओर आकाश में उड़ गया ॥52॥ उस समय चंपापुरी का राजा चंद्रकीर्ति मर चुका था इसलिए वह राजा से रहित थी । वह देव आर्य विद्याधर को यहाँ ले आया और उसे चंपापुरी का अनेक राजाओं के द्वारा नमस्कृत राजा बनाकर स्वर्ग चला गया ॥53॥ देव द्वारा जिनकी विद्याएँ खंडित कर दी गयी थीं ऐसे वे दोनों विद्याधर दंपती, पंख कटे पक्षियों के समान आकाश में चलने को असमर्थ हो गये इसलिए उसकी इच्छा छोड़ पृथिवी में ही संतोष को प्राप्त हुए ॥54॥ यह वृत्तांत नब्बे धनुष ऊँचे शरीर और एक लाख पूर्व की स्थिति को धारण करने वाले दसवें शीतलनाथ भगवान् के तीर्थ में हुआ था । उस समय उनका तीर्थ कुछ अधिक सौ सागर कम एक करोड़ सागर प्रमाण चल रहा था ॥55॥ राजा आर्य ने अपने भुजदंड से समस्त राजाओं को वश कर नम्रीभूत एवं आज्ञाकारी बनाया और अखंडित प्रेम वाली मनोरमा के साथ चिरकाल तक विषय-सुख का उपभोग किया फिर भी तृप्त नहीं हुआ ॥56॥ तदनंतर उन दोनों के हरि नाम का पुत्र हुआ जो इंद्र के समान प्रसिद्ध राजा हुआ । राजा आर्य और रानी मनोरमा ने चिरकाल तक पुत्र की विशाल लक्ष्मी का अनुभव किया तत्पश्चात् दोनों अपने-अपने कर्मों के अनुसार पर हुए ॥57॥ यही राजा हरि, परम यशस्वी हरिवंश की उत्पत्ति का प्रथम कारण था । जगत् में इसी के नाम से हरिवंश इस नाम को प्रसिद्धि हुई ॥58॥ राजा हरि के महागिरि नाम का पुत्र हुआ । महागिरि के उत्तम नीति का पालक हिमगिरि पुत्र हुआ । हिमगिरि के वसुगिरि और वसुगिरि के गिरि नाम का पुत्र हुआ । ये सभी यथायोग्य स्वर्ग और मोक्ष को प्राप्त हुए ॥59॥ तदनंतर हरिवंश के तिलक स्वरूप इंद्र के समान सैकड़ों राजा हुए जो क्रम से विशाल राज्य और तप का भार धारण कर कुछ तो मोक्ष गये और कुछ स्वर्ग गये ॥60॥ इस प्रकार क्रम से बहुत―से राजाओं के होने पर उसी हरिवंश में मगध देश का स्वामी राजा सुमित्र हुआ । वह कुशल-मंगल का स्थान तथा कुशाग्रपुर नगर का अधिपति था । उसका पराक्रम शास्त्रों के विशिष्ट ज्ञान से विभूषित था । वह अपनी जिनभक्त प्रिया पद्मावती के साथ सुख का उपभोग करता हुआ चिरकाल तक पृथिवी का शासन करता रहा ॥61-62॥
इस प्रकार अरिष्टनेमि पुराण के संग्रह से युक्त, जिनसेनाचार्यरचित हरिवंश पुराण में हरिवंश की उत्पत्ति का वर्णन करने वाला पंद्रहवाँ सर्ग समाप्त हुआ ॥15॥