हरिवंश पुराण - सर्ग 28: Difference between revisions
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<div class="G_HindiText"> <p>अथानंतर गौतम स्वामी कहते हैं कि हे श्रेणिक ! अब तुम वेगवती से रहित तथा पुण्य और पुरुषार्थ के समागम को प्राप्त वसुदेव का आगे का चरित सुनो ॥1॥ एक दिन बिना किसी थकावट के अटवी में भ्रमण करते हुए वीर वसुदेव ने तपस्वियों के आश्रम में प्रवेश किया और वहाँ विकथा करते हुए तापसों को देखा ॥2॥ कुमार ने उनसे कहा― अये तापसो ! आप लोग इस तरह राज-कथा और युद्ध-कथा में आसक्त क्यों हैं <strong>? </strong>क्योंकि तापस वे कहलाते हैं जो तप से युक्त हों और तप वह कहलाता है जिसमें वचन संयम आदि का पालन किया जाय अर्थात् वचनों को वश में किया जाय ॥3॥ इस प्रकार कहने पर विशिष्ट आगंतुक से स्नेह रखने वाले उन तपस्वियों ने कहा कि हम लोग अभी नवीन ही दीक्षित हुए हैं । इसलिए मुनियों की वृत्ति को जानते नहीं हैं | <span id="1" /><div class="G_HindiText"> <p>अथानंतर गौतम स्वामी कहते हैं कि हे श्रेणिक ! अब तुम वेगवती से रहित तथा पुण्य और पुरुषार्थ के समागम को प्राप्त वसुदेव का आगे का चरित सुनो ॥1॥<span id="2" /> एक दिन बिना किसी थकावट के अटवी में भ्रमण करते हुए वीर वसुदेव ने तपस्वियों के आश्रम में प्रवेश किया और वहाँ विकथा करते हुए तापसों को देखा ॥2॥<span id="3" /> कुमार ने उनसे कहा― अये तापसो ! आप लोग इस तरह राज-कथा और युद्ध-कथा में आसक्त क्यों हैं <strong>? </strong>क्योंकि तापस वे कहलाते हैं जो तप से युक्त हों और तप वह कहलाता है जिसमें वचन संयम आदि का पालन किया जाय अर्थात् वचनों को वश में किया जाय ॥3॥<span id="4" /> इस प्रकार कहने पर विशिष्ट आगंतुक से स्नेह रखने वाले उन तपस्वियों ने कहा कि हम लोग अभी नवीन ही दीक्षित हुए हैं । इसलिए मुनियों की वृत्ति को जानते नहीं हैं ॥ 4 ।<span id="5" />꠰ इसी श्रावस्ती नगरी में विस्तृत यश से समुद्र को पार करने वाला एवं अखंड पौरुष का धारक एक एणीपुत्र नाम का राजा है ॥ 5 ॥<span id="6" /> उसकी लोक में अद्वितीय सुंदरी प्रियंगुसुंदरी नाम की कन्या है । उसके स्वयंवर के लिए एणीपुत्र ने हम सब राजाओं को बुलाया था ॥6 ॥<span id="7" /> परंतु किसी कारणवश<strong>, </strong>जिस प्रकार वन की हस्तिनी वन के हस्ती के सिवाय किसी दूसरे हस्ती को नहीं वरती है उसी प्रकार उस शोभा संपन्न कन्या ने किसी को नहीं वरा ॥7॥<span id="8" /> तदनंतर जो कन्या के लोभ से युक्त थे<strong>, </strong>परंतु उसके प्राप्त न होने से मन-ही-मन लज्जित हो रहे थे<strong>, </strong>ऐसे बहुत से राजा मिलकर कन्या के पिता के साथ शीघ्र ही युद्ध करने को तैयार हो गये ॥ 8 ॥<span id="9" /> परंतु जिस प्रकार एक ही सूर्य हजारों नेत्रों को अकेला ही संकोचित कर देता है उसी प्रकार उस अकेले एणीपुत्र ने हजारों राजाओं को शीघ्र ही क्षुभित कर संकोचित कर दिया ॥9॥<span id="10" /> उत्कट अभिमान से भरे कितने ही राजाओं ने जो पराजय को स्वीकृत करने में समर्थ नहीं थे<strong>, </strong>युद्ध के मैदान में जाकर शीघ्र ही प्राण त्याग दिये ॥10॥<span id="11" /> जिस प्रकार सूर्य से डरकर अंधकार के समूह सघन वन में जा घुसते हैं उसी प्रकार हम सब भी घोड़ों की हिनहिनाहट से युक्त युद्ध से डरकर इस सघन वन में आ घुसे हैं ॥ 11 ॥<span id="12" /> भो महाशय ! हम लोग धर्म का कुछ भी तत्त्व नहीं जानते । इसलिए आप हम लोगों को धर्म का उपदेश दीजिए । आपके मधुर वचनों से पता चलता है कि आपने धर्म का तत्त्व अच्छी तरह देखा है ॥ 12 ॥<span id="13" /> इस प्रकार उन सबके पूछने पर वसुदेव ने उन्हें श्रावक और मुनि के भेद से दोनों प्रकार का धर्म बतलाया जिससे वे मुनि और श्रावक के भेद को अच्छी तरह जानकर यथार्थ साधु अवस्था को प्राप्त हुए ॥13॥<span id="14" /></p> | ||
<p>तदनंतर प्रियंगुसुंदरी के लाभ के लोभ से प्रेरित हो कुमार वसुदेव ने वस्तुओं के विस्तार से प्रसिद्ध उस श्रावस्ती नगरी में प्रवेश किया ॥14॥ वहाँ उन्होंने बाह्य उद्यान में कामदेव के मंदिर के आगे निर्मित तीन पाँव का एक बड़ा भारी सुवर्णमय भैंसा देखा ॥15॥ उसे देखकर उन्होंने एक ब्राह्मण से पूछा कि हे महानुभाव ! यहाँ यह रत्नमयी तीन पाँवों का भैंसा किसलिए बनाया गया है ? इसका कुछ कारण अवश्य होना चाहिए | <p>तदनंतर प्रियंगुसुंदरी के लाभ के लोभ से प्रेरित हो कुमार वसुदेव ने वस्तुओं के विस्तार से प्रसिद्ध उस श्रावस्ती नगरी में प्रवेश किया ॥14॥<span id="15" /> वहाँ उन्होंने बाह्य उद्यान में कामदेव के मंदिर के आगे निर्मित तीन पाँव का एक बड़ा भारी सुवर्णमय भैंसा देखा ॥15॥<span id="16" /> उसे देखकर उन्होंने एक ब्राह्मण से पूछा कि हे महानुभाव ! यहाँ यह रत्नमयी तीन पाँवों का भैंसा किसलिए बनाया गया है ? इसका कुछ कारण अवश्य होना चाहिए ॥ 16 ॥<span id="17" /> ब्राह्मण ने कहा कि इस नगर में पहले शत्रुओं को जीतने वाला एक इक्ष्वाकुवंशीय जितशत्रु नाम का उत्तम राजा था और उसका मृगध्वज नामक पुत्र था ॥17॥<span id="18" /> इसी नगर में एक कामदत्त नाम का सेठ रहता था । वह एक समय गोशाला देखने के गया तो वहाँ एक दीन<strong>-</strong>हीन छोटा<strong>-</strong>सा भैंसा उसके चरणों पर आ गिरा ॥18॥<span id="19" /> उसका यह आश्चर्यजनक कार्य देख सेठ ने गोशाला के अधिकारी पिंडार नामक गोपाल से इसका कारण पूछा ॥19॥<span id="20" /> गोपाल ने कहा जिस दिन यह उत्पन्न हुआ था उसी दिन से इस पर मुझे बहुत दया उत्पन्न हुई थी इसलिए मैंने वन में विराजमान मुनिराज के दर्शन कर नमस्कार पूर्वक उनसे इसके विषय में पूछा था ॥20॥<span id="21" /> कि हे मुनिनाथ ! इसके ऊपर मेरे हृदय में बहुत भारी दया क्यों उत्पन्न हुई है? इसके उत्तर में ज्ञानी मुनिराज ने कहा था कि हे गोपाल ! सुन<strong>, </strong>मैं इसका कारण कहता हूँ ॥21॥<span id="22" /> यह बेचारा इसी एक भैंस के पाँच बार उत्पन्न हुआ और उत्पन्न होते ही तूने इसे मार डाला ॥ 22 ॥<span id="23" /> अब छठवीं बार भी उसी भैंस के उत्पन्न हुआ है<strong>, </strong>अब की बार इसे जातिस्मरण हुआ है इसलिए भयभीत हो सहसा उठकर तेरे पैरों पर आ गिरा था । छोटे बच्चों का संरक्षण भी तो तेरे ही अधीन था ॥23॥<span id="24" /></p> | ||
<p>मुनिराज के उक्त वचन सुनकर मैंने यहाँ पुत्रवत् इसका पालन किया है । अब जीवित रहने की इच्छा से यह यहाँ आपके चरणों में भी गिरा है ॥24॥ गोपाल के वचन सुनकर वह सेठ दयापूर्वक उस भैंस के बच्चे को अपने साथ नगर ले गया और राज<strong>-</strong>कर्मचारियों से उसे अभय दिलाकर उसका भद्रक नाम रख दिया । भद्रक दिन<strong>-</strong>प्रति<strong>-</strong>दिन बड़ा होने लगा ॥25॥ किसी समय राजपुत्र मृगध्वज ने अन्य भव संबंधी वैर के संस्कार से चक्र के द्वारा उस भैंसे का एक पाँव काट डाला | <p>मुनिराज के उक्त वचन सुनकर मैंने यहाँ पुत्रवत् इसका पालन किया है । अब जीवित रहने की इच्छा से यह यहाँ आपके चरणों में भी गिरा है ॥24॥<span id="25" /> गोपाल के वचन सुनकर वह सेठ दयापूर्वक उस भैंस के बच्चे को अपने साथ नगर ले गया और राज<strong>-</strong>कर्मचारियों से उसे अभय दिलाकर उसका भद्रक नाम रख दिया । भद्रक दिन<strong>-</strong>प्रति<strong>-</strong>दिन बड़ा होने लगा ॥25॥<span id="26" /> किसी समय राजपुत्र मृगध्वज ने अन्य भव संबंधी वैर के संस्कार से चक्र के द्वारा उस भैंसे का एक पाँव काट डाला ॥26॥<span id="27" /> राजा को जब इस बात का पता चला तो उसने क्रोध में आकर मृगध्वज को मारने का आदेश दे दिया । मंत्री बुद्धिमान था इसलिए उसने मृगध्वज को मारा तो नहीं किंतु किसी छल से वन में ले जाकर उसे मुनिदीक्षा दिला दी ॥27॥<span id="28" /> भद्रक शुभ परिणामों से अठारहवें दिन मर गया और बाईसवें दिन निर्मल ध्यान के प्रभाव से मृगध्वज मुनि केवलज्ञानी हो गये ॥28॥<span id="29" /> चारों निकाय के देव तथा मनुष्यों ने आकर मृगध्वज केवली की पूजा की । तदनंतर पिता जितशत्रु ने मृगध्वज केवली से मृगध्वज तथा भैंसे के वैर का संबंध पूछा ॥ 29 ॥<span id="30" /> तदनंतर कथा के सुनने से जिनके चित्त तथा हृदय प्रसन्न हो रहे थे ऐसे देव<strong>, </strong>दानव और मानवों से घिरे मृगध्वज मुनि इस प्रकार कहने लगे ॥30॥<span id="31" /></p> | ||
<p>किसी समय अलका नगरी में प्रथम नारायण त्रिपिष्ट का प्रतिशत्रु― प्रतिनारायण<strong>, </strong>अश्वग्रीव नाम से प्रसिद्ध विद्याधरों का राजा रहता था ॥31॥ उसका हरिश्मश्रु नाम का एक मंत्री था जिसने तर्कशास्त्र रूपी महासागर को पार कर लिया था और सिंह की मूंछ के समान जिसका स्पर्श करना कठिन था ॥32॥ हरिश्मश्रु एकांतवादी नास्तिक तथा सिर्फ प्रत्यक्ष को प्रमाण मानने वाला था इसलिए जो वस्तु प्रत्यक्ष नहीं दिखती थी उसे वह है ही नहीं ऐसा मानता था ॥33॥ उसका कहना था कि जिस प्रकार आटा आदि में मद शक्ति पहले नहीं थी किंतु विभिन्न वस्तुओं का संयोग होने पर नवीन ही उत्पन्न हो जाती है उसी प्रकार पृथिवी आदि चार भूतों के समूह स्वरूप इस शरीर में जो पहले बिलकुल ही नहीं थी ऐसी नवीन ही चैतन्य शक्ति उत्पन्न हो जाती है | <p>किसी समय अलका नगरी में प्रथम नारायण त्रिपिष्ट का प्रतिशत्रु― प्रतिनारायण<strong>, </strong>अश्वग्रीव नाम से प्रसिद्ध विद्याधरों का राजा रहता था ॥31॥<span id="32" /> उसका हरिश्मश्रु नाम का एक मंत्री था जिसने तर्कशास्त्र रूपी महासागर को पार कर लिया था और सिंह की मूंछ के समान जिसका स्पर्श करना कठिन था ॥32॥<span id="33" /> हरिश्मश्रु एकांतवादी नास्तिक तथा सिर्फ प्रत्यक्ष को प्रमाण मानने वाला था इसलिए जो वस्तु प्रत्यक्ष नहीं दिखती थी उसे वह है ही नहीं ऐसा मानता था ॥33॥<span id="34" /> उसका कहना था कि जिस प्रकार आटा आदि में मद शक्ति पहले नहीं थी किंतु विभिन्न वस्तुओं का संयोग होने पर नवीन ही उत्पन्न हो जाती है उसी प्रकार पृथिवी आदि चार भूतों के समूह स्वरूप इस शरीर में जो पहले बिलकुल ही नहीं थी ऐसी नवीन ही चैतन्य शक्ति उत्पन्न हो जाती है ॥ 34॥<span id="35" /> इसी चैतन्य शक्ति में यह आत्मा है ऐसा लोगों का व्यवहार विरुद्ध नहीं होता अर्थात् उस चैतन्य शक्ति को लोग आत्मा कहते रहें इसमें कोई विरोध की बात नहीं है । यथार्थ में पृथिव्यादि भूतों से अतिरिक्त कोई संसारी आत्मा नहीं है क्योंकि उसकी उपलब्धि नहीं होती ॥35॥<span id="36" /> पुण्य-पाप का कर्ता<strong>, </strong>सुख-दुःख का भोक्ता और परलोक में जाने वाला जो अज्ञानी जनों ने मान रखा है वह नहीं है क्योंकि वह दिखाई नहीं पड़ता ॥36॥<span id="37" /> भोगों के अधिष्ठाता-आत्मा के रहने का आधार<strong>, </strong>तथा नरक देव और तिर्यंचों के भेद से युक्त जिस परलोक की कल्पना अज्ञानी जनों ने कर रखी है वह नहीं है ॥37॥<span id="38" /> विशिष्ट ज्ञानवान् मनुष्यों को ही जिसकी प्राप्ति शक्य एवं सुनिश्चित की गयी है ऐसा मोक्ष मानना भी निष्प्रमाण है क्योंकि जब मुक्त होने वाला आत्मा ही नहीं है तब मोक्ष का मानना उचित कैसे हो सकता है ? ॥38॥<span id="39" /> जो भूतों के संयोग से उत्पन्न होता है और भूतों के वियोग से नष्ट हो जाता है ऐसे सुख के उपभोक्ता चेतन के लिए संयम धारण करना भोगों को नष्ट करना है ॥39 ॥<span id="40" /><span id="41" /> इस प्रकार जो एकांत मत रूपी कुतर्कों से रंगा हुआ था<strong>, </strong>आगम तथा अनुमान प्रमाण के द्वारा ज्ञेय जीवादि पदार्थों से सदा पराङ्मुख रहता था<strong>, </strong>परलोक संबंधी कथाओं से रहित दुष्ट कथाओं में ही जिसका मन मूढ रहता था और जो धर्म की निंदा करता रहता था ऐसा वह क्षुद्र मंत्री निरंतर काम भोगों में ही आसक्त रहता था॥40-41॥<span id="42" /><span id="43" /> नास्तिक<strong>, </strong>परलोक के अप्रलापी<strong>,</strong> तीर्थकर तथा चक्रवर्ती आदि महापुरुषों को दोष लगाने वाले और खोटी चेष्टा से युक्त हरिश्मश्रु मंत्री के संसर्ग से अश्वग्रीव भी नास्तिक बन गया जिससे वह भी धर्म से विमुख एवं भवों द्वारा पिशाचादि से निरंतर आक्रांत हुए के समान रहने लगा ॥ 42-43 ॥<span id="44" /> तदनंतर किसी समय युद्ध में अश्वग्रीव को त्रिपिष्ट नारायण ने और हरिश्मश्रु को विजय बलभद्र ने मार गिराया जिससे वे दोनों ही मरकर तमस्तमः नामक सातवें नरक गये ॥44॥<span id="45" /> हे राजन् ! चिर काल तक अनेक योनियों में भ्रमण कर अश्वग्रीव का जीव तो मैं मृगध्वज हुआ हूँ और हरिश्मश्रु का जीव इस समय भद्रक नाम का भैंसा हुआ है । 45 ॥<span id="46" /> पूर्व क्रोध के संस्कार से मैंने ही उस भैंसे को मारा था और अकामनिर्जरा के प्रभाव से वह लोहित नाम का असुर हुआ है ॥46॥<span id="47" /> वह लोहितासुर इस समय वंदना की भक्ति से यहाँ आया है और देवों की विभूति से युक्त हो मित्र भाव से यहीं बैठा है ॥ 47 ॥<span id="48" /> हे महाराज ! यह क्रोध का संस्कार प्राणी को अंधा बना देने में समर्थ है इसलिए जो मोक्ष की इच्छा रखते हैं वे इसे रोककर शांत हों ॥ 48॥<span id="49" /> मृगध्वज केवली के मुख से यह वृत्तांत सुन जितशत्रु को आदि लेकर कितने ही राजाओं ने दीक्षा ले ली । महिषासुर शांत हो गया और सभा के लोग लोलुपता छोड़<strong>, </strong>शल्य रहित हो सुशोभित होने लगे ॥ 49 ॥<span id="50" /> तदनंतर देव और दानव केवली को नमस्कार कर यथायोग्य अपने-अपने स्थानपर चले गये और केवली सिद्ध स्थानपर जा विराजे ॥50॥<span id="51" /> गौतम स्वामी कहते हैं कि जो भव्यजीव इस महिषासुर और मृगध्वज के वृत्तांत को सदा अपने शुद्ध हृदय में धारण करता है वह जिनेंद्र भगवान् के द्वारा इष्ट पदार्थों को विषय करने वाली दर्शनविशुद्धि सम्यग्दर्शन की निर्मलता को प्राप्त होता है ॥ 51॥<span id="28" /></p> | ||
<p><strong>इस प्रकार अरिष्टनेमिपुराण के संग्रह से युक्त</strong>, <strong>जिनसेनाचार्य रचित हरिवंशपुराण में मृगध्वज और</strong> <strong>महिष के चरित का वर्णन करने वाला अट्ठाईसवाँ सर्ग समाप्त हुआ ॥28॥</strong></p> | <p><strong>इस प्रकार अरिष्टनेमिपुराण के संग्रह से युक्त</strong>, <strong>जिनसेनाचार्य रचित हरिवंशपुराण में मृगध्वज और</strong> <strong>महिष के चरित का वर्णन करने वाला अट्ठाईसवाँ सर्ग समाप्त हुआ ॥28॥<span id="29" /></strong></p> | ||
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Latest revision as of 10:58, 18 September 2023
अथानंतर गौतम स्वामी कहते हैं कि हे श्रेणिक ! अब तुम वेगवती से रहित तथा पुण्य और पुरुषार्थ के समागम को प्राप्त वसुदेव का आगे का चरित सुनो ॥1॥ एक दिन बिना किसी थकावट के अटवी में भ्रमण करते हुए वीर वसुदेव ने तपस्वियों के आश्रम में प्रवेश किया और वहाँ विकथा करते हुए तापसों को देखा ॥2॥ कुमार ने उनसे कहा― अये तापसो ! आप लोग इस तरह राज-कथा और युद्ध-कथा में आसक्त क्यों हैं ? क्योंकि तापस वे कहलाते हैं जो तप से युक्त हों और तप वह कहलाता है जिसमें वचन संयम आदि का पालन किया जाय अर्थात् वचनों को वश में किया जाय ॥3॥ इस प्रकार कहने पर विशिष्ट आगंतुक से स्नेह रखने वाले उन तपस्वियों ने कहा कि हम लोग अभी नवीन ही दीक्षित हुए हैं । इसलिए मुनियों की वृत्ति को जानते नहीं हैं ॥ 4 ।꠰ इसी श्रावस्ती नगरी में विस्तृत यश से समुद्र को पार करने वाला एवं अखंड पौरुष का धारक एक एणीपुत्र नाम का राजा है ॥ 5 ॥ उसकी लोक में अद्वितीय सुंदरी प्रियंगुसुंदरी नाम की कन्या है । उसके स्वयंवर के लिए एणीपुत्र ने हम सब राजाओं को बुलाया था ॥6 ॥ परंतु किसी कारणवश, जिस प्रकार वन की हस्तिनी वन के हस्ती के सिवाय किसी दूसरे हस्ती को नहीं वरती है उसी प्रकार उस शोभा संपन्न कन्या ने किसी को नहीं वरा ॥7॥ तदनंतर जो कन्या के लोभ से युक्त थे, परंतु उसके प्राप्त न होने से मन-ही-मन लज्जित हो रहे थे, ऐसे बहुत से राजा मिलकर कन्या के पिता के साथ शीघ्र ही युद्ध करने को तैयार हो गये ॥ 8 ॥ परंतु जिस प्रकार एक ही सूर्य हजारों नेत्रों को अकेला ही संकोचित कर देता है उसी प्रकार उस अकेले एणीपुत्र ने हजारों राजाओं को शीघ्र ही क्षुभित कर संकोचित कर दिया ॥9॥ उत्कट अभिमान से भरे कितने ही राजाओं ने जो पराजय को स्वीकृत करने में समर्थ नहीं थे, युद्ध के मैदान में जाकर शीघ्र ही प्राण त्याग दिये ॥10॥ जिस प्रकार सूर्य से डरकर अंधकार के समूह सघन वन में जा घुसते हैं उसी प्रकार हम सब भी घोड़ों की हिनहिनाहट से युक्त युद्ध से डरकर इस सघन वन में आ घुसे हैं ॥ 11 ॥ भो महाशय ! हम लोग धर्म का कुछ भी तत्त्व नहीं जानते । इसलिए आप हम लोगों को धर्म का उपदेश दीजिए । आपके मधुर वचनों से पता चलता है कि आपने धर्म का तत्त्व अच्छी तरह देखा है ॥ 12 ॥ इस प्रकार उन सबके पूछने पर वसुदेव ने उन्हें श्रावक और मुनि के भेद से दोनों प्रकार का धर्म बतलाया जिससे वे मुनि और श्रावक के भेद को अच्छी तरह जानकर यथार्थ साधु अवस्था को प्राप्त हुए ॥13॥
तदनंतर प्रियंगुसुंदरी के लाभ के लोभ से प्रेरित हो कुमार वसुदेव ने वस्तुओं के विस्तार से प्रसिद्ध उस श्रावस्ती नगरी में प्रवेश किया ॥14॥ वहाँ उन्होंने बाह्य उद्यान में कामदेव के मंदिर के आगे निर्मित तीन पाँव का एक बड़ा भारी सुवर्णमय भैंसा देखा ॥15॥ उसे देखकर उन्होंने एक ब्राह्मण से पूछा कि हे महानुभाव ! यहाँ यह रत्नमयी तीन पाँवों का भैंसा किसलिए बनाया गया है ? इसका कुछ कारण अवश्य होना चाहिए ॥ 16 ॥ ब्राह्मण ने कहा कि इस नगर में पहले शत्रुओं को जीतने वाला एक इक्ष्वाकुवंशीय जितशत्रु नाम का उत्तम राजा था और उसका मृगध्वज नामक पुत्र था ॥17॥ इसी नगर में एक कामदत्त नाम का सेठ रहता था । वह एक समय गोशाला देखने के गया तो वहाँ एक दीन-हीन छोटा-सा भैंसा उसके चरणों पर आ गिरा ॥18॥ उसका यह आश्चर्यजनक कार्य देख सेठ ने गोशाला के अधिकारी पिंडार नामक गोपाल से इसका कारण पूछा ॥19॥ गोपाल ने कहा जिस दिन यह उत्पन्न हुआ था उसी दिन से इस पर मुझे बहुत दया उत्पन्न हुई थी इसलिए मैंने वन में विराजमान मुनिराज के दर्शन कर नमस्कार पूर्वक उनसे इसके विषय में पूछा था ॥20॥ कि हे मुनिनाथ ! इसके ऊपर मेरे हृदय में बहुत भारी दया क्यों उत्पन्न हुई है? इसके उत्तर में ज्ञानी मुनिराज ने कहा था कि हे गोपाल ! सुन, मैं इसका कारण कहता हूँ ॥21॥ यह बेचारा इसी एक भैंस के पाँच बार उत्पन्न हुआ और उत्पन्न होते ही तूने इसे मार डाला ॥ 22 ॥ अब छठवीं बार भी उसी भैंस के उत्पन्न हुआ है, अब की बार इसे जातिस्मरण हुआ है इसलिए भयभीत हो सहसा उठकर तेरे पैरों पर आ गिरा था । छोटे बच्चों का संरक्षण भी तो तेरे ही अधीन था ॥23॥
मुनिराज के उक्त वचन सुनकर मैंने यहाँ पुत्रवत् इसका पालन किया है । अब जीवित रहने की इच्छा से यह यहाँ आपके चरणों में भी गिरा है ॥24॥ गोपाल के वचन सुनकर वह सेठ दयापूर्वक उस भैंस के बच्चे को अपने साथ नगर ले गया और राज-कर्मचारियों से उसे अभय दिलाकर उसका भद्रक नाम रख दिया । भद्रक दिन-प्रति-दिन बड़ा होने लगा ॥25॥ किसी समय राजपुत्र मृगध्वज ने अन्य भव संबंधी वैर के संस्कार से चक्र के द्वारा उस भैंसे का एक पाँव काट डाला ॥26॥ राजा को जब इस बात का पता चला तो उसने क्रोध में आकर मृगध्वज को मारने का आदेश दे दिया । मंत्री बुद्धिमान था इसलिए उसने मृगध्वज को मारा तो नहीं किंतु किसी छल से वन में ले जाकर उसे मुनिदीक्षा दिला दी ॥27॥ भद्रक शुभ परिणामों से अठारहवें दिन मर गया और बाईसवें दिन निर्मल ध्यान के प्रभाव से मृगध्वज मुनि केवलज्ञानी हो गये ॥28॥ चारों निकाय के देव तथा मनुष्यों ने आकर मृगध्वज केवली की पूजा की । तदनंतर पिता जितशत्रु ने मृगध्वज केवली से मृगध्वज तथा भैंसे के वैर का संबंध पूछा ॥ 29 ॥ तदनंतर कथा के सुनने से जिनके चित्त तथा हृदय प्रसन्न हो रहे थे ऐसे देव, दानव और मानवों से घिरे मृगध्वज मुनि इस प्रकार कहने लगे ॥30॥
किसी समय अलका नगरी में प्रथम नारायण त्रिपिष्ट का प्रतिशत्रु― प्रतिनारायण, अश्वग्रीव नाम से प्रसिद्ध विद्याधरों का राजा रहता था ॥31॥ उसका हरिश्मश्रु नाम का एक मंत्री था जिसने तर्कशास्त्र रूपी महासागर को पार कर लिया था और सिंह की मूंछ के समान जिसका स्पर्श करना कठिन था ॥32॥ हरिश्मश्रु एकांतवादी नास्तिक तथा सिर्फ प्रत्यक्ष को प्रमाण मानने वाला था इसलिए जो वस्तु प्रत्यक्ष नहीं दिखती थी उसे वह है ही नहीं ऐसा मानता था ॥33॥ उसका कहना था कि जिस प्रकार आटा आदि में मद शक्ति पहले नहीं थी किंतु विभिन्न वस्तुओं का संयोग होने पर नवीन ही उत्पन्न हो जाती है उसी प्रकार पृथिवी आदि चार भूतों के समूह स्वरूप इस शरीर में जो पहले बिलकुल ही नहीं थी ऐसी नवीन ही चैतन्य शक्ति उत्पन्न हो जाती है ॥ 34॥ इसी चैतन्य शक्ति में यह आत्मा है ऐसा लोगों का व्यवहार विरुद्ध नहीं होता अर्थात् उस चैतन्य शक्ति को लोग आत्मा कहते रहें इसमें कोई विरोध की बात नहीं है । यथार्थ में पृथिव्यादि भूतों से अतिरिक्त कोई संसारी आत्मा नहीं है क्योंकि उसकी उपलब्धि नहीं होती ॥35॥ पुण्य-पाप का कर्ता, सुख-दुःख का भोक्ता और परलोक में जाने वाला जो अज्ञानी जनों ने मान रखा है वह नहीं है क्योंकि वह दिखाई नहीं पड़ता ॥36॥ भोगों के अधिष्ठाता-आत्मा के रहने का आधार, तथा नरक देव और तिर्यंचों के भेद से युक्त जिस परलोक की कल्पना अज्ञानी जनों ने कर रखी है वह नहीं है ॥37॥ विशिष्ट ज्ञानवान् मनुष्यों को ही जिसकी प्राप्ति शक्य एवं सुनिश्चित की गयी है ऐसा मोक्ष मानना भी निष्प्रमाण है क्योंकि जब मुक्त होने वाला आत्मा ही नहीं है तब मोक्ष का मानना उचित कैसे हो सकता है ? ॥38॥ जो भूतों के संयोग से उत्पन्न होता है और भूतों के वियोग से नष्ट हो जाता है ऐसे सुख के उपभोक्ता चेतन के लिए संयम धारण करना भोगों को नष्ट करना है ॥39 ॥ इस प्रकार जो एकांत मत रूपी कुतर्कों से रंगा हुआ था, आगम तथा अनुमान प्रमाण के द्वारा ज्ञेय जीवादि पदार्थों से सदा पराङ्मुख रहता था, परलोक संबंधी कथाओं से रहित दुष्ट कथाओं में ही जिसका मन मूढ रहता था और जो धर्म की निंदा करता रहता था ऐसा वह क्षुद्र मंत्री निरंतर काम भोगों में ही आसक्त रहता था॥40-41॥ नास्तिक, परलोक के अप्रलापी, तीर्थकर तथा चक्रवर्ती आदि महापुरुषों को दोष लगाने वाले और खोटी चेष्टा से युक्त हरिश्मश्रु मंत्री के संसर्ग से अश्वग्रीव भी नास्तिक बन गया जिससे वह भी धर्म से विमुख एवं भवों द्वारा पिशाचादि से निरंतर आक्रांत हुए के समान रहने लगा ॥ 42-43 ॥ तदनंतर किसी समय युद्ध में अश्वग्रीव को त्रिपिष्ट नारायण ने और हरिश्मश्रु को विजय बलभद्र ने मार गिराया जिससे वे दोनों ही मरकर तमस्तमः नामक सातवें नरक गये ॥44॥ हे राजन् ! चिर काल तक अनेक योनियों में भ्रमण कर अश्वग्रीव का जीव तो मैं मृगध्वज हुआ हूँ और हरिश्मश्रु का जीव इस समय भद्रक नाम का भैंसा हुआ है । 45 ॥ पूर्व क्रोध के संस्कार से मैंने ही उस भैंसे को मारा था और अकामनिर्जरा के प्रभाव से वह लोहित नाम का असुर हुआ है ॥46॥ वह लोहितासुर इस समय वंदना की भक्ति से यहाँ आया है और देवों की विभूति से युक्त हो मित्र भाव से यहीं बैठा है ॥ 47 ॥ हे महाराज ! यह क्रोध का संस्कार प्राणी को अंधा बना देने में समर्थ है इसलिए जो मोक्ष की इच्छा रखते हैं वे इसे रोककर शांत हों ॥ 48॥ मृगध्वज केवली के मुख से यह वृत्तांत सुन जितशत्रु को आदि लेकर कितने ही राजाओं ने दीक्षा ले ली । महिषासुर शांत हो गया और सभा के लोग लोलुपता छोड़, शल्य रहित हो सुशोभित होने लगे ॥ 49 ॥ तदनंतर देव और दानव केवली को नमस्कार कर यथायोग्य अपने-अपने स्थानपर चले गये और केवली सिद्ध स्थानपर जा विराजे ॥50॥ गौतम स्वामी कहते हैं कि जो भव्यजीव इस महिषासुर और मृगध्वज के वृत्तांत को सदा अपने शुद्ध हृदय में धारण करता है वह जिनेंद्र भगवान् के द्वारा इष्ट पदार्थों को विषय करने वाली दर्शनविशुद्धि सम्यग्दर्शन की निर्मलता को प्राप्त होता है ॥ 51॥
इस प्रकार अरिष्टनेमिपुराण के संग्रह से युक्त, जिनसेनाचार्य रचित हरिवंशपुराण में मृगध्वज और महिष के चरित का वर्णन करने वाला अट्ठाईसवाँ सर्ग समाप्त हुआ ॥28॥