अक्रियवान: Difference between revisions
From जैनकोष
mNo edit summary |
(Imported from text file) |
||
Line 2: | Line 2: | ||
<li><span class="HindiText" name="3.3" id="3.3"><strong> क्रियावान् व भाववान् विभाग</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="3.3" id="3.3"><strong> क्रियावान् व भाववान् विभाग</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> (तत्त्वार्थसूत्र/5/7) </span><span class="SanskritText">निष्क्रियाणि च/7/</span> | <span class="GRef"> (तत्त्वार्थसूत्र/5/7) </span><span class="SanskritText">निष्क्रियाणि च/7/</span> | ||
<span class="GRef">(सर्वार्थसिद्धि/5/7/273/12)</span><span class="SanskritText">अधिकृतानां धर्माधर्माकाशानां निष्क्रियत्वेऽभ्युपगमे जीवपुद्गलानां सक्रियत्वमर्यादापन्नम् । </span>=<span class="HindiText">धर्माधर्मादिक निष्क्रिय है। अधिकृत धर्म, अधर्म और आकाशद्रव्य को निष्क्रिय मान लेने पर जीव और पुद्गल सक्रिय हैं यह बात अर्थापत्ति से प्राप्त हो जाती है। | <span class="GRef">(सर्वार्थसिद्धि/5/7/273/12)</span><span class="SanskritText">अधिकृतानां धर्माधर्माकाशानां निष्क्रियत्वेऽभ्युपगमे जीवपुद्गलानां सक्रियत्वमर्यादापन्नम् । </span>=<span class="HindiText">धर्माधर्मादिक निष्क्रिय है। अधिकृत धर्म, अधर्म और आकाशद्रव्य को निष्क्रिय मान लेने पर जीव और पुद्गल सक्रिय हैं यह बात अर्थापत्ति से प्राप्त हो जाती है। <span class="GRef">( वसुनंदी श्रावकाचार/32 )</span> <span class="GRef">( द्रव्यसंग्रह टीका/ अधि 2 की चूलिका/77)</span> <span class="GRef">( पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/27/57/8) </span>।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> (प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/129) </span><span class="SanskritText">क्रियाभाववत्त्वेन केवलभाववत्त्वेन च द्रव्यस्यास्ति विशेष:। तत्र भाववंतौ क्रियावंतौ च पुद्गलजीवौ परिणामाद्भेदसंघाताभ्यां चेत्पद्यमानावतिष्ठमानभज्यमानत्वात् । शेषद्रव्याणि तु भाववंत्येव परिणामादेवोत्पद्यमानावतिष्ठमानभज्यमानत्वादिति निश्चय:। तत्र परिणामलक्षणो भाव:, परिस्पंदनलक्षणा क्रिया। तत्र सर्वद्रव्याणि परिणामस्वभावत्वात् ...भाववंति भवंति। पुद्गलास्तु परिस्पंदस्वभावत्वात् ...क्रियावंतश्च भवंति। तथा जीवा अपि परिस्पंदस्वभावत्वात् ...क्रियावंतश्च भवंति।</span> =<span class="HindiText">क्रिया व भाववान् तथा केवलभाववान् की अपेक्षा द्रव्यों के दो भेद हैं। तहाँ पुद्गल और जीव तो क्रिया व भाव दोनों वाले हैं, क्योंकि परिणाम द्वारा तथा संघात व भेद द्वारा दोनों प्रकार से उनके उत्पाद, व्यय व स्थिति होती हैं और शेष द्रव्य केवल भाववाले ही हैं क्योंकि केवल परिणाम द्वारा ही उनके उत्पादादि होते हैं। भाव का लक्षण परिणाममात्र है और क्रिया का लक्षण परिस्पंदन। समस्त ही द्रव्य भाव वाले हैं, क्योंकि परिणाम स्वभावी है। पुद्गल क्रियावान् भी होते हैं, क्योंकि परिस्पंदन स्वभाव वाले हैं। तथा जीव भी क्रियावान् भी होते हैं, क्योंकि वे भी परिस्पंदन स्वभाव वाले हैं। | <span class="GRef"> (प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/129) </span><span class="SanskritText">क्रियाभाववत्त्वेन केवलभाववत्त्वेन च द्रव्यस्यास्ति विशेष:। तत्र भाववंतौ क्रियावंतौ च पुद्गलजीवौ परिणामाद्भेदसंघाताभ्यां चेत्पद्यमानावतिष्ठमानभज्यमानत्वात् । शेषद्रव्याणि तु भाववंत्येव परिणामादेवोत्पद्यमानावतिष्ठमानभज्यमानत्वादिति निश्चय:। तत्र परिणामलक्षणो भाव:, परिस्पंदनलक्षणा क्रिया। तत्र सर्वद्रव्याणि परिणामस्वभावत्वात् ...भाववंति भवंति। पुद्गलास्तु परिस्पंदस्वभावत्वात् ...क्रियावंतश्च भवंति। तथा जीवा अपि परिस्पंदस्वभावत्वात् ...क्रियावंतश्च भवंति।</span> =<span class="HindiText">क्रिया व भाववान् तथा केवलभाववान् की अपेक्षा द्रव्यों के दो भेद हैं। तहाँ पुद्गल और जीव तो क्रिया व भाव दोनों वाले हैं, क्योंकि परिणाम द्वारा तथा संघात व भेद द्वारा दोनों प्रकार से उनके उत्पाद, व्यय व स्थिति होती हैं और शेष द्रव्य केवल भाववाले ही हैं क्योंकि केवल परिणाम द्वारा ही उनके उत्पादादि होते हैं। भाव का लक्षण परिणाममात्र है और क्रिया का लक्षण परिस्पंदन। समस्त ही द्रव्य भाव वाले हैं, क्योंकि परिणाम स्वभावी है। पुद्गल क्रियावान् भी होते हैं, क्योंकि परिस्पंदन स्वभाव वाले हैं। तथा जीव भी क्रियावान् भी होते हैं, क्योंकि वे भी परिस्पंदन स्वभाव वाले हैं। <span class="GRef">( पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/25 )</span>।</span><br /> | ||
<span class="GRef">(गोम्मटसार जीवकांड/566/1012) </span><span class="PrakritGatha">गदिठाणोग्गहकिरिया जीवाणं पुग्गलाणमेव हवे। धम्मतिये ण हि किरिया मुक्खा पुण साधगा होंति।566।</span> <span class="HindiText">गति, स्थिति और अवगाहन ये तीन क्रिया जीव और पुद्गल के ही पाइये हैं। बहुरि धर्म अधर्म आकाशविषै ये क्रिया नाहीं हैं। बहुरि वे तीनों द्रव्य उन क्रियाओं के केवल साधक हैं।</span><br /> | <span class="GRef">(गोम्मटसार जीवकांड/566/1012) </span><span class="PrakritGatha">गदिठाणोग्गहकिरिया जीवाणं पुग्गलाणमेव हवे। धम्मतिये ण हि किरिया मुक्खा पुण साधगा होंति।566।</span> <span class="HindiText">गति, स्थिति और अवगाहन ये तीन क्रिया जीव और पुद्गल के ही पाइये हैं। बहुरि धर्म अधर्म आकाशविषै ये क्रिया नाहीं हैं। बहुरि वे तीनों द्रव्य उन क्रियाओं के केवल साधक हैं।</span><br /> | ||
<span class="GRef">(पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/27/57/9)</span><span class="SanskritText"> क्रियावंतौ जीवपुद्गलौ धर्माधर्माकाशकालद्रव्याणि पुनर्निष्क्रियाणि। </span>=<span class="HindiText">जीव और पुद्गल ये दो द्रव्य क्रियावान् हैं। धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये चारों निष्क्रिय हैं। | <span class="GRef">(पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/27/57/9)</span><span class="SanskritText"> क्रियावंतौ जीवपुद्गलौ धर्माधर्माकाशकालद्रव्याणि पुनर्निष्क्रियाणि। </span>=<span class="HindiText">जीव और पुद्गल ये दो द्रव्य क्रियावान् हैं। धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये चारों निष्क्रिय हैं। <span class="GRef">( पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/133 )</span>।<br /> | ||
देखें [[ जीव#3.8 | जीव - 3.8]] (असर्वगत होने के कारण जीव क्रियावान् है; जैसे कि पृथिवी, जल आदि असर्वगत पदार्थ)।<br> | देखें [[ जीव#3.8 | जीव - 3.8]] (असर्वगत होने के कारण जीव क्रियावान् है; जैसे कि पृथिवी, जल आदि असर्वगत पदार्थ)।<br> | ||
Latest revision as of 22:14, 17 November 2023
क्रियवान अक्रियवान की अपेक्षा द्रव्यों का विभाग।
(तत्त्वार्थसूत्र/5/7) निष्क्रियाणि च/7/ (सर्वार्थसिद्धि/5/7/273/12)अधिकृतानां धर्माधर्माकाशानां निष्क्रियत्वेऽभ्युपगमे जीवपुद्गलानां सक्रियत्वमर्यादापन्नम् । =धर्माधर्मादिक निष्क्रिय है। अधिकृत धर्म, अधर्म और आकाशद्रव्य को निष्क्रिय मान लेने पर जीव और पुद्गल सक्रिय हैं यह बात अर्थापत्ति से प्राप्त हो जाती है। ( वसुनंदी श्रावकाचार/32 ) ( द्रव्यसंग्रह टीका/ अधि 2 की चूलिका/77) ( पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/27/57/8) ।
(प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/129) क्रियाभाववत्त्वेन केवलभाववत्त्वेन च द्रव्यस्यास्ति विशेष:। तत्र भाववंतौ क्रियावंतौ च पुद्गलजीवौ परिणामाद्भेदसंघाताभ्यां चेत्पद्यमानावतिष्ठमानभज्यमानत्वात् । शेषद्रव्याणि तु भाववंत्येव परिणामादेवोत्पद्यमानावतिष्ठमानभज्यमानत्वादिति निश्चय:। तत्र परिणामलक्षणो भाव:, परिस्पंदनलक्षणा क्रिया। तत्र सर्वद्रव्याणि परिणामस्वभावत्वात् ...भाववंति भवंति। पुद्गलास्तु परिस्पंदस्वभावत्वात् ...क्रियावंतश्च भवंति। तथा जीवा अपि परिस्पंदस्वभावत्वात् ...क्रियावंतश्च भवंति। =क्रिया व भाववान् तथा केवलभाववान् की अपेक्षा द्रव्यों के दो भेद हैं। तहाँ पुद्गल और जीव तो क्रिया व भाव दोनों वाले हैं, क्योंकि परिणाम द्वारा तथा संघात व भेद द्वारा दोनों प्रकार से उनके उत्पाद, व्यय व स्थिति होती हैं और शेष द्रव्य केवल भाववाले ही हैं क्योंकि केवल परिणाम द्वारा ही उनके उत्पादादि होते हैं। भाव का लक्षण परिणाममात्र है और क्रिया का लक्षण परिस्पंदन। समस्त ही द्रव्य भाव वाले हैं, क्योंकि परिणाम स्वभावी है। पुद्गल क्रियावान् भी होते हैं, क्योंकि परिस्पंदन स्वभाव वाले हैं। तथा जीव भी क्रियावान् भी होते हैं, क्योंकि वे भी परिस्पंदन स्वभाव वाले हैं। ( पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/25 )।
(गोम्मटसार जीवकांड/566/1012) गदिठाणोग्गहकिरिया जीवाणं पुग्गलाणमेव हवे। धम्मतिये ण हि किरिया मुक्खा पुण साधगा होंति।566। गति, स्थिति और अवगाहन ये तीन क्रिया जीव और पुद्गल के ही पाइये हैं। बहुरि धर्म अधर्म आकाशविषै ये क्रिया नाहीं हैं। बहुरि वे तीनों द्रव्य उन क्रियाओं के केवल साधक हैं।
(पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/27/57/9) क्रियावंतौ जीवपुद्गलौ धर्माधर्माकाशकालद्रव्याणि पुनर्निष्क्रियाणि। =जीव और पुद्गल ये दो द्रव्य क्रियावान् हैं। धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये चारों निष्क्रिय हैं। ( पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/133 )।
देखें जीव - 3.8 (असर्वगत होने के कारण जीव क्रियावान् है; जैसे कि पृथिवी, जल आदि असर्वगत पदार्थ)।
- देखें द्रव्य - 3।