स्थिर: Difference between revisions
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<span class="GRef"> राजवार्तिक/8/11/34-35/579/22 </span><span class="SanskritText">यदुदयात् दुष्करोपवासादितपस्करणेऽपि अंगोपांगानां स्थिरत्वं जायते तत् स्थिरनाम।34। यदुदयादीषदुपवासादिकरणात् स्वल्पशीतोष्णादिसंबंधाच्च अंगोपांगानि कृशीभवंति तदस्थिरनाम।</span> = <span class="HindiText">जिसके उदय से दुष्कर उपवास आदि तप करने पर अंग-उपांग आदि स्थिर बने रहते हैं, कृश नहीं होते वह स्थिर नामकर्म है। तथा जिससे एक उपवास से या साधारण शीत उष्ण आदि से ही शरीर में अस्थिरता आ जाय, कृश हो जाय वह अस्थिर नामकर्म है।</span></p> | |||
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<span class="GRef"> धवला 13/5,5,101/365/10 </span><span class="PrakritText">जस्स कम्मस्सुदएण रसादीणं सगसरूवेण केत्तियं पि कालमवट्ठाणं होदि तं थिरणामं। जस्स कम्मस्सुदएण रसादीणमुवरिमधादुसरूवेण परिणामो होदि तमथिरणामं।</span> = <span class="HindiText">जिस कर्म के उदय से रसादिक धातुओं का अपने रूप से कितने ही काल तक अवस्थान होता है वह स्थिर नामकर्म है। जिस कर्म के उदय से रसादिकों का आगे की धातुओं स्वरूप से परिणमन होता है वह अस्थिर नामकर्म है। <span class="GRef">( धवला 6/1,9-1,28/63/3 )</span>; <span class="GRef">( गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/33/30/3 )</span>।</span></p> | |||
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<strong>* स्थिर नामकर्म की बंध उदय सत्त्व प्ररूपणाएँ व तत्संबंधी शंका समाधान</strong>-देखें [[ वह वह नाम ]]।</p> | <strong>* स्थिर नामकर्म की बंध उदय सत्त्व प्ररूपणाएँ व तत्संबंधी शंका समाधान</strong>-देखें [[ वह वह नाम ]]।</p> |
Latest revision as of 22:36, 17 November 2023
कुंडल पर्वतस्थ अंक कूट का स्वामी देव-देखें लोक - 5.12।
1. स्थिर व अस्थिर नामकर्म का लक्षण
सर्वार्थसिद्धि/8/11/392/5 स्थिरभावस्य निर्वर्तकं स्थिरनाम। तद्विपरीतमस्थिरनाम। = स्थिर भाव का निर्वर्तक कर्म स्थिर नामकर्म है, इससे विपरीत अस्थिर नामकर्म है।
राजवार्तिक/8/11/34-35/579/22 यदुदयात् दुष्करोपवासादितपस्करणेऽपि अंगोपांगानां स्थिरत्वं जायते तत् स्थिरनाम।34। यदुदयादीषदुपवासादिकरणात् स्वल्पशीतोष्णादिसंबंधाच्च अंगोपांगानि कृशीभवंति तदस्थिरनाम। = जिसके उदय से दुष्कर उपवास आदि तप करने पर अंग-उपांग आदि स्थिर बने रहते हैं, कृश नहीं होते वह स्थिर नामकर्म है। तथा जिससे एक उपवास से या साधारण शीत उष्ण आदि से ही शरीर में अस्थिरता आ जाय, कृश हो जाय वह अस्थिर नामकर्म है।
धवला 13/5,5,101/365/10 जस्स कम्मस्सुदएण रसादीणं सगसरूवेण केत्तियं पि कालमवट्ठाणं होदि तं थिरणामं। जस्स कम्मस्सुदएण रसादीणमुवरिमधादुसरूवेण परिणामो होदि तमथिरणामं। = जिस कर्म के उदय से रसादिक धातुओं का अपने रूप से कितने ही काल तक अवस्थान होता है वह स्थिर नामकर्म है। जिस कर्म के उदय से रसादिकों का आगे की धातुओं स्वरूप से परिणमन होता है वह अस्थिर नामकर्म है। ( धवला 6/1,9-1,28/63/3 ); ( गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/33/30/3 )।
2. सप्त धातु रहित विग्रह गति में स्थिर नामकर्म का क्या कार्य है
धवला 6/1,9-1,28/64/6 सत्तधाउविरहिदविग्गहगदीए वि थिराथिराणमुदयदंसणादो णेदासिं तत्थ वावारो त्ति णासंकणिज्जं, सजोगिकेवलिपरघादस्सेव तत्थ अव्वत्तोदएण अवट्ठाणादो। = प्रश्न-सप्त धातुओं से रहित विग्रहगति में भी स्थिर और अस्थिर प्रकृतियों का उदय देखा जाता है, इसलिए इनका वहाँ पर व्यापार नहीं मानना चाहिए ? उत्तर-ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि सयोगकेवली भगवान् में परघात प्रकृति के समान विग्रहगति में उन प्रकृतियों का अव्यक्त उदयरूप से अवस्थान रहता है।
* स्थिर नामकर्म की बंध उदय सत्त्व प्ररूपणाएँ व तत्संबंधी शंका समाधान-देखें वह वह नाम ।