घोर गुण ब्रह्मचर्य: Difference between revisions
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<span class="GRef">तिलोयपण्णत्ति अधिकार संख्या ४/१०५८-१०६०</span><p class="PrakritText"> जीए ण होंति मुणिणो खेत्तम्मि वि चोरपहुदिबाधाओ। कालमहाजुद्धादी रिद्धी सघोरब्रह्मचारित्ता ।१५८। उक्कस्स खउवसमे चारित्तावरणमोहकम्मस्स। जा दुस्सिमणं णासइ रिद्धी सा घोरब्रह्मचारित्ता ।१०५९। अथवा-सव्वगुणेहिं अघोरं महेसिणो बह्मसद्दचारित्तं। विप्फुरिदाए जीए रिद्धी साघोरब्रह्मचारित्ता ।१०६०।"</p> <p class="HindiText">= जिस ऋद्धि से मुनि के क्षेत्र में भी चौरादिक की बाधाएँ और काल एवं महायुद्धादि नहीं होते हैं, वह `'''अघोर ब्रह्मचारित्व'''' ऋद्धि है ।१०५८। <span class="GRef">(धवला पुस्तक संख्या ९/४,१,२९/९४/३)</span>; <span class="GRef">(चारित्रसार पृष्ठ संख्या २२३/४)</span> चारित्रमोहनीय का उत्कृष्ट क्षयोपशम होने पर जो ऋद्धि दुःस्वप्न को नष्ट करती है तथा जिस ऋद्धि के आविर्भूत होने पर महर्षिजन सब गुणों के साथ अघोर अर्थात् अविनश्वर ब्रह्मचर्य का आचरण करते हैं वह '''अघोर ब्रह्मचारित्व ऋद्धि''' है ।१०५९-१०६०। ( राजवार्तिक तथा चारित्रसार में इस लक्षण का निर्देश ही '''घोर गुण ब्रह्मचारी''' के लिए किया गया है) <span class="GRef">( राजवार्तिक अध्याय संख्या ३/३६/३/२०३/१६)</span>; <span class="GRef">(चारित्रसार पृष्ठ संख्या २२३/३)</span>।</p> | |||
<p class="HindiText">देखें [[ ऋद्धि#5 | ऋद्धि - 5.4]]।</p> | |||
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Latest revision as of 22:20, 17 November 2023
तिलोयपण्णत्ति अधिकार संख्या ४/१०५८-१०६०
जीए ण होंति मुणिणो खेत्तम्मि वि चोरपहुदिबाधाओ। कालमहाजुद्धादी रिद्धी सघोरब्रह्मचारित्ता ।१५८। उक्कस्स खउवसमे चारित्तावरणमोहकम्मस्स। जा दुस्सिमणं णासइ रिद्धी सा घोरब्रह्मचारित्ता ।१०५९। अथवा-सव्वगुणेहिं अघोरं महेसिणो बह्मसद्दचारित्तं। विप्फुरिदाए जीए रिद्धी साघोरब्रह्मचारित्ता ।१०६०।"
= जिस ऋद्धि से मुनि के क्षेत्र में भी चौरादिक की बाधाएँ और काल एवं महायुद्धादि नहीं होते हैं, वह `अघोर ब्रह्मचारित्व' ऋद्धि है ।१०५८। (धवला पुस्तक संख्या ९/४,१,२९/९४/३); (चारित्रसार पृष्ठ संख्या २२३/४) चारित्रमोहनीय का उत्कृष्ट क्षयोपशम होने पर जो ऋद्धि दुःस्वप्न को नष्ट करती है तथा जिस ऋद्धि के आविर्भूत होने पर महर्षिजन सब गुणों के साथ अघोर अर्थात् अविनश्वर ब्रह्मचर्य का आचरण करते हैं वह अघोर ब्रह्मचारित्व ऋद्धि है ।१०५९-१०६०। ( राजवार्तिक तथा चारित्रसार में इस लक्षण का निर्देश ही घोर गुण ब्रह्मचारी के लिए किया गया है) ( राजवार्तिक अध्याय संख्या ३/३६/३/२०३/१६); (चारित्रसार पृष्ठ संख्या २२३/३)।
देखें ऋद्धि - 5.4।