आनुपूर्वी नामकर्म: Difference between revisions
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< | <span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि 8/11/390/13</span> <p class="SanskritText">पूर्वशरीरकाराविनाशो यस्योदयाद् भवति तदानुपूर्व्यनाम। </p> | ||
<p class=" | <p class="HindiText">= जिसके उदय से पूर्व शरीर का आकार विनाश नहीं होता, वह आनुपूर्वी नामकर्म है। </p> | ||
( | <p><span class="GRef">(राजवार्तिक अध्याय 8/11/11/577)</span> <span class="GRef">( गोम्मट्टसार कर्मकांड / जीव तत्त्व प्रदीपिका टीका गाथा 33/29/16)</span></p> | ||
< | <span class="GRef">धवला पुस्तक 6/1,9-1,28/56/2</span> <p class=" PrakritText ">पुव्वुत्तरसरीराणमंतरे एग दो तिण्णि समए वट्टमाणजीवस्स जस्स कम्मस्स उदएण जीवपदेसाणं विसिट्ठो संठाणविसेसो होदि, तस्स आणुपुव्वि त्ति सण्णा।...इच्छिदगदिगमणं...आणुपुव्वीदो। </p> | ||
<p class=" | <p class="HindiText">= पूर्व और उत्तर शरीरों के अंतरालवर्ती एक, दो और तीन समय में वर्तमान जीव के जिस कर्म के उदय से जीव प्रदेशों का विशिष्ट आकार-विशेष होता है, उस कर्म की `आनुपूर्वी' यह संज्ञा है।...आनुपूर्वी नामकर्म से इच्छित गति में गमन होता है।</p> | ||
< | <p class="HindiText"><b>2. आनुपूर्वी नामकर्म के भेद</b></p> | ||
< | <span class="GRef">षट्खंडागम पुस्तक 6/1,9-1/सूत्र 41/76</span> <p class=" PrakritText ">जं आणुपुव्वीणामकम्मं तं चउविहं, णिरयगदिपाओग्गाणुपुव्वीणामं तिरिक्खगदिपाओग्गाणुपुव्वीणामं मणुसगदिपाओग्गाणुपुव्वीणामं देवगदिपाओगगणुपुव्वीणामं चेदि।</p> | ||
<p class=" | <p class="HindiText">= जो आनुपूर्वी नामकर्म है वह चार प्रकार का है - नरकगति-प्रायोग्यानुपूर्वी नामकर्म, तिर्यग्गति-प्रायोग्यानुपूर्वी नामकर्म, मनुष्यगति-प्रायोग्यानुपूर्वी नामकर्म और देवगति-प्रायोग्यानुपूर्वी नामकर्म ॥41॥</p> | ||
( | <p class="HindiText"><span class="GRef">( सर्वार्थसिद्धि अध्याय 8/11/391/1)</span>, <span class="GRef">(पंचसंग्रह / प्राकृत / अधिकार 2/4)</span>, <span class="GRef">( धवला पुस्तक 13/5,5,114/371)</span>, <span class="GRef">(राजवार्तिक अध्याय 8/11/11/5/577/22)</span>, <span class="GRef">(गोम्मट्टसार कर्मकांड / जीव तत्त्व प्रदीपिका टीका गाथा 32/26/2)</span> - देखें [[ नामकर्म ]](आनुपूर्वी कर्म के असंख्याते भेद संभव हैं)।</p> | ||
< | <p class="HindiText"><b>3. विग्रहगति-गत जीव के संस्थान में आनुपूर्वी का स्थान</b></p> | ||
< | <span class="GRef">राजवार्तिक अध्याय 8/11/11/577/25</span> <p class="SanskritText">ननु च तन्निर्माणनामकर्मसाध्यं फलं नानुपूर्व्यनामोदयकृतम्। नैषदोषः; पूर्वायुरुच्छेदसमकाल एव पूर्वशरीरनिवृत्तौ निर्माणनामोदयो निवर्तते, तस्मिन्निवृत्तेऽष्टविधकर्म तैजसकार्माणशरीरसंबंधित आत्मनः पूर्वशरीरसंस्थानाविनाशकारणमानुपूर्व्यनामोदयसुपैति। तस्य कालो विग्रहगतौ जघन्येनैकसमयः, उत्कर्षेण त्रयः समयाः। ऋजुगतौ तु पूर्वशरीराकारविनाशे सति उत्तरशरीरयोग्यपुद्गलग्रहणान्निर्माणनामकर्मोदयव्यापारः।</p> | ||
<p class=" | <p class="HindiText">= <b>प्रश्न</b> - (विग्रहगति में आकार बनाना) यह निर्माण नामकर्म का कार्य है आनुपूर्वी नामकर्मका नहीं? <b>उत्तर</b> - इसमें कोई दोष नहीं है, क्योंकि पूर्व शरीर के नष्ट होते ही निर्माण नामकर्म का उदय समाप्त हो जाता है। उनके नष्ट होने पर भी आठ कर्मो का पिंड कार्माण शरीर और तैजस शरीर से संबंध रखने वाले आत्म प्रदेशों का आकार विग्रहगति में पूर्व शरीर के आकार बना रहता है। विग्रहगति में इसका काल कम से कम एक समय और अधिक से अधिक तीन समय है। हाँ, ऋजुगति में पूर्व शरीर के आकार का विनाश होने पर तुरंत उत्तर शरीर के योग्य पुद्गलों का ग्रहण हो जाता है, अतः वहाँ निर्माण नामकर्म का कार्य ही है।</p> | ||
< | <span class="GRef">धवला पुस्तक 6/1,9-1,28/56/4</span> <p class=" PrakritText ">संठाणणामकम्मादो संठाणं होदि त्ति आणुपुव्विपरियप्पणा णिरत्थिया चे ण, तस्स सरीरगहिदपढमसमयादो उवरि उदयमागच्छमाणस्स विग्गहकाले उदयाभावा। जदि आणुपुव्विकम्मं ण होज्ज तो विग्गहकाले अणिदसंठाणो जीवो होज्ज। </p> | ||
<p class=" | <p class="HindiText">= <b>प्रश्न</b> - संस्थान नामकर्म से आकार-विशेष उत्पन्न होता है, इसलिए आनुपूर्वी की परिकल्पना निरर्थक है? <b>उत्तर</b> - नहीं, क्योंकि, शरीर ग्रहण करने के प्रथम समय से ऊपर उदय में आनेवाले उस संस्थान नामकर्म का विग्रहगति के काल में उदय का अभाव पाया जाता है। यदि आनुपूर्वी नामकर्म न हो, तो विग्रहगति के काल में जीव अनियत संस्थान वाला हो जायेगा।</p> | ||
( | <p><span class="GRef">( धवला पुस्तक 13/5,5,116/372/2)</span></p> | ||
< | <p class="HindiText"><b>4. विग्रहगति-गत जीव के गमन में आनुपूर्वी का स्थान</b></p> | ||
< | <span class="GRef">धवला पुस्तक 6/1,9-1,28/56/7</span><p class=" PrakritText "> पुव्वसरीरं छड्डिय सरीरंतरमघेतूण ट्ठिदजीवस्स इच्छिदगतिगमणं कुदो होदि। आणुपुव्वीदो। विहायगदीदो किण्ण होदि। ण, तस्स तिण्हं सरीराणमुदएण विणा उदयाभावा। आणुपुव्वी संठाणम्हि वावदा कधं गमणहेऊ होदि त्ति चे ण, तिस्से दोसु वि कज्जेसु वावारे विरोहाभावा। अचत्तसरीरस्स जीवस्स विग्गहगईए उज्जुगईए वा जं गमण तं कस्स फलं। ण, तस्स पुव्वखेत्तपरिच्चायाभावेण गमणाभावा। जीवपदेसाणं जा पसरो सो ण णिक्कारणो, तस्स आउअसंतफलत्तादो।</p> | ||
<p class=" | <p class="HindiText">= <b>प्रश्न</b> - पूर्व शरीर को छोड़कर दूसरे शरीर को नहीं ग्रहण करके स्थित जीव का इच्छित गति में गमन किस कर्म से होता है। <b>उत्तर</b> - आनुपूर्वी नामकर्म से इच्छित गति में गमन होता है। <b>प्रश्न</b> - विहायोगति नामकर्म से इच्छित गति में गमन क्यों नहीं होता है? <b>उत्तर</b> - नहीं, क्योंकि विहायोगति नामकर्म का औदारिकादि तीनों शरीरों के उदय के बिना उदय नहीं होता है। <b>प्रश्न</b> - आकार विशेष को बनाये रखने में व्यापार करने वाली आनुपूर्वी इच्छित गति में गमन का कारण कैसे होती है? <b>उत्तर</b> - नहीं, क्योंकि आनुपूर्वी का दोनों भी कार्यों के व्यापार में विरोध का अभाव है। अर्थात् विग्रहगति में आकार विशेष को बनाये रखना और इच्छितगति में गमन कराना, ये दोनों आनुपूर्वी नामकर्म के कार्य हैं। <b>प्रश्न</b> - पूर्व शरीर को न छोड़ते हुए जीव के विग्रहगति में अथवा ऋजुगति में (मरण-समुद्घात के समय) जो गमन होता है वह किस कर्म का फल है? <b>उत्तर</b> - नहीं, क्योंकि, पूर्व शरीर को नहीं छोड़ने वाले उस जीव के पूर्व क्षेत्र के परित्याग के अभाव में गमन का अभाव है। पूर्व शरीर को नहीं छोड़ने पर भी जीव प्रदेशों का जो प्रसार होता है वह निष्कारण नहीं है, क्योंकि यह आगामी भव संबंधी आयुकर्म के सत्त्व का फल है।</p> | ||
< | <p class="HindiText">• आनुपूर्वी प्रकृति का बंध उदय व सत्त्व प्ररूपणा - देखें [[ वह वह नाम ]]।</p> | ||
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Latest revision as of 22:16, 17 November 2023
सर्वार्थसिद्धि 8/11/390/13
पूर्वशरीरकाराविनाशो यस्योदयाद् भवति तदानुपूर्व्यनाम।
= जिसके उदय से पूर्व शरीर का आकार विनाश नहीं होता, वह आनुपूर्वी नामकर्म है।
(राजवार्तिक अध्याय 8/11/11/577) ( गोम्मट्टसार कर्मकांड / जीव तत्त्व प्रदीपिका टीका गाथा 33/29/16)
धवला पुस्तक 6/1,9-1,28/56/2
पुव्वुत्तरसरीराणमंतरे एग दो तिण्णि समए वट्टमाणजीवस्स जस्स कम्मस्स उदएण जीवपदेसाणं विसिट्ठो संठाणविसेसो होदि, तस्स आणुपुव्वि त्ति सण्णा।...इच्छिदगदिगमणं...आणुपुव्वीदो।
= पूर्व और उत्तर शरीरों के अंतरालवर्ती एक, दो और तीन समय में वर्तमान जीव के जिस कर्म के उदय से जीव प्रदेशों का विशिष्ट आकार-विशेष होता है, उस कर्म की `आनुपूर्वी' यह संज्ञा है।...आनुपूर्वी नामकर्म से इच्छित गति में गमन होता है।
2. आनुपूर्वी नामकर्म के भेद
षट्खंडागम पुस्तक 6/1,9-1/सूत्र 41/76
जं आणुपुव्वीणामकम्मं तं चउविहं, णिरयगदिपाओग्गाणुपुव्वीणामं तिरिक्खगदिपाओग्गाणुपुव्वीणामं मणुसगदिपाओग्गाणुपुव्वीणामं देवगदिपाओगगणुपुव्वीणामं चेदि।
= जो आनुपूर्वी नामकर्म है वह चार प्रकार का है - नरकगति-प्रायोग्यानुपूर्वी नामकर्म, तिर्यग्गति-प्रायोग्यानुपूर्वी नामकर्म, मनुष्यगति-प्रायोग्यानुपूर्वी नामकर्म और देवगति-प्रायोग्यानुपूर्वी नामकर्म ॥41॥
( सर्वार्थसिद्धि अध्याय 8/11/391/1), (पंचसंग्रह / प्राकृत / अधिकार 2/4), ( धवला पुस्तक 13/5,5,114/371), (राजवार्तिक अध्याय 8/11/11/5/577/22), (गोम्मट्टसार कर्मकांड / जीव तत्त्व प्रदीपिका टीका गाथा 32/26/2) - देखें नामकर्म (आनुपूर्वी कर्म के असंख्याते भेद संभव हैं)।
3. विग्रहगति-गत जीव के संस्थान में आनुपूर्वी का स्थान
राजवार्तिक अध्याय 8/11/11/577/25
ननु च तन्निर्माणनामकर्मसाध्यं फलं नानुपूर्व्यनामोदयकृतम्। नैषदोषः; पूर्वायुरुच्छेदसमकाल एव पूर्वशरीरनिवृत्तौ निर्माणनामोदयो निवर्तते, तस्मिन्निवृत्तेऽष्टविधकर्म तैजसकार्माणशरीरसंबंधित आत्मनः पूर्वशरीरसंस्थानाविनाशकारणमानुपूर्व्यनामोदयसुपैति। तस्य कालो विग्रहगतौ जघन्येनैकसमयः, उत्कर्षेण त्रयः समयाः। ऋजुगतौ तु पूर्वशरीराकारविनाशे सति उत्तरशरीरयोग्यपुद्गलग्रहणान्निर्माणनामकर्मोदयव्यापारः।
= प्रश्न - (विग्रहगति में आकार बनाना) यह निर्माण नामकर्म का कार्य है आनुपूर्वी नामकर्मका नहीं? उत्तर - इसमें कोई दोष नहीं है, क्योंकि पूर्व शरीर के नष्ट होते ही निर्माण नामकर्म का उदय समाप्त हो जाता है। उनके नष्ट होने पर भी आठ कर्मो का पिंड कार्माण शरीर और तैजस शरीर से संबंध रखने वाले आत्म प्रदेशों का आकार विग्रहगति में पूर्व शरीर के आकार बना रहता है। विग्रहगति में इसका काल कम से कम एक समय और अधिक से अधिक तीन समय है। हाँ, ऋजुगति में पूर्व शरीर के आकार का विनाश होने पर तुरंत उत्तर शरीर के योग्य पुद्गलों का ग्रहण हो जाता है, अतः वहाँ निर्माण नामकर्म का कार्य ही है।
धवला पुस्तक 6/1,9-1,28/56/4
संठाणणामकम्मादो संठाणं होदि त्ति आणुपुव्विपरियप्पणा णिरत्थिया चे ण, तस्स सरीरगहिदपढमसमयादो उवरि उदयमागच्छमाणस्स विग्गहकाले उदयाभावा। जदि आणुपुव्विकम्मं ण होज्ज तो विग्गहकाले अणिदसंठाणो जीवो होज्ज।
= प्रश्न - संस्थान नामकर्म से आकार-विशेष उत्पन्न होता है, इसलिए आनुपूर्वी की परिकल्पना निरर्थक है? उत्तर - नहीं, क्योंकि, शरीर ग्रहण करने के प्रथम समय से ऊपर उदय में आनेवाले उस संस्थान नामकर्म का विग्रहगति के काल में उदय का अभाव पाया जाता है। यदि आनुपूर्वी नामकर्म न हो, तो विग्रहगति के काल में जीव अनियत संस्थान वाला हो जायेगा।
( धवला पुस्तक 13/5,5,116/372/2)
4. विग्रहगति-गत जीव के गमन में आनुपूर्वी का स्थान
धवला पुस्तक 6/1,9-1,28/56/7
पुव्वसरीरं छड्डिय सरीरंतरमघेतूण ट्ठिदजीवस्स इच्छिदगतिगमणं कुदो होदि। आणुपुव्वीदो। विहायगदीदो किण्ण होदि। ण, तस्स तिण्हं सरीराणमुदएण विणा उदयाभावा। आणुपुव्वी संठाणम्हि वावदा कधं गमणहेऊ होदि त्ति चे ण, तिस्से दोसु वि कज्जेसु वावारे विरोहाभावा। अचत्तसरीरस्स जीवस्स विग्गहगईए उज्जुगईए वा जं गमण तं कस्स फलं। ण, तस्स पुव्वखेत्तपरिच्चायाभावेण गमणाभावा। जीवपदेसाणं जा पसरो सो ण णिक्कारणो, तस्स आउअसंतफलत्तादो।
= प्रश्न - पूर्व शरीर को छोड़कर दूसरे शरीर को नहीं ग्रहण करके स्थित जीव का इच्छित गति में गमन किस कर्म से होता है। उत्तर - आनुपूर्वी नामकर्म से इच्छित गति में गमन होता है। प्रश्न - विहायोगति नामकर्म से इच्छित गति में गमन क्यों नहीं होता है? उत्तर - नहीं, क्योंकि विहायोगति नामकर्म का औदारिकादि तीनों शरीरों के उदय के बिना उदय नहीं होता है। प्रश्न - आकार विशेष को बनाये रखने में व्यापार करने वाली आनुपूर्वी इच्छित गति में गमन का कारण कैसे होती है? उत्तर - नहीं, क्योंकि आनुपूर्वी का दोनों भी कार्यों के व्यापार में विरोध का अभाव है। अर्थात् विग्रहगति में आकार विशेष को बनाये रखना और इच्छितगति में गमन कराना, ये दोनों आनुपूर्वी नामकर्म के कार्य हैं। प्रश्न - पूर्व शरीर को न छोड़ते हुए जीव के विग्रहगति में अथवा ऋजुगति में (मरण-समुद्घात के समय) जो गमन होता है वह किस कर्म का फल है? उत्तर - नहीं, क्योंकि, पूर्व शरीर को नहीं छोड़ने वाले उस जीव के पूर्व क्षेत्र के परित्याग के अभाव में गमन का अभाव है। पूर्व शरीर को नहीं छोड़ने पर भी जीव प्रदेशों का जो प्रसार होता है वह निष्कारण नहीं है, क्योंकि यह आगामी भव संबंधी आयुकर्म के सत्त्व का फल है।
• आनुपूर्वी प्रकृति का बंध उदय व सत्त्व प्ररूपणा - देखें वह वह नाम ।