सामान्य ग्राहक दर्शन: Difference between revisions
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[[सामान्य | <span class="HindiText"><strong> केवल सामान्य ग्राहक दर्शन और केवल विशेषग्राही ज्ञान–ऐसा नहीं है</strong> </span><br> <span class="GRef">धवला 1/1,1,4/146/3</span> <span class="SanskritText"> तर्ह्यस्त्वंतर्बाह्यसामांयग्रहणं दर्शनम्, विशेषग्रहणं ज्ञानमिति चेन्न, सामान्यविशेषात्मकस्य वस्तुनो विक्रमेणोपलंभात् । सीऽप्यवस्तु न कश्चिद्विरोध इति चेन्न, ‘हंदि दुवे णत्थि उवजोगा’ इत्यनेन सह विरोधात् । अपि च न ज्ञानं प्रमाणं सामान्यव्यतिरिक्तविशेषस्यार्थक्रियाकर्तृत्वं प्रत्यसमर्थत्वतोऽवस्तुनो ग्रहणात् । न तस्य ग्रहणमपि सामान्यव्यतिरिक्ते विशेषे ह्यवस्तुनि कर्तृकर्मरूपाभावात् । तत् एव न दर्शनमपि प्रमाणम् । </span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–यदि ऐसा है तो (यदि दर्शन द्वारा प्रतिनियत घट पट आदि पदार्थों को नहीं जानता तो) अंतरंग सामान्य और बहिरंग सामान्य को ग्रहण करने वाला दर्शन है, और अंतर्बाह्य विशेष को ग्रहण करने वाला ज्ञान है, ऐसा मान लेना चाहिए ? <strong>उत्तर</strong>–ऐसा नहीं है, क्योंकि सामान्य और विशेषात्मक वस्तु का क्रम के बिना ही ग्रहण होता है। <strong>प्रश्न</strong>–यदि ऐसा है तो होने दो, क्योंकि क्रम के बिना भी सामान्य व विशेष का ग्रहण मानने में कोई विरोध नहीं है ? <strong>उत्तर</strong>–1. ऐसा नहीं है, क्योंकि, ‘छद्मस्थों के दोनों उपयोग एक साथ नहीं होते हैं’ इस कथन के साथ पूर्वोक्त कथन का विरोध आता है। (इस संबंधी विशेष देखो आगे ‘दर्शन/3’), (<span class="GRef"> धवला 13/5,5,19/208/3)</span>; ( <span class="GRef">धवला 6/1,9-1,16/33/8)</span> 2. दूसरी बात यह है कि सामान्य को छोड़कर केवल विशेष अर्थ क्रिया करने में असमर्थ है। और जो अर्थ क्रिया करने में असमर्थ होता है वह अवस्तु रूप पड़ता है। ( <span class="GRef">कषायपाहुड़ 1/322/351/3)</span> (<span class="GRef"> धवला 1/1,1,4/148/2)</span>; (<span class="GRef">धवला 6/1,9-1,16/33/9)</span>, (देखें [[ सामान्य ]]) 3. उस (अवस्तु) का ग्रहण करने वाला ज्ञान प्रमाण नहीं हो सकता, और केवल विशेष का ग्रहण भी तो नहीं हो सकता है, क्योंकि, सामान्य रहित केवल विशेष में कर्ता कर्म रूप व्यवहार (मैं इसको जानता हूँ ऐसा भेद) नहीं बन सकता है। इस तरह केवल विशेष को ग्रहण करने वाले ज्ञान में प्रमाणता सिद्ध नहीं होने से केवल सामान्य को ग्रहण करने वाले दर्शन को भी प्रमाण नहीं मान सकते हैं। ( <span class="GRef">धवला 6/1,9-1,16/33/10)</span>, ( <span class="GRef">द्रव्यसंग्रह टीका/44/190/8)</span> 4. और इस प्रकार दोनों उपयोगों का ही अभाव प्राप्त होता है। (देखें आगे [[ दर्शन उपयोग 1#4 | दर्शन - 4]]) 5. (द्रव्यार्थिक व पर्यायार्थिक नय के बिना वस्तु का ग्रहण होने में विरोध आता है) </span>( <span class="GRef">धवला 13/5,5,19/208/4)</span> <br> | ||
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Latest revision as of 22:36, 17 November 2023
स्याद्वादमंजरी/1/10/22 सामान्यप्रधानमुपसर्जनीकृतविशेषमर्थग्रहणं दर्शनमुच्यते। तथा प्रधानविशेषमुपसर्जनीकृतसामान्यं च ज्ञानमिति। =सामान्य की मुख्यतापूर्वक विशेष को गौण करके पदार्थ के जानने को दर्शन कहते हैं और विशेष की मुख्यतापूर्वक सामान्य को गौण करके पदार्थ के जानने को ज्ञान कहते हैं।
केवल सामान्य ग्राहक दर्शन और केवल विशेषग्राही ज्ञान–ऐसा नहीं है
धवला 1/1,1,4/146/3 तर्ह्यस्त्वंतर्बाह्यसामांयग्रहणं दर्शनम्, विशेषग्रहणं ज्ञानमिति चेन्न, सामान्यविशेषात्मकस्य वस्तुनो विक्रमेणोपलंभात् । सीऽप्यवस्तु न कश्चिद्विरोध इति चेन्न, ‘हंदि दुवे णत्थि उवजोगा’ इत्यनेन सह विरोधात् । अपि च न ज्ञानं प्रमाणं सामान्यव्यतिरिक्तविशेषस्यार्थक्रियाकर्तृत्वं प्रत्यसमर्थत्वतोऽवस्तुनो ग्रहणात् । न तस्य ग्रहणमपि सामान्यव्यतिरिक्ते विशेषे ह्यवस्तुनि कर्तृकर्मरूपाभावात् । तत् एव न दर्शनमपि प्रमाणम् । =प्रश्न–यदि ऐसा है तो (यदि दर्शन द्वारा प्रतिनियत घट पट आदि पदार्थों को नहीं जानता तो) अंतरंग सामान्य और बहिरंग सामान्य को ग्रहण करने वाला दर्शन है, और अंतर्बाह्य विशेष को ग्रहण करने वाला ज्ञान है, ऐसा मान लेना चाहिए ? उत्तर–ऐसा नहीं है, क्योंकि सामान्य और विशेषात्मक वस्तु का क्रम के बिना ही ग्रहण होता है। प्रश्न–यदि ऐसा है तो होने दो, क्योंकि क्रम के बिना भी सामान्य व विशेष का ग्रहण मानने में कोई विरोध नहीं है ? उत्तर–1. ऐसा नहीं है, क्योंकि, ‘छद्मस्थों के दोनों उपयोग एक साथ नहीं होते हैं’ इस कथन के साथ पूर्वोक्त कथन का विरोध आता है। (इस संबंधी विशेष देखो आगे ‘दर्शन/3’), ( धवला 13/5,5,19/208/3); ( धवला 6/1,9-1,16/33/8) 2. दूसरी बात यह है कि सामान्य को छोड़कर केवल विशेष अर्थ क्रिया करने में असमर्थ है। और जो अर्थ क्रिया करने में असमर्थ होता है वह अवस्तु रूप पड़ता है। ( कषायपाहुड़ 1/322/351/3) ( धवला 1/1,1,4/148/2); (धवला 6/1,9-1,16/33/9), (देखें सामान्य ) 3. उस (अवस्तु) का ग्रहण करने वाला ज्ञान प्रमाण नहीं हो सकता, और केवल विशेष का ग्रहण भी तो नहीं हो सकता है, क्योंकि, सामान्य रहित केवल विशेष में कर्ता कर्म रूप व्यवहार (मैं इसको जानता हूँ ऐसा भेद) नहीं बन सकता है। इस तरह केवल विशेष को ग्रहण करने वाले ज्ञान में प्रमाणता सिद्ध नहीं होने से केवल सामान्य को ग्रहण करने वाले दर्शन को भी प्रमाण नहीं मान सकते हैं। ( धवला 6/1,9-1,16/33/10), ( द्रव्यसंग्रह टीका/44/190/8) 4. और इस प्रकार दोनों उपयोगों का ही अभाव प्राप्त होता है। (देखें आगे दर्शन - 4) 5. (द्रव्यार्थिक व पर्यायार्थिक नय के बिना वस्तु का ग्रहण होने में विरोध आता है) ( धवला 13/5,5,19/208/4)
इस संबंध में विशेष देखो दर्शन - 1।