अभिन्नपूर्वी: Difference between revisions
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<p>अभिन्न दश पूर्वी व अभिन्न चतुर्दश पूर्वी। -देखें [[ श्रुतकेवली ]]।</p> | <p><span class="GRef"> धवला 9/4,1,12/69/5;70/1 </span><span class="PrakritText">एत्थ दसपुव्विणो भिण्णाभिण्णभेएण दुविहा होंति। तत्थ एक्कारसंगाणि पढिदूण पुणो परियम्म-सुत्त-पढमाणियोग-पुव्वगयचूलिका त्ति पंचाहियारणिद्धाद्धिट्ठिवादे पढिज्जमाणे उप्पादपुव्वमादिं कादूण पढंत्ताणं दसपुव्वीए विज्जाणुपवादे समत्ते रोहिणीआदिपंचसयमहाविज्जाओ अंगुट्ठपसेणादि सत्तसयदहरविज्जाहिं अणुगयाओ किं भयवं आणवेदि त्ति ढुक्कंति। एवं ढुक्काणं सव्वविज्जाणं जो लोभं गच्छदि सो भिण्णदसपुव्वी। जो ण तासु लोभं करेदि कम्मक्खयत्थी होंतो सो अभिण्णदसपुव्वी णाम (69/5)। ण च तेसिं (भिण्णदसपुव्वीणं) जिणत्तमत्थि, भग्गमहव्वएसु जिणत्ताणुववत्तीदो।</span> =<span class="HindiText">यह भिन्न और अभिन्न के भेद से दशपूर्वी दो प्रकार हैं। उनमें 11 अंगों को पढ़कर पश्चात् परिकर्म सूत्र, प्रथमानुयोग, पूर्वगत और चूलिका इन पाँच अधिकारों में निबद्ध दृष्टिवाद के पढ़ते सम उत्पाद पूर्व को आदि करके पढ़ने वाले के दशमपूर्व विद्यानुवाद के समाप्त होने पर अंगुष्ठ प्रसेनादि सात सौ क्षुद्र विद्याओं से अनुगत रोहिणी आदि पाँच सौ महाविद्याएँ ‘भगवान् क्या आज्ञा देते हैं’ ऐसा कहकर उपस्थित होती हैं। इस प्रकार उपस्थित हुई सब विद्याओं के लोभ को प्राप्त होता है वह भिन्न-दशपूर्वी है। किंतु जो कर्म क्षय का अभिलाषी होकर उनमें लोभ नहीं करता है वह '''अभिन्नदशपूर्वी''' कहलाता है। भिन्नदशपूर्वियों के जिनत्व नहीं हैं, क्योंकि जिनके महाव्रत नष्ट हो चुके हैं उनमें जिनत्व घटित नहीं होता। <span class="GRef">( भगवती आराधना / विजयोदया टीका/34/125/14 )</span>।</span></p> | ||
<p class="HindiText"> अभिन्न दश पूर्वी व अभिन्न चतुर्दश पूर्वी। -देखें [[ श्रुतकेवली ]]।</p> | |||
Latest revision as of 22:15, 17 November 2023
धवला 9/4,1,12/69/5;70/1 एत्थ दसपुव्विणो भिण्णाभिण्णभेएण दुविहा होंति। तत्थ एक्कारसंगाणि पढिदूण पुणो परियम्म-सुत्त-पढमाणियोग-पुव्वगयचूलिका त्ति पंचाहियारणिद्धाद्धिट्ठिवादे पढिज्जमाणे उप्पादपुव्वमादिं कादूण पढंत्ताणं दसपुव्वीए विज्जाणुपवादे समत्ते रोहिणीआदिपंचसयमहाविज्जाओ अंगुट्ठपसेणादि सत्तसयदहरविज्जाहिं अणुगयाओ किं भयवं आणवेदि त्ति ढुक्कंति। एवं ढुक्काणं सव्वविज्जाणं जो लोभं गच्छदि सो भिण्णदसपुव्वी। जो ण तासु लोभं करेदि कम्मक्खयत्थी होंतो सो अभिण्णदसपुव्वी णाम (69/5)। ण च तेसिं (भिण्णदसपुव्वीणं) जिणत्तमत्थि, भग्गमहव्वएसु जिणत्ताणुववत्तीदो। =यह भिन्न और अभिन्न के भेद से दशपूर्वी दो प्रकार हैं। उनमें 11 अंगों को पढ़कर पश्चात् परिकर्म सूत्र, प्रथमानुयोग, पूर्वगत और चूलिका इन पाँच अधिकारों में निबद्ध दृष्टिवाद के पढ़ते सम उत्पाद पूर्व को आदि करके पढ़ने वाले के दशमपूर्व विद्यानुवाद के समाप्त होने पर अंगुष्ठ प्रसेनादि सात सौ क्षुद्र विद्याओं से अनुगत रोहिणी आदि पाँच सौ महाविद्याएँ ‘भगवान् क्या आज्ञा देते हैं’ ऐसा कहकर उपस्थित होती हैं। इस प्रकार उपस्थित हुई सब विद्याओं के लोभ को प्राप्त होता है वह भिन्न-दशपूर्वी है। किंतु जो कर्म क्षय का अभिलाषी होकर उनमें लोभ नहीं करता है वह अभिन्नदशपूर्वी कहलाता है। भिन्नदशपूर्वियों के जिनत्व नहीं हैं, क्योंकि जिनके महाव्रत नष्ट हो चुके हैं उनमें जिनत्व घटित नहीं होता। ( भगवती आराधना / विजयोदया टीका/34/125/14 )।
अभिन्न दश पूर्वी व अभिन्न चतुर्दश पूर्वी। -देखें श्रुतकेवली ।