अगृहीत चेटिका: Difference between revisions
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<span class="GRef">(लाटी संहिता/2/178-206 )</span> | |||
<p class="SanskritText">देवशास्त्रगुरून्नत्वा बंधुवर्गात्मसाक्षिकम् । पत्नी पाणिगृहीता स्यात्तदन्या चेटिका मता।178। तत्र पाणिगृहीता या सा द्विधा लक्षणाद्यथा। आत्म-ज्ञाति: परज्ञाति: कर्मभूरूढिसाधनात् ।179। परिणीतात्मज्ञातिश्च धर्मपत्नीति सैव च। धर्मकार्ये हि सध्रीची यागादौ शुभकर्मणि।180। स: सूनु: कर्मकार्येऽपि गोत्ररक्षादिलक्षणे। सर्वलोकाविरुद्धत्वादधिकारी न चेतर:।182। परिणीतानात्मज्ञातिर्या पितृसाक्षिपूर्वकम् । भोगपत्नीति सा ज्ञेया भोगमात्रैकसाधनात् ।183। आत्मज्ञाति: परज्ञाति: सामान्यवनिता तु या। पाणिग्रहणशून्या चेच्चेटिका सुरतप्रिया।184। चेटिका भोगपत्नी च द्वयोर्भोगांगमात्रत:। लौकिकोक्तिविशेषोऽपि न भेद: पारमार्थिक:।185। विशेषोऽस्ति मिथश्चात्र परत्वैकत्वतोऽपि च। गृहीता चागृहीता च तृतीया नगरांगना।198। गृहीतापि द्विधा तत्र यथाद्या जीवभर्तृका। सत्सु पित्रादिवर्गेषु द्वितीया मृतभर्तृका।199। चेटिका या च विख्याता पतिस्तस्या: स एव हि। गृहीता सापि विख्याता स्यादगृहीता च तद्वत् ।200। जीवत्सु बंधुवर्गेषु रंडा स्यान्मृतभर्तृका। मृतेषु तेषु सैव स्यादगृहीता च स्वैरिणी।201। अस्या: संसर्गवेलायामिंगिते नरि वैरिभि:। सापराधतया दंडो नृपादिभ्यो भवेद्ध्रुवम् ।202। केचिज्जैना वदंत्येवं गृहीतैषां स्वलक्षणात् । नृपादिभिर्गृहीतत्वान्नीतिमार्गानतिक्रमात् ।203। विख्यातो नीतिमार्गोऽयं स्वामी स्याज्जगतां नृप:। वस्तुतो यस्य न स्वामी तस्य स्वामी महीपति:।204। तन्मतेषु गृहीता सा पित्राद्यैरावृतापि या। यस्या: संसर्गतो भीतिर्जायते न नृपादित:।205। तन्मते द्विधैव स्वैरी गृहीतागृहीतभेदत:। सामान्यवनिता या स्याद्गृहीतांतर्भावत:।206। </p> | |||
<p class="HindiText">= स्वस्त्री-देवशास्त्र गुरु को नमस्कारकर तथा अपने भाई बंधुओं की साक्षीपूर्वक जिस कन्या के साथ विवाह किया जाता है वह विवाहिता स्त्री कहलाती है, ऐसी विवाहिता स्त्रियों के सिवाय अन्य सब पत्नियाँ दासियाँ कहलाती हैं।178। विवाहिता पत्नी दो प्रकार की होती है। एक तो कर्मभूमि में रूढि से चली आयी अपनी जाति की कन्या के साथ विवाह करना और दूसरी अन्य जाति की कन्या के साथ विवाह करना।179। अपनी जाति की जिस कन्या के साथ विवाह किया जाता है वह धर्मपत्नी कहलाती है। वह ही यज्ञपूजा प्रतिष्ठा आदि शुभ कार्यों में व प्रत्येक धर्म कार्यों में साथ रहती है।180। उस धर्मपत्नी से उत्पन्न पुत्र ही पिता के धर्म का अधिकारी होता है और गोत्र की रक्षा करने रूप कार्य में वह ही समस्त लोक का अविरोधी पुत्र है। अन्य जाति की विवाहिता कन्या रूप पत्नी से उत्पन्न पुत्र को उपरोक्त कार्यों का अधिकार नहीं है।182। जो पिता की साक्षीपूर्वक अन्य जाति की कन्या के साथ विवाह किया जाता है वह भोगपत्नी कहलाती है, क्योंकि वह केवल भोगोपभोग सेवन करने के काम आती है, अन्य कार्यों में नहीं।183। अपनी जाति तथा पर जाति के भेद से स्त्रियाँ दो प्रकार की हैं तथा जिसके साथ विवाह नहीं हुआ है ऐसी स्त्री दासी वा चेटी कहलाती है, ऐसी दासी केवल भोगाभिलाषिणी है।184। दासी और भोगपत्नी केवल भोगोपभोग के ही काम आती है। लौकिक दृष्टि से यद्यपि उनमें थोड़ा भेद है पर परमार्थ से कोई भेद नहीं है।185। परस्त्री भी दो प्रकार की हैं, एक दूसरे के अधीन रहने वाली और दूसरी स्वतंत्र रहने वाली जिनको गृहीता और अगृहीता कहते हैं। इनके सिवाय तीसरी वेश्या भी परस्त्री कहलाती है।198। गृहीता या विवाहिता स्त्री दो प्रकार की हैं एक ऐसी स्त्रियाँ जिनका पति जीता है तथा दूसरी ऐसी जिनका पति तो मर गया हो परंतु माता, पिता अथवा जेठ देवर के यहाँ रहती हों।199। इसके सिवाय जो दासी के नाम से प्रसिद्ध हो और उसका पति ही घर का स्वामी हो वह भी गृहीता कहलाती है। यदि वह दासी किसी की रक्खी हुई न हो, स्वतंत्र हो तो वह गृहीता दासी के समान ही अगृहीता कहलाती है।200। जिसके भाई बंधु जीते हों परंतु पति मर गया हो ऐसी विधवा स्त्री को भी गृहीता कहते हैं। ऐसी विधवा स्त्री के यदि भाई बंधु सब मर जायें तो अगृहीता कहलाती है।201। ऐसी स्त्रियों के साथ संसर्ग करते समय कोई शत्रु राजा को खबर कर दे तो अपराध के बदले राज्य की ओर से कठोर दंड मिलता है।202। कोई यह भी कहते हैं कि जिस स्त्री का पति और भाई बंधु सब मर जायें तो भी अगृहीता नहीं कहलाती किंतु गृहीता ही कहलाती है, क्योंकि गृहीता लक्षण उसमें घटित होता है क्योंकि नीतिमार्ग का उल्लंघन न करते हुए राजाओं के द्वारा ग्रहण की जाती हैं इसलिए गृहीता ही कहलाती हैं।203। संसार में यह नीतिमार्ग प्रसिद्ध है कि संसार भर का स्वामी राजा होता है। वास्तव में देखा जाये तो जिसका कोई स्वामी नहीं होता उसका स्वामी राजा ही होता है।204। जो इस नीति को मानते हैं, उनके अनुसार उसको गृहीता ही मानना चाहिए, चाहे वह माता पिता के साथ रहती हो, चाहे अकेली रहती हो। उनके मतानुसार अगृहीता उसको समझना चाहिए जिसके साथ संसर्ग करने पर राजा का डर न हो।205। ऐसे लोगों के मतानुसार रहने वाली (कुलटा) स्त्रियाँ दो प्रकार ही समझनी चाहिए। एक गृहीता दूसरी अगृहीता। जो सामान्य स्त्रियाँ हैं वे सब गृहीता में अंतर्भूत कर लेना चाहिए (तथा वेश्याएँ अगृहीता समझनी चाहिए)।206।</p> | |||
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Latest revision as of 14:39, 27 November 2023
- गृहीता आदि स्त्रियों के भेद व लक्षण
(लाटी संहिता/2/178-206 )
देवशास्त्रगुरून्नत्वा बंधुवर्गात्मसाक्षिकम् । पत्नी पाणिगृहीता स्यात्तदन्या चेटिका मता।178। तत्र पाणिगृहीता या सा द्विधा लक्षणाद्यथा। आत्म-ज्ञाति: परज्ञाति: कर्मभूरूढिसाधनात् ।179। परिणीतात्मज्ञातिश्च धर्मपत्नीति सैव च। धर्मकार्ये हि सध्रीची यागादौ शुभकर्मणि।180। स: सूनु: कर्मकार्येऽपि गोत्ररक्षादिलक्षणे। सर्वलोकाविरुद्धत्वादधिकारी न चेतर:।182। परिणीतानात्मज्ञातिर्या पितृसाक्षिपूर्वकम् । भोगपत्नीति सा ज्ञेया भोगमात्रैकसाधनात् ।183। आत्मज्ञाति: परज्ञाति: सामान्यवनिता तु या। पाणिग्रहणशून्या चेच्चेटिका सुरतप्रिया।184। चेटिका भोगपत्नी च द्वयोर्भोगांगमात्रत:। लौकिकोक्तिविशेषोऽपि न भेद: पारमार्थिक:।185। विशेषोऽस्ति मिथश्चात्र परत्वैकत्वतोऽपि च। गृहीता चागृहीता च तृतीया नगरांगना।198। गृहीतापि द्विधा तत्र यथाद्या जीवभर्तृका। सत्सु पित्रादिवर्गेषु द्वितीया मृतभर्तृका।199। चेटिका या च विख्याता पतिस्तस्या: स एव हि। गृहीता सापि विख्याता स्यादगृहीता च तद्वत् ।200। जीवत्सु बंधुवर्गेषु रंडा स्यान्मृतभर्तृका। मृतेषु तेषु सैव स्यादगृहीता च स्वैरिणी।201। अस्या: संसर्गवेलायामिंगिते नरि वैरिभि:। सापराधतया दंडो नृपादिभ्यो भवेद्ध्रुवम् ।202। केचिज्जैना वदंत्येवं गृहीतैषां स्वलक्षणात् । नृपादिभिर्गृहीतत्वान्नीतिमार्गानतिक्रमात् ।203। विख्यातो नीतिमार्गोऽयं स्वामी स्याज्जगतां नृप:। वस्तुतो यस्य न स्वामी तस्य स्वामी महीपति:।204। तन्मतेषु गृहीता सा पित्राद्यैरावृतापि या। यस्या: संसर्गतो भीतिर्जायते न नृपादित:।205। तन्मते द्विधैव स्वैरी गृहीतागृहीतभेदत:। सामान्यवनिता या स्याद्गृहीतांतर्भावत:।206।
= स्वस्त्री-देवशास्त्र गुरु को नमस्कारकर तथा अपने भाई बंधुओं की साक्षीपूर्वक जिस कन्या के साथ विवाह किया जाता है वह विवाहिता स्त्री कहलाती है, ऐसी विवाहिता स्त्रियों के सिवाय अन्य सब पत्नियाँ दासियाँ कहलाती हैं।178। विवाहिता पत्नी दो प्रकार की होती है। एक तो कर्मभूमि में रूढि से चली आयी अपनी जाति की कन्या के साथ विवाह करना और दूसरी अन्य जाति की कन्या के साथ विवाह करना।179। अपनी जाति की जिस कन्या के साथ विवाह किया जाता है वह धर्मपत्नी कहलाती है। वह ही यज्ञपूजा प्रतिष्ठा आदि शुभ कार्यों में व प्रत्येक धर्म कार्यों में साथ रहती है।180। उस धर्मपत्नी से उत्पन्न पुत्र ही पिता के धर्म का अधिकारी होता है और गोत्र की रक्षा करने रूप कार्य में वह ही समस्त लोक का अविरोधी पुत्र है। अन्य जाति की विवाहिता कन्या रूप पत्नी से उत्पन्न पुत्र को उपरोक्त कार्यों का अधिकार नहीं है।182। जो पिता की साक्षीपूर्वक अन्य जाति की कन्या के साथ विवाह किया जाता है वह भोगपत्नी कहलाती है, क्योंकि वह केवल भोगोपभोग सेवन करने के काम आती है, अन्य कार्यों में नहीं।183। अपनी जाति तथा पर जाति के भेद से स्त्रियाँ दो प्रकार की हैं तथा जिसके साथ विवाह नहीं हुआ है ऐसी स्त्री दासी वा चेटी कहलाती है, ऐसी दासी केवल भोगाभिलाषिणी है।184। दासी और भोगपत्नी केवल भोगोपभोग के ही काम आती है। लौकिक दृष्टि से यद्यपि उनमें थोड़ा भेद है पर परमार्थ से कोई भेद नहीं है।185। परस्त्री भी दो प्रकार की हैं, एक दूसरे के अधीन रहने वाली और दूसरी स्वतंत्र रहने वाली जिनको गृहीता और अगृहीता कहते हैं। इनके सिवाय तीसरी वेश्या भी परस्त्री कहलाती है।198। गृहीता या विवाहिता स्त्री दो प्रकार की हैं एक ऐसी स्त्रियाँ जिनका पति जीता है तथा दूसरी ऐसी जिनका पति तो मर गया हो परंतु माता, पिता अथवा जेठ देवर के यहाँ रहती हों।199। इसके सिवाय जो दासी के नाम से प्रसिद्ध हो और उसका पति ही घर का स्वामी हो वह भी गृहीता कहलाती है। यदि वह दासी किसी की रक्खी हुई न हो, स्वतंत्र हो तो वह गृहीता दासी के समान ही अगृहीता कहलाती है।200। जिसके भाई बंधु जीते हों परंतु पति मर गया हो ऐसी विधवा स्त्री को भी गृहीता कहते हैं। ऐसी विधवा स्त्री के यदि भाई बंधु सब मर जायें तो अगृहीता कहलाती है।201। ऐसी स्त्रियों के साथ संसर्ग करते समय कोई शत्रु राजा को खबर कर दे तो अपराध के बदले राज्य की ओर से कठोर दंड मिलता है।202। कोई यह भी कहते हैं कि जिस स्त्री का पति और भाई बंधु सब मर जायें तो भी अगृहीता नहीं कहलाती किंतु गृहीता ही कहलाती है, क्योंकि गृहीता लक्षण उसमें घटित होता है क्योंकि नीतिमार्ग का उल्लंघन न करते हुए राजाओं के द्वारा ग्रहण की जाती हैं इसलिए गृहीता ही कहलाती हैं।203। संसार में यह नीतिमार्ग प्रसिद्ध है कि संसार भर का स्वामी राजा होता है। वास्तव में देखा जाये तो जिसका कोई स्वामी नहीं होता उसका स्वामी राजा ही होता है।204। जो इस नीति को मानते हैं, उनके अनुसार उसको गृहीता ही मानना चाहिए, चाहे वह माता पिता के साथ रहती हो, चाहे अकेली रहती हो। उनके मतानुसार अगृहीता उसको समझना चाहिए जिसके साथ संसर्ग करने पर राजा का डर न हो।205। ऐसे लोगों के मतानुसार रहने वाली (कुलटा) स्त्रियाँ दो प्रकार ही समझनी चाहिए। एक गृहीता दूसरी अगृहीता। जो सामान्य स्त्रियाँ हैं वे सब गृहीता में अंतर्भूत कर लेना चाहिए (तथा वेश्याएँ अगृहीता समझनी चाहिए)।206।
- देखें स्त्री 5 ।